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दादा साहब फाल्के पुरस्कारः गरीबों के नायक की सुध

तीन बार के राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता मिठुन चक्रवर्ती को दादा साहब फाल्के सम्मान
मिथुन चक्रवर्ती

अमिताभ बच्चन को हर जगह देखने वाली पीढ़ी को यकीन करना वाकई मुश्किल होगा कि 1980 के दशक में एक सांवला, दुबला-पतला लड़का भी लोकप्रिय कलाकार था। वह  सर्दियों में रविवार की एक शाम थी, जब दिल्ली लिहाफ में ऊंघ रही थी और फीरोजशाह रोड के ली-मेरीडियन होटल में उंगलियों पर गिनने लायक पत्रकार जमा थे। एक उत्पाद लॉन्च होना था और अतिथि के रूप में मिठुन दा आए थे। बहुत औपचारिक माहौल में मिठुन चक्रवर्ती से एक पत्रकार ने झिझक कर सवाल किया, ‘‘आपको गरीबों का अमिताभ बच्चन कहा जाता है, आपको बुरा नहीं लगता?’’ सवाल में जितनी झिझक थी, जवाब उतना ही शानदार, ‘‘गरीबों का हीरो होना बुरी बात है क्या?’’ गरीब के इसी हीरो को फिल्मों के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार दादा साहब फाल्के से सम्मानित किया जा रहा है।  

गौरांग चक्रवर्ती उर्फ मिठुन का जन्म 16 जून, 1950 को हुआ था। मृगया (1976) उनकी पहली फिल्म थी। इसी फिल्म के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पहला पुरस्कार मिला। राष्ट्रीय पुरस्कार से दर्शकों ने उनका नाम जाना, लेकिन काम जानना अभी बाकी था। फिर आया 1980 का दशक, जब गोविंदा से बहुत पहले मिठुन ने अपने गजब डान्स मूव्स से दर्शकों के दिल में जगह बना ली। वे डांसिंग स्टार के रूप में पहचाने जाने लगे। डिस्को डांसर (1982) में जिमी की भूमिका ने ऐसा माहौल बनाया कि फिल्म बड़ी हिट साबित हुई।

कलकत्ता के नामी स्कॉटिश चर्च कॉलेज से विज्ञान में स्नातक करने वाले गौरांग भी नहीं जानते थे कि नियति ने उनके लिए अलग रास्ता चुन रखा है। भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान, पुणे आने के बाद उनकी दुनिया बदल गई। मृगया के बाद उन्हें दो अनजाने (1976) और फूल खिले हैं गुलशन गुलशन (1977) में छोटी भूमिकाएं मिलीं, लेकिन अस्सी का दशक साल लगने से पहले उन्हें गजब कामयाबी मिली। कम बजट की फिल्म सुरक्षा (1979) ने उन्हें स्थापित कर दिया। रविकांत नगाइच के निर्देशन में बनी इस जासूसी फिल्म से मिथुन का नाम हो गया। फिर 1980 में ही हम पांच (1980) और वारदात (1981) भी हिट रहीं। इन फिल्मों में प्रमुख भूमिकाएं निभाने का फायदा यह हुआ कि मिठुन को म्यूजिकल फिल्म डिस्को डांसर (1982) मिल गई। यह फिल्म भी हिट रही और इसका संगीत भी। कसम पैदा करने वाले की (1984), डांस डांस (1987) से वे डांसर के तौर पर पहचाने जाने लगे।

इसके बाद तो जैसे हिट की लाइन लग गई। मुझे इंसाफ चाहिए (1983), प्यार झुकता नहीं (1985), स्वर्ग से सुंदर (1986), प्यार का मंदिर (1988) सभी सफल व्यावसायिक फिल्में रहीं। फिर वे वॉन्टेड (1983), बॉक्सर (1984), जागीर (1984), जाल (1986), वतन के रखवाले (1987), कमांडो (1988), वक्त की आवाज (1988), मुजरिम (1989) में उनके अभिनय को सराहा गया। सब कम बजट की फिल्में थीं, जो हिंदी पट्टी के छोटे शहरों में रुपया कमा नहीं बल्कि छाप रही थीं। यह वह दौर था जब उन्हें अमिताभ बच्चन का प्रतिद्वंद्वी समझा जाने लगा और वे, ‘गरीबों के अमिताभ’ बन गए। हर ऐक्शन और ड्रामा फिल्म में वे निचले तबके के विश्वसनीय से प्रतिनिधि लगने लगे। फर्क बस इतना था कि मिठुन की फिल्मों के सेट, कहानी, संगीत, अमिताभ की फिल्मों की तरह लार्जर दैन लाइफ नहीं थे। दोनों की ‘एंग्री यंग मैन’ वाली छवि में बड़ा अंतर था।

मृगया से शुरू हुआ उनका सफर व्यावसायिक चक्र में फंस ही गया था कि इस बीच ताहादेर कथा और स्वामी विवेकानंद आई। स्वामी विवेकानंद (1995) में वे रामकृष्ण परमहंस के रूप में दिखाई दिए। इस भूमिका को मिठुन ने इतने विश्वसनीय ढंग से निभाया कि दर्शकों के साथ फिल्म समीक्षक भी भौचक रह गए। इस फिल्म ने उन्हें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार दिलाया। इस किरदार में देख कर यकीन करना मुश्किल था कि यह वही अभिनेता है जिसे जल्लाद (1995) के लिए सर्वश्रेष्ठ खलनायक का फिल्म फेयर पुरस्कार मिला है। इससे पहले वे अग्निपथ (1990) के लिए सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेता का फिल्म फेयर पुरस्कार ले चुके थे।

नब्बे का दशक आते-आते उनकी छवि एकरसता का शिकार हो गई। फिल्म उद्योग से ब्रेक लेकर वे मुंबई से ऊटी चले गए जहां उन्होंने अपना एक होटल खोल लिया। 12 साल में उन्होंने 80 से ज्यादा फिल्मों में काम किया। अब भी कभी फिल्मों में तो कभी छोटे परदे पर मिठुन दिखाई दे जाते हैं। प्रशंसकों के बीच वे ‘कल्ट’ हैं। उन्हें दादा साहेब पुरस्कार मिलना तो बनता है। हालांकि उनसे कई वरिष्ठ और लोकप्रिय कलाकारों को यह नहीं मिल पाया है। कुछ आलोचकों के मुताबिक, मिठुन को भाजपा के साथ होने का लाभ मिला। वे बंगाल चुनाव में भाजपा के लिए स्टार प्रचारक भी रहे थे। जो भी हो, किसी कलाकार का सम्मान स्वागतयोग्य है। 

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