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हर कोई खेले दलित दांव

सत्तारूढ़ एनडीए और विपक्षी महागठबंधन ही नहीं, बाहरी दलित पार्टियों की बिहार में दिलचस्पी से दलितों पर फोकस बढ़ा
चुनाव सिर पर आते ही बिहार में दलित उत्पीड़न और अत्याचारों के खिलाफ फिर शुरू हुई चर्चाएं

जातिगत समीकरणों और दबंगई का जोर बिहार चुनावों में जैसी हकीकत है, वैसी ही हकीकत यह भी है कि दलितों ने पार्टियों की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हालांकि इसी समुदाय के लोग सबसे ज्यादा निशाने पर रहे हैं और अक्सर राजनीतिक और निजी दुश्मनी के चलते इस समुदाय के लोगों पर न सिर्फ हमले हुए बल्कि उनकी हत्या भी हुई। लेकिन इनके वोट से बनने वाली सरकारें इनका उत्पीड़न नहीं राेक पाई हैं। विडंबना यह भी देखिए कि वर्षों से लगभग हर राजनैतिक नेता के भाषण में इनके उत्पीड़न का ‌िजक्र अनिवार्य तौर पर होता रहा है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तो दलितों को लुभाने के लिए महादलित योजना का सूत्रपात किया।  

लेकिन इस बार उनके मास्टर स्ट्रोक से अक्टूबर-नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले ही बिहार की राजनीति में तूफान आ गया है। नीतीश ने घोषणा की है कि दलित समुदाय से किसी की हत्या होने पर उसके परिवार के किसी एक परिजन को सरकारी नौकरी दी जाएगी। जाहिर है, यह कदम हाशिए के लोगों को और करीब लाने की कोशिश है। चुनाव आयोग ने कोरोनावायरस महामारी की वजह से चुनाव न टालने की घोषणा की है और नीतीश पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने दलित या बिहार में महादलित कहे जाने वाले इस समुदाय के परंपरागत वोट बैंक के लिए अपना दांव चल दिया।

22 अलग-अलग जातियों के महादलित, राज्य के कुल मतदाताओं के लगभग 16 प्रतिशत हैं। बिहार की 243 विधानसभा सीटों में 38 एससी और दो एसटी के लिए सुरक्षित हैं। लेकिन दलित वोटों का प्रभाव इन सीटों से कहीं ज्यादा है। 

महादलित राजनीति में माहिर नीतीश कुमार से ज्यादा शायद ही इसे कोई समझता हो, जिनकी निगाहें इस चुनाव में लगातार चौथी जीत हासिल करने पर लगी हुई है। नीतीश ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (उत्‍पीड़न रोकथाम) अधिनियम 1995 के तहत गठित राज्य स्तरीय सतर्कता और निगरानी समिति की हालिया बैठक में अधिकारियों से कहा, “उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिए हम समुदाय के उत्थान के लिए कई योजनाएं चला रहे हैं। दूसरी योजनाओं और परियोजनाओं के बारे में भी सोचिए। उनकी सहायता के लिए जो भी आवश्यक होगा हम करेंगे।” नीतीश ने अधिकारियों को 20 सितंबर तक अधिनियम के तहत लंबित मामलों को निपटाने के लिए कहा है। इसके अलावा, उन्होंने एससी/एसटी व्यक्ति की हत्या की स्थिति में अनुकंपा के आधार पर परिवार के एक सदस्य को तत्काल रोजगार प्रदान करने के नियम बनाने का भी आदेश दिया है।

नीतीश के इस दांव पर विपक्षी पार्टियों ने उन पर चुनाव के वक्त दलित कार्ड खेलने का आरोप लगाया है। राजद नेता तेजस्वी यादव ने कहा, “नीतीश कुमार ने सरकारी नौकरियां देने की घोषणा की है क्योंकि चुनाव सिर पर हैं। यह एससी/एसटी लोगों की हत्या को प्रोत्साहन देने जैसा है। ओबीसी या सामान्य वर्ग के उन लोगों को भी नौकरी क्यों नहीं दी जानी चाहिए जिनकी हत्या हुई है?” तेजस्वी का कहना है कि नीतीश की प्राथमिकता यह आश्वस्त करना होना चाहिए कि एससी/एसटी समुदाय का कोई भी व्यक्ति न मारा जाए। उन्होंने कहा,“क्या मैं पूछ सकता हूं कि तब मुख्यमंत्री महोदय कहां थे जब एससी/एसटी अधिनियम कमजोर किया जा रहा था? देश भर में विरोध प्रदर्शन के बाद ही इस अधिनियम को बरकरार रखा गया।”

इस घोषणा की गूंज पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश तक भी पहुंची है, जहां बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने आरोप लगाया है कि बिहार में जद(यू)-भाजपा सरकार वोट की खातिर एससी-एसटी लोगों को लालच दे रही है। वे पूछती हैं, “बिहार सरकार समाज के इस तबके के कल्याण के लिए वास्तव में इतनी ही गंभीर है,तो इतने साल तक उनकी जरूरतों और मांगों की अनदेखी कर सोती क्यों रही?”

दिलचस्प यह है कि नीतीश सिर्फ विपक्षी नेताओं के निशाने पर ही नहीं हैं, लोक जनशक्ति पार्टी अध्यक्ष चिराग पासवान भी इसके आलोचक हैं। उन्होंने नीतीश को चिट्ठी लिख कर अपनी नाराजगी जताई है। चिराग ने इस कदम को “चुनावी घोषणा के अलावा कुछ नहीं” कहा। पासवान का कहना है, “नीतीश सरकार ईमानदार है, तो उसे एससी-एसटी समुदाय के उन लोगों को नौकरी देनी चाहिए, जिन्होंने बिहार में उनके 15 साल के शासन के दौरान अपनी जान गंवाई।”

हालांकि लोजपा अभी भी एनडीए का हिस्सा बनी हुई है। लेकिन लंबे समय से चिराग मुख्यमंत्री पर हमलावर हो रहे हैं, इससे कयास लगाए जा रहे हैं कि वे सत्तारूढ़ गठबंधन छोड़ सकते हैं। हालांकि जद-यू नेताओं ने कहा कि उनकी पार्टी का लोजपा के साथ कोई चुनावी गठबंधन नहीं है। राजनीति के जानकारों का मानना है कि चिराग शायद गठबंधन में ज्यादा सीटें लेने के लिए माहौल बना रहे हैं। कहा जा रहा है कि पूर्व मुख्यमंत्री और हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (सेक्यूलर) के नेता जीतन राम मांझी के फिर एनडीए में आ जाने से भी चिराग चिढ़े हुए हैं। यह भी चर्चा है कि मांझी की घर वापसी नीतीश ने लोजपा को साधने के लिए किया है। हालांकि चिराग के पिता और लोजपा संस्थापक रामविलास पासवान अभी भी दुसाध (पासवान) समुदाय के सबसे लोकप्रिय नेता हैं,जो बिहार में दलितों की सबसे प्रमुख जाति है। उनकी पार्टी कई साल से हर चुनाव में छह-सात फीसदी वोट पाती रही है।

मांझी ने ऐसे ही नीतीश का समर्थन और तेजस्वी पर प्रहार नहीं किया है। वे कहते हैं, “एससी/एसटी अधिनियम के तहत पहले से ही एक प्रावधान है,जो कमजोर वर्गों से मारे गए लोगों के परिजनों को रोजगार प्रदान करता है। जो लोग इसका विरोध कर रहे हैं उन्हें अधिनियम को दोबारा ध्यान से पढ़ना चाहिए।” मांझी के साथ तालमेल को सत्तारूढ़ गठबंधन के लिए एक बड़ी ताकत माना जाता है। मुसहर जाति के 76 साल का यह नेता महादलितों में बहुत लोकप्रिय है क्योंकि मुख्यमंत्री रहते हुए उनके आठ महीने लंबे कार्यकाल में कई लोकलुभावन योजनाओं की घोषणाएं हुई थीं। कांग्रेस और राजद की जोड़ी, जो खुद को महागठबंधन कहती है, भी मांझी के एनडीए में वापसी पर अचंभित है। राजद के प्रवक्ता मृत्युंजय तिवारी कहते हैं, “मांझी जी एनडीए में मिले अपमानजनक व्यवहार को भूल गए हैं। बिना किसी कारण के उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटा दिया गया था। उनके साथ फिर वही व्यवहार होगा।” राजद भी महादलित वोट बैंक के महत्व से अनजान नहीं है। पार्टी पहले से ही समुदाय के प्रमुख चेहरों के रूप में श्याम रजक, पूर्व विधानसभा अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी और पूर्व मंत्री रमई राम जैसे नेताओं को प्रोजेक्ट कर अपना आधार मजबूत करने की कोशिश कर रही है। नीतीश सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे रजक ने हाल ही में जद-यू का दामन छोड़ राजद में वापसी की है।

सत्तारूढ़ गठबंधन विपक्ष की आलोचना को अपने फायदे में बदलने की कोशिश में भी जुटा है। भाजपा के वरिष्ठ नेता सुशील कुमार मोदी कहते हैं कि मारे गए दलित व्यक्ति के परिजनों को नौकरी देने की मांग अक्सर की जाती रही है। फिर “जब, सरकार ने इस संबंध में घोषणा की है तो इसका विरोध क्यों किया जा रहा है?” वे पूछते हैं, “क्या राजद यह घोषणा कर सकता है कि अगर उन्हें (सरकार बनाने का) मौका मिलता है, तो वह अनुकंपा के आधार पर मिली नौकरियों और सभी प्रकार की मदद को रोक देगा?” उप-मुख्यमंत्री कहते हैं, जो लोग आर्थिक आधार पर सवर्णों के लिए कोटे का विरोध कर रहे थे, वे ही अब सहानुभूति के आधार पर रोजगार देने में समानता की वकालत कर रहे हैं। वे कहते हैं, “दलित और सामान्य वर्ग के लोग राजद को सबक सिखाएंगे।”

दलित वोट बैंक कितना महत्वपूर्ण है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हर पार्टी इस पर अपनी नजर गड़ाए हुए है। स्थानीय पार्टियों की क्या कहें, यह वोट बैंक बाहरियों को भी उतना ही आकर्षित कर रहा है। भीम आर्मी के मुखिया चंद्रशेखर आजाद “रावण” भी यह घोषणा कर चुके हैं कि उनकी पार्टी राज्य की सभी सीटों पर चुनाव लड़ेगी, लेकिन यह तो वक्त बताएगा कि दलितों का मत किस दल के पाले में जाएगा।

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