इस कोरोना-काल में मृत्यु ने सबसे अधिक अपना ‘मूल्य’ खोया है। यह कैसा समय है, जिसमें अपनों का अंतिम-संस्कार करने वाले खुद को ‘भाग्यशाली’ मानते हैं। अपनों की मृत्यु दुख का नहीं, भय का विषय है। इस समय मृत्यु संख्या बनकर रह गई है। विश्व के देशों में इस बीमारी से मरने वालों का शेयर बाजार के उतार-चढ़ाव की शैली में, ‘ग्राफिक-प्रेजेंटेशन’ आ रहा है। मानो यह संतोष है कि हमारे देश में मृत्यु दर किसी अन्य देश से कम है। ऐसा ही वातावरण शहरों, मोहल्लों और गांवों में भी है। अस्पतालों की सेवा और व्यवस्था पर बहुत कुछ प्रकाशित हो रहा है लेकिन कोरोना-पीड़ित व्यक्ति बिस्तर पर पड़ा अकेला क्या सोच रहा है, इसकी कहीं कल्पना तक नहीं। इसे समझने के लिए विश्व-साहित्य की शरण में जाने के अलावा कोई और मार्ग नहीं है।
विश्व साहित्य में तोलस्तोय का लेखन कालजयी माना जाता है। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बीसवीं सदी से होते हुए इस इक्कीसवीं सदी तक में उनके लेखन की सार्थकता न केवल बनी हुई है वरन निरंतर बढ़ती जा रही है। इसका प्रमुख कारण, मानव जीवन को संचालित करने वाले नियमों में स्थायित्व बना रहना है।
तोलस्तोय अपने लघु उपन्यास इवान इल्यीच की मौत (1886) में ऐसे आदमी की कहानी कहते हैं, जिसे मृत्यु के दरवाजे पर अपने जीवन की निरर्थकता का एहसास होता है। यह मृत्यु भय से जूझते एक व्यक्ति की कहानी है। तोलस्तोय कहते हैं, “इवान इल्यीच के जीवन की कहानी सरल, साधारण और भयंकर है।” इस कहानी को पढ़ते हुए लगता है कि तोलस्तोय आज के इस कोरोना-काल में कोरोना पीड़ित व्यक्ति के जीवन की ही कहानी कर रहे हैं।
इवान इल्यीच सम्मानित परिवार का उच्च शिक्षित बेटा है। वह सरकारी पद पर कार्य करता हुआ जांच-मजिस्ट्रेट के ऊंचे पद पर पहुंचता है। उसका विवाह होता है और दाम्पत्य जीवन आनंद से बीतता है। दो बच्चे हैं एक बेटा और एक बेटी। दोनों बच्चे युवा हैं। इवान इल्यीच के विवाह के लगभग बीस वर्ष बाद तक उसका जीवन सरल और साधारण था। बाद में इवान इल्यीच शिकायत करता कि उसके मुंह का स्वाद अजीब सा हो रहा है। उसे कमर में बोझ सा महसूस होता है। वह उदास रहने लगता है। कोरोना-काल में समझना जरूरी है कि बीमार व्यक्ति की मनोदशा क्या होती है। इस कहानी के माध्यम से कोरोना पीड़ित का दर्द समझा जा सकता है। इवान इल्यीच डॉक्टर के पास जाता है। डॉक्टर उसे रौब से देखता है, जिसका अर्थ है, सब ठीक हो जाएगा। जरूरत केवल इस बात की है कि तुम खुद को पूरी तरह मेरे हाथों में सौंप दो। तोलस्तोय कहते हैं, “हर रोगी के प्रति डॉक्टरों का एक ही सा रवैया होता है।”
इवान जानना चाहता है कि उसकी हालत चिंताजनक है या नहीं। पर डॉक्टर इस सवाल को असंगत समझता है और कोई उत्तर नहीं देता। डॉक्टर अपनी ऐनक में से देखता रहता है। उसकी आंखों में विजयोल्लास और एक तरह से विनोद का भाव है। इवान सोचता है कि उसकी हालत चिंताजनक है, पर इसकी चिंता न डॉक्टर को है, न किसी और को।
इवान इल्यीच की हालत धीरे-धीरे बिगड़ रही है। उसके मुंह का स्वाद और भी बकबका होने लगा है। उसकी भूख जाती रही और वह पहले से दुबला हो गया। इवान इल्यीच के साथ कोई भयानक बात होने जा रही थी, ऐसी जैसी उसके साथ पहले कभी न हुई थी। इवान इल्यीच बिस्तर पर पड़ा सोचता रहता है, एक वक्त था जब जिंदगी थी और अब वह भी खत्म होती जा रही है। मैं किसी भी तरह इसे रोक नहीं सकता। मैं क्यों खुद को धोखा दूं। मेरे सिवाए सभी लोग जानते हैं कि मैं मर रहा हूं। अब कुछ हफ्तों, कुछ दिनों हो सकता है कुछ घड़ियों की बात रह गई हो। किसी वक्त रोशनी थी, अब अंधेरा हो गया है। पहले मैं यहां था, अब मैं वहां जा रहा हूं। कहां जा रहा हूं?
किसी को उसके प्रति संवदेना न थी, जिसकी वह आशा करता था। इतनी देर तक कष्ट भोगने के बाद, कभी-कभी उसके हृदय में तीव्र इच्छा उठती है कि बीमार बच्चे की तरह उससे भी कोई लाड़-प्यार की बातें करे, उसे चूमे, उसकी स्थिति पर आंसू बहाए।
तोलस्तोय लिखते हैं, अकेला इवान इल्यीच बच्चों की तरह रोने लगता था। वह अपनी निसहायता पर रोता है, अपने भयावह एकाकीपन पर, लोगों की निर्दयता पर, भगवान की निर्दयता पर और इसलिए भी कि भगवान का अस्तित्व नहीं है। वह ईश्वर से मानो कहता है, तुमने यह सब क्यों रचा? मैंने कौन सा पाप किया था जिसकी तुम मुझे इतनी बड़ी सजा दे रहे हो? इस एकाकीपन में, अपने जीवन के अंतिम दिनों में वह केवल अपने अतीत के बारे में सोचता है। इस आबाद शहर में, जहां इतने मित्र और संबंधी रहते हैं, वह बिल्कुल अकेला है। यदि वह समुद्र के तल में भी पड़ा होता तो भी इतना अकेला न होता।
तोलस्तोय आगे लिखते हैं, वह कराहता, छटपटाता और मुट्ठियों में अपने कपड़े भींचता है। जीवन के अंतिम दिनों में उसे महसूस होता है जैसे, समय की गति थम गई है और वह उस काले बोरे के विरुद्ध संघर्ष कर रहा है जिसमें उसे कोई अदृश्य और अदम्य शक्ति घुसेड़े जा रही है। वह उस व्यक्ति की तरह छटपटाता है, जिसे फांसी की सजा मिल चुकी हो और यह जानते हुए कि बचाव का कोई रास्ता नहीं है, वह जल्लाद की बांहों में छटपटाने लगे।
जीवन के अंतिम समय में इवान इल्यीच ने खुद से पूछा इस दर्द को कैसे दूर करूं? हे दर्द, कहां हो तुम? वह दर्द ढूंढने लगा। और मौत! मौत कहां है? वह मौत के भय को खोजने लगा जिसका वह अभ्यस्त हो चुका था। पर वह उसे मिली नहीं। मौत कहां गई? चूंकि मौत नहीं रही, इसलिए मौत का भय भी नहीं रहा।
(लेखक स्नातकोत्तर महाविद्यालय, इटारसी से सेवानिवृत्त प्राध्यापक हैं)