अपने कुल वृक्षाच्छादित यानी वन क्षेत्र का लगभग 15 प्रतिशत देश पिछले दो दशकों में खो चुका है। ऑनलाइन निगरानी संस्था ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच के मुताबिक, 2002 से अब तक 3,48,000 हेक्टेयर से ज्यादा बारिश वन खत्म हो चुके हैं। उनमें 18,000 तो 2024 में ही गायब हो गए। ये सिर्फ वन नहीं, बल्कि घने, सदियों पुराने पर्यावरण तंत्र हैं, जो कार्बन का भंडारण करते हैं, वर्षा को नियंत्रित करते हैं और हजारों प्रजातियों की रिहाइश की जिम्मेदारी उठाते हैं। 2001 से वन देश में हर साल औसतन 8.03 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित कर रहे हैं। वन क्षेत्र में गिरावट देश के राष्ट्रीय स्तर पर तय योगदान के तहत 2030 तक 2.5-3 अरब टन कार्बन उत्सर्जन घटाने के संकल्प को कमजोर करता है। वनों की कटाई का मौजूदा रुझान जारी रहा, तो विशेषज्ञों की चेतावनी है कि यह वादा पूरा नहीं हो पाएगा। अनुमान है कि भारत का कुल कार्बन भंडार 6.13 गीगाटन है, जिसका अधिकांश हिस्सा जैव ईंधन के रूप में भूगर्भ में है। जब वनों का सफाया होता है, तो यह कार्बन वापस वायुमंडल में चला जाता है।
अलबत्ता देश में वनों की रक्षा के लिए बनाए गए कानूनों और कार्यक्रमों की लंबी सूची है। मसलन, वन संरक्षण अधिनियम, संयुक्त वन प्रबंधन, वन अधिकार अधिनियम, हरित भारत मिशन और प्रतिपूरक वनरोपण निधि प्रबंधन तथा योजना प्राधिकरण वगैरह। कागजों पर ये कानून और व्यवस्था सख्त नजर आती है लेकिन जमीन पर स्थिति कुछ और ही कहानी बयां करती है।
वन अधिकार अधिनियम का उद्देश्य वनवासियों के अधिकारों और उनकी रिहाइश को बहाल करना है, क्योंकि पहले के कानूनों के तहत उनके अधिकारों में कटौती की गई थी। लेकिन वनाधिकार को लेकर अलग-अलग क्षेत्रों में संघर्ष जारी है। कई मामलों में वन में रहने वाले आदिवासी समुदायों को अभी भी न पूरी तरह पट्टा मिला है, न वन भूमि के उपयोग और संरक्षण से जुड़े फैसलों पर उनसे पूछा जाता है। लिहाजा, आदिवासियों के विस्थापन के साथ-साथ जंगलों की भी बड़े पैमाने पर कटाई हो रही है।
एक गैर-लाभकारी संस्था अशोक ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी ऐंड द एन्वायरनमेंट में पोस्ट-डॉक्टरल रिसर्च एसोसिएट अनुजा अनिल दाते कहती हैं, ‘‘1990 के दशक से वन संरक्षण अधिनियम के दुरुपयोग और उसे धीरे-धीरे कमजोर किए जाने के कारण वन लगातार सिकुड़ रहे हैं।’’ 2023 में वन संरक्षण अधिनियम में एक संशोधन के जरिए राज्य सरकारों को वन भूमि के ऐसे हस्तांतरण की मंजूरी देने की अनुमति मिली, जिसके लिए पहले केंद्रीय मंजूरी की दरकार होती थी। पर्यावरणविदों के मुताबिक, इससे अनियंत्रित और बेहिसाब विकास का हाइवे खुल गया है। कानून अब खनन, सड़क, रेलवे जैसी इन्फ्रास्ट्रक्चर तथा उत्खनन परियोजनाओं और सर्वेक्षणों के लिए अवर्गीकृत वनों, वर्गीकृत वनों और निजी भूमि पर बेरोकटोक काम करने की इजाजत दे देता है।
वनरोपण का छलावा
2021 की वन स्थिति रिपोर्ट के अनुसार, मध्यम सघन वनों में 1,582 वर्ग किमी की कमी आई है, जबकि खुले वनों में 2,621 वर्ग किमी की वृद्धि हुई है। यह बदलाव कागज पर तो सकारात्मक लगता है, लेकिन समृद्ध पारिस्थितिकी तंत्र से बंजर या कृषि योग्य भूमि में बदलाव को छुपा लेता है।
एक गैर-लाभकारी संस्था, सेंटर फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर के कार्यकारी निदेशक, रामंजनेयुलु जी.वी. कहते हैं, ‘‘यह वनों की बेहद अदूरदर्शी समझ है। वन केवल वृक्ष आवरण नहीं होते हैं, वे मिट्टी, कीटों, सूक्ष्म जीवों, घासों और स्थानीय प्रजातियों का संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र हैं जो सदियों से विकसित होते रहे हैं।’’
वनों की कटाई की भरपाई के लिए सरकार वनीकरण कार्यक्रम चलाने की बात करती है। लेकिन उसके असर पर कई सवाल उठ रहे हैं। यह योजना इस नजरिए पर आधारित है कि विकास के कारण नष्ट हुए जंगल की जगह कहीं और नए पेड़ लगाकर उसकी भरपाई की जा सकती है। लेकिन व्यवहार में, यह व्यावसायिक गतिविधियों के लिए उपायोगी पेड़-पौधे लगाए जाते हैं और अक्सर अनुपयुक्त भूमि पर लगाए जाते हैं।
पर्यावरण की क्षतिपूर्ति के रूप में जुटाई रकम को राज्यों को चिन्हित गैर-वन भूमि पर वनीकरण करने के लिए आवंटित किया जाता है। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) के 2020 के ऑडिट से पता चला है कि ओडिशा में सरकारी वृक्षारोपण की टिकाऊ दर सिर्फ 7.5 प्रतिशत थी। यह कार्यक्रम खराब रखरखाव, धन के दुरुपयोग और गुणवत्ता की बजाय मात्रा पर जोर देने के कारण बर्बाद हुआ। उत्तराखंड में, वनीकरण के लिए निर्धारित रकम मोबाइल फोन, कार्यालय नवीनीकरण और कानूनी शुल्क पर खर्च किया गया। कुल मिलाकर, यह कार्यक्रम कोई सार्थक भरपाई करने में नाकाम रहा है। कई सीएजी रिपोर्टें वृक्षारोपण की गैर-टिाकऊ दर और धन के दुरुपयोग को जाहिर करती हैं। दाते कहती हैं, ‘‘इसमें भरपाई का विचार बहुत ही बेतुका है।’’ वे आगे कहती हैं कि महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में केंद्र ने खनन कंपनी लॉयड्स मेटल्स ऐंड एनर्जी के लौह अयस्क लाभकारी संयंत्र के लिए 937 हेक्टेयर वन भूमि के बदलाव और 1.23 लाख पेड़ों की कटाई को मंजूरी दी है।
आदिवासी समुदाय सदियों से वन भूमि के सबसे प्रभावी संरक्षक रहे हैं। प्रमाण भी इस बात की पुष्टि करते हैं। महाराष्ट्र में, मेंधा लेखा, पचगांव और पायविहिर जैसे गांवों ने सामुदायिक वन अधिकार (सीएफआर) प्राप्त करने के बाद जैव विविधता को बहाल किया है और मिट्टी की उर्वरता में सुधार किया है। 2012 से, पचगांव ने टिकाऊ वन प्रबंधन में स्थानीय मानक स्थापित किया है। पायविहिर में बंजर भूमि को उपजाऊ खेतों और जंगलों में बदल दिया गया है, जिससे कार्बन, पोषक तत्वों और कार्बनिक पदार्थों की प्रचुरता के कारण मिट्टी की उर्वरता में वृद्धि हुई है।
छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में सीएफआर ने पारंपरिक ज्ञान को संरक्षण लक्ष्यों के साथ जोड़ने में मदद की है। लेकिन कई ग्राम सभाओं को अभी भी वित्तीय सहायता नहीं मिलती है। दाते कहती हैं, ‘‘इन समुदायों की भूमिका को औपचारिक मान्यता नहीं मिलती। वनरोपण फंड कभी उन तक नहीं पहुंचता।’’
अंतरराष्ट्रीय मॉडल दिखाते हैं कि क्या संभव है। नेपाल और मैक्सिको में, सरकारों ने वन समुदायों को प्रशिक्षण और उपकरण प्रदान करके उन्हें स्थायी वन उद्यम चलाने में सक्षम बनाया है। मैक्सिको के ओक्साका में, सिएरा नॉर्टे में ऐसे ही एक मॉडल ने दो दशकों में 30 लाख मीट्रिक टन लकड़ी और कार्बन का उत्पादन किया है, और यह सब उन जंगलों से हुआ है जो लगातार फल-फूल रहे हैं। दाते कहती हैं, ‘‘यह बिल्कुल संभव है अगर समुदायों को सशक्त बनाया जाए और उन्हें अपनी शर्तों पर बातचीत करने की जगह दी जाए और हस्ताक्षरित अनुबंध जन-आधारित और समुदाय-नेतृत्व वाले हो।’’
नीतिगत बदलाव जरूरी
विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी नामक थिंक टैंक में जलवायु और पारिस्थितिकी तंत्र टीम के वरिष्ठ रेजिडेंट फेलो और प्रमुख देबादित्य सिन्हा कहते हैं, ‘‘व्यवस्था में बदलाव लाना होगा।’’ लक्ष्य-उन्मुख वनरोपण नीति को वन अधिकार अधिनियम पर केंद्रित होना होगा। वनरोपण परियोजनाओं पर पारिस्थितिक इतिहास को ध्यान में रखकर अमल किया जाना चाहिए और ऐसी व्यवस्थाएं होनी चाहिए जो तय करें कि धन का उपयोग वन बहाली के लिए किया जाए।
सिन्हा बताते हैं कि कई वनरोपण परियोजनाओं में वृक्षारोपण के लिए पथरीली जमीन को साफ करने के लिए बुलडोजर और यहां तक कि विस्फोटकों का भी इस्तेमाल किया जाता है। वे कहते हैं, ‘‘पारिस्थितिकी तंत्र को नष्ट कर आप वनों को बहाल नहीं कर सकते।’’ वे आगे कहते हैं कि वनरोपण योजनाएं वैज्ञानिकों, पारिस्थितिकीविदों और सामाजिक विशेषज्ञों के परामर्श से की जानी चाहिए और स्थानीय समुदाय की जरूरतों के अनुरूप वृक्ष प्रजातियों का चयन किया जाना चाहिए। सफलता का सही पैमाना शुद्ध जैव विविधता लाभ होना चाहिए।
सबसे बढ़कर, पर्यावरण के प्रति संवेदनशील क्षेत्रों में विकास के लिए पर्यावरण मंजूरियों की कड़ी निगरानी होनी चाहिए। वे चेतावनी देते हैं, ‘‘अगर ग्रेट निकोबार के जंगल गायब हो जाते हैं, तो कोई भी भरपाई उन्हें वापस नहीं ला पाएगी।’’
देश ने जलवायु परिवर्तन के समाधान के रूप में वनों पर बड़ा दांव लगाया है। लेकिन जब तक वनों की परिभाषा, प्रबंधन और उनके मूल्य निर्धारण पर पुनर्विचार नहीं किया जाता, तब तक उसे कार्बन सिंक के अलावा और भी बहुत कुछ खोने का जोखिम है। इससे खुद वनों के खोने का खतरा है।