कथित शराब घोटाले के सिलसिले में दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के आवास पर सीबीआइ के छापे के महज दो दिन बाद कांस्टिट्यूशन क्लब में कांग्रेस नेता राहुल गांधी के साथ स्वयंसेवी संस्थाओं, जन आंदोलनों और नागरिक समाज के प्रतिनिधियों की एक अहम बैठक हुई। यह बैठक कांग्रेस की प्रस्तावित ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के संबंध में थी। जो नागरिक समाज कभी मूल रूप से कांग्रेस पार्टी का विस्तार हुआ करता था पर 2011 में जिसने अरविंद केजरीवाल को अपनी गोद में बैठा कर अनजाने में दिल्ली दंगे का कलंक अपने सिर ले लिया, उसके लिए भूल-सुधार का यह निर्णायक अवसर था। नतीजा- 22 अगस्त को एक समूचे तबके की घर वापसी हो गई।
इसके ठीक हफ्ते भर बाद 29 अगस्त 2022 को दिल्ली विधानसभा में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का लाया ‘ट्रस्ट वोट’ और उसी रात उपराज्यपाल विनय कुमार सक्सेना के खिलाफ ‘आप’ के विधायकों का संगीतमय धरना इस बात का संकेत है कि आम आदमी पार्टी की सत्ता का इकबाल कमजोर पड़ चुका है, भले उसका बहुमत कायम रहे। वरना क्या वजह थी कि केजरीवाल को अपने विधायकों का विश्वास बाकायदा प्रस्ताव लाकर जांचना पड़ा? जबकि प्रस्ताव लाने से पहले ही उन्हें पता था कि उनके विधायक ‘कट्टर ईमानदार’ हैं! उन्होंने तो यह भी कह दिया था कि भारतीय जनता पार्टी का ‘ऑपरेशन लोटस’ दिल्ली में असफल हो चुका है? आखिर वे क्या साबित करना चाह रहे थे? और किसके सामने?
दिल्ली की आबकारी नीति से जुड़े कथित घोटाले पर भाजपा की प्रेस वार्ता
आरोप का जवाब आरोप?
क्या यह समूची कवायद कथित शराब घोटाले की आंच से भागने और मुद्दे को दूसरी दिशा में मोड़ने के लिए की गई? यदि उपराज्यपाल के खिलाफ 1400 करोड़ रुपये की कथित नोटबदली के साक्ष्य पार्टी के पास पहले से थे तो उन्हें पहले क्यों नहीं सार्वजनिक किया गया? अरविंद केजरीवाल ने कहा है कि भाजपा ने ऑपरेशन लोटस की जगह ऑपरेशन कीचड़ कर दिया। तो क्या वे खुद कीचड़ से कीचड़ को धोना चाह रहे हैं?
सिसोदिया के यहां छापे के दिन 20 अगस्त को ‘आप’ से इस्तीफा देने वाले दिल्ली के एक नेता मनोज नागपाल की मानें तो आबकारी नीति का कीचड़ सीबीआइ जांच के पहले से ही मौजूद था। नागपाल कहते हैं, ‘एलजी ने जिस रिपोर्ट के आधार पर एक्साइज नीति की जांच की मांग की, उसे दिल्ली के मुख्य सचिव ने तैयार किया था। मुख्यमंत्री केजरीवाल की मंजूरी से ही रिपोर्ट बनी थी। फिर यह नाटक क्यों खेला जा रहा है?’ ध्यान देने वाली बात है कि नागपाल 2014 तक भाजपा में थे और वे दोनों दलों की अंदरूनी राजनीति से वाकिफ हैं।
‘ऑपरेशन’ का नाटक?
इस ‘नाटक’ को समझने के लिए हमें छह साल पीछे चलना होगा जब भाजपा ने ‘ऑपरेशन लोटस’ की पहली कार्रवाई दिल्ली सरकार पर की थी। यह ‘आप’ के 21 विधायकों को दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा ‘ऑफिस ऑफ प्रॉफिट’ के केस में अयोग्य ठहराए जाने का मामला था जिसकी जनहित याचिका राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा (आरएमएम) नाम के एक एनजीओ ने दायर की थी। यह एनजीओ मशहूर वकील राम जेठमलानी द्वारा स्थापित किया गया था, जो भाजपा सरकार में दो बार केंद्रीय मंत्री और राज्यसभा सांसद रह चुके थे। केजरीवाल ने अरुण जेटली द्वारा 2017 में किए गए मानहानि के मुकदमे में जेठमलानी को अपना वकील बनाया था। यह प्रसंग आज तक रहस्य बना हुआ है कि जेठमलानी की संस्था ने दिल्ली सरकार के विधायकों के खिलाफ याचिका क्यों लगाई और केजरीवाल ने जेठमलानी को ही अपना वकील क्यों चुना!
इसके अलावा, जैसा कि उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में उस वक्त सवाल उठाया था, केजरीवाल ने ‘याचिकाकर्ता (आरएमएम) के विशिष्ट अनुरोध’ का प्रतिवाद क्यों नहीं किया? आखिर एक बार भी केजरीवाल ने ‘ऑफिस ऑफ प्रॉफिट’ केस के मूल याचिकाकर्ता आरएमएम का नाम क्यों नहीं लिया?
दिल्ली में 2015 में ‘आप’ की सरकार बनने के बाद से ही भाजपा का ‘ऑपरेशन लोटस’ सक्रिय है। इसकी अंतिम कील जीएनसीटी कानून में संशोधन के रूप में पिछले साल दिल्ली की सत्ता के ताबूत में ठोंक दी गई थी, जिसके विरोध में अरविंद को दस साल बाद जंतर-मंतर पर उतरना पड़ा था। सवाल उठता है कि फिर भाजपा को इस बार एक्साइज नीति के नाम पर ईडी-सीबीआइ की जरूरत क्यों पड़ गई?
भारत जोड़ो यात्रा की बैठक में आमंत्रित लेकिन अनुपस्थित रहे हिमाचल प्रदेश के राजनीतिक कार्यकर्ता गुमान सिंह बताते हैं, ‘बिहार के घटनाक्रम के बाद से भाजपा डर गई थी कि कहीं 2024 का विपक्ष लोग नीतीश कुमार को न समझ लें। इसलिए भाजपा और ‘आप’ ने एक-दूसरे को अपना विपक्ष प्रोजेक्ट करने का खेल किया। ये घोटाला-वोटाला सब नूराकुश्ती है। स्टेट की आधिकारिक पॉलिसी का मामला है, कुछ नहीं होना। ज्यादा से ज्यादा कोर्ट कह देगी कि पॉलिसी गलत थी, और क्या।’
‘आप’ में असंतोष
यह ‘नूराकुश्ती’ अबकी संगीन हो गयी है चूंकि कुछ ऐसे कारोबारियों पर एफआइआर दर्ज हुई है जिनके तार ‘आप’ के नेताओं के साथ जुड़े होने के सार्वजनिक साक्ष्य मौजूद हैं। नतीजतन, पार्टी के भीतर नेतृत्व के प्रति भरोसा भी तेजी से चुक रहा है। बगावतें हो रही हैं।
नागपाल बताते हैं, ‘सुभाष नगर के बेरीवाला बाग में एक मंदिर से 100 मीटर के भीतर एक ठेके को लाइसेंस दिए जाने का हमने अप्रैल 2022 में विरोध किया था। मैंने उच्च न्यायालय में एक केस भी किया है जिसकी सुनवाई 15 सितंबर को है। जिन अफसरों को दिल्ली सरकार ने बाद में बरखास्त किया, उनके खिलाफ मैंने खुद शिकायत की थी। तब मुझे धमकियां दी गईं। ऐसा लगा कि सरकार नियमों को ताक पर रख के अवैध लाइसेंस देने के लिए बेचैन है।’
अन्ना आंदोलन से ही सक्रिय और अब ‘आप’ के बागी हो चुके नेता विनीत उपाध्याय कहते हैं, ‘भ्रष्टाचार-विरोधी पार्टी ने भ्रष्टाचार को अब स्वीकार कर लिया है। यह सच है कि चुनाव लड़ने के लिए पैसा चाहिए और पैसा तो सत्ता के माध्यम से ही आएगा।’
दिल्ली से बाहर
बीते 29 अगस्त को एक दिलचस्प घटनाक्रम में मुंबई भाजपा के प्रवक्ता सुरेश नखुआ ने गुजरात में ‘आप’ का मुख्यमंत्री प्रत्याशी सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर को बता डाला जबकि ‘आप’ की ओर से तब तक ऐसा कोई बयान नहीं आया था। इससे एक दिन पहले ही गुजरात के मुख्यमंत्री ने मेधा को ‘शहरी नक्सल’ कहा था। सामाजिक आंदोलन के बड़े चेहरों में अकेले मेधा पाटकर हैं जो राहुल गांधी की बैठक में 22 अगस्त को दिल्ली नहीं आई थीं। वह 2014 में ‘आप’ के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ चुकी हैं।
मनीष सिसोदिया के खिलाफ कांग्रेस का प्रदर्शन
एक तबके का कहना है कि मेधा का नाम गुजरात में ‘आप’ की चुनावी संभावनाओं को कमजोर करेगा। नागपाल के मुताबिक दिल्ली के शराब घोटाले की आंच भी गुजरात चुनाव में भाजपा को फायदा पहुंचाएगी। गुजरात में जमीनी माहौल हालांकि इससे उलट है।
बनारस के एक कारोबारी विजय शंकर टीवी चैनलों पर चल रही शराब घोटाले से जुड़ी बहसों को देखकर पूछते हैं, ‘गुजरात में मेरा बिजनेस है,आना-जाना लगा रहता है पर वहां तो ऐसा जमीन पर कुछ नहीं सुनाई देता? वहां तो केजरीवाल की हवा है!’ इसकी पुष्टि करते हुए गुजरात में पश्चिमी कच्छ के ‘आप’ प्रभारी और मुंद्रा के पत्रकार इब्राहिम तुर्क कहते हैं कि पार्टी इस बार चुनाव में दूसरे नंबर पर आएगी और हो सकता है सरकार भी बना ले।
भुज में आम आदमी पार्टी के नेता डॉ. नेहल वैद्य स्पष्ट कहते हैं, ‘हमें अपने क्षेत्र में स्वास्थ्य और शिक्षा से मतलब है। हम नहीं जानते कि दिल्ली में क्या हो रहा है। हमें घोटाले से कोई लेना-देना नहीं है। जिन्होंने गलत किया है वे परिणाम भुगतेंगे। असल मामला हमारे क्षेत्र के विकास का है।’
2014 के लोकसभा चुनाव में बनारस से नरेंद्र मोदी को टक्कर देने वाले अरविंद केजरीवाल चुनाव प्रचार के दौरान संकटमोचन के महंत विश्वम्भर नाथ मिश्र के यहां आशीर्वाद लेने पहुंचे थे। दिल्ली की ही तरह भूल-सुधार की आहटें अब बनारस में भी सुनाई दे रही हैं। बीते 27 अगस्त को बनारस के डायमंड होटल में आयोजित एक सम्मान समारोह में महंत मिश्र ने लोगों को चेताया कि वे ‘विजुअल की राजनीति’ के चक्कर में न पड़ें, बल्कि अपनी खुली आंखों और दिमाग से देख-समझ कर ही विकल्प का चुनाव करें।
उनका आशय स्पष्ट रूप से ‘आप’ और भाजपा की राजनीति से था, जिनका वजूद दिल्ली के टीवी चैनलों पर टिका हुआ है लेकिन जिनका ताजा अखाड़ा गुजरात और हिमाचल प्रदेश हैं।