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दिल्लीः बेमानी हुई विधानसभा

केंद्र ने चुनी हुई सरकार को अधिकार के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटा, अब उप-राज्यपाल ही होंगे असली दिल्ली सरकार, हर फैसले में मंजूरी जरूरी
दिल्ली के उप-राज्यपाल अनिल बैजल के साथ मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल

सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने जुलाई 2018 में निर्णय दिया था कि दिल्ली के उप-राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह के मुताबिक काम करना है या राष्ट्रपति के फैसले को लागू करना है। दिल्ली सरकार और केंद्र के बीच लड़ाई में सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के लिए बड़ी जीत  थी। तीन साल की कानूनी लड़ाई के बाद संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से फैसला सुनाया था। 2015 में दिल्ली का मुख्यमंत्री बनने के बाद केजरीवाल कहा करते थे कि संविधान में अधिकारों का स्पष्ट बंटवारा न होने से केंद्र सरकार की तरफ से नियुक्त उप-राज्यपाल रोजमर्रा के कार्यों में अड़चन डालते हैं।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए अब भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने दिल्ली सरकार (संशोधन) कानून, 2021 ले आई। बजट सत्र में लोकसभा में 22 मार्च और राज्यसभा में 24 मार्च को पारित होने के बाद 28 मार्च को इस पर राष्ट्रपति की मुहर लग गई। इसके तहत उपराज्यपाल ही 'दिल्ली सरकार' होंगे। विरोधी इसे असंवैधानिक बता रहे हैं।

केजरीवाल और आम आदमी पार्टी (आप) के नेता इस तरह पिछले दरवाजे से सत्ता हथियाने के भाजपा के प्रयास का विरोध कर रही हैं। कांग्रेस और जम्मू-कश्मीर की नेशनल कॉन्फ्रेंस तथा पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ने भी इसका विरोध किया है। भाजपा ने सफाई दी है कि इससे भ्रम दूर होगा।

दिल्ली सरकार के स्थायी वकील राहुल मेहरा आउटलुक से कहते हैं, “यह विधेयक असंवैधानिक, अनैतिक और सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लंघन है। सुप्रीम कोर्ट ने सभी मामलों में चुनी हुई सरकार के निर्णय को सर्वोपरि रखा था। सिवाय जमीन, कानून व्यवस्था और पुलिस के जो केंद्र सरकार के नियंत्रण में हैं।” मेहरा के अनुसार अस्पष्टता सिर्फ एक बात को लेकर थी कि क्या चुनी हुई सरकार को उन मामलों में भी उप-राज्यपाल से अनुमति लेने की जरूरत है जो छूट वाली श्रेणी में आते हैं। उनके मुताबिक एकमात्र अनसुलझा मुद्दा नौकरशाही पर नियंत्रण को लेकर है जो अभी कोर्ट में विचाराधीन है। दिल्ली सरकार ने 2018 के फैसले के परिप्रेक्ष्य में सुप्रीम कोर्ट से इस पर स्पष्टीकरण देने का आग्रह किया है।

लोकसभा के पूर्व महासचिव पीडीटी अचारी कहते हैं, “इस संशोधन के बाद दिल्ली विधानसभा कोई नियम नहीं बना सकेगी। इसकी कोई समिति रोजमर्रा के कार्यों में कोई निर्णय नहीं कर सकेगी। उप-राज्यपाल पर विधानसभा में पारित किसी कानून को लागू करने या मंत्रिपरिषद की सलाह पर अमल करने की बाध्यता नहीं होगी। चुनी हुई सरकार अंततः बेमानी हो जाएगी क्योंकि हर मामले में उप-राज्यपाल की राय लेना और अमल करना अनिवार्य  होगा।”

हैदराबाद की नालसर यूनिवर्सिटी आफ लॉ के कुलपति फैजान मुस्तफा कहते हैं, “यह पूरी तरह असंवैधानिक है। यह संविधान में बताए सरकार के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन तो है ही, यह निर्वाचित लोकतंत्र का मखौल उड़ाने जैसा है।” वे कहते हैं, इसके जरिए चुनी हुई सरकार के संवैधानिक अधिकार छीन लिए गए हैं। इस व्यवस्था में अब दिल्ली में विधानसभा की वास्तव में कोई जरूरत नहीं रह गई है।

दिल्ली प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अनिल चौधरी के अनुसार, इसमें दो राय नहीं कि यह असंवैधानिक है और हम सबको मिलकर इसका विरोध करना चाहिए, लेकिन केजरीवाल के आंसू घड़ियाली हैं। वे कहते हैं, “केजरीवाल ने कश्मीर के मुद्दे पर भाजपा का समर्थन किया था और अब भाजपा वही काम उनके साथ कर रही है तो वे लोकतंत्र की हत्या बता रहे हैं।” भाजपा और आप के बीच मिलीभगत का आरोप लगाते हुए चौधरी कहते हैं कि कैबिनेट ने 50 दिन पहले विधेयक को मंजूरी दी थी, लेकिन तब केजरीवाल चुप रहे।

कश्मीर और दिल्ली को दो अलग मुद्दा बताती हुई आप की विधायक आतिशी कहती हैं, “आंतरिक सुरक्षा और सीमा पार आतंकवाद के चलते कश्मीर की समस्या अलग थी। दिल्ली में ऐसा कुछ भी नहीं है।” आतिशी का तर्क है कि दिल्ली में विधानसभा का गठन 69वें संशोधन के तहत हुआ था, इसलिए बदलाव संविधान संशोधन के जरिए ही हो सकता है।

मुस्तफा कहते हैं कि आप सरकार के पास सुप्रीम कोर्ट जाने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं है। हालांकि संविधान की व्याख्या की कानूनी लड़ाई काफी लंबी चलती है, इसलिए इसमें नुकसान दिल्ली की जनता का ही होगा। जब तक सुप्रीम कोर्ट फैसला नहीं देगा तब तक चुनी हुई सरकार और नामित प्रशासक के बीच अधिकारों की खींचतान जारी रहेगी।

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