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सियासी सुस्ती जानलेवा

नेताओं ने बेसहारा छोड़ा तो संवैधानिक संस्‍थाओं ने जाहिर की बेबसी
‌विरोध कितना जोरदारः संसद भवन परिसर में कांग्रेस सांसदों का प्रदर्शन

फरवरी 2020 का आखिरी हफ्ता। यह भी दिल्ली की तवारीख में उसी तरह दर्ज हो गया, जैसे कुछ दूर इतिहास में उसके नाम बार-बार उजड़ने और बसने की कहानियां जुड़ी हैं और आजाद भारत में जैसे '84 के सिख विरोधी दंगे कालिख की तरह चस्पां हो गए हैं। या फिर जैसे गुजरात के नाम 2002 के दंगे का दाग है। ये ऐसी तवारीखें हैं जिनसे देश की सियासी दुनिया हमेशा के लिए बदल गई। हालांकि इस बार फर्क यह है कि सियासी बिरादरी, और मीडिया ही नहीं, दूसरी संवैधानिक संस्‍थाओं में वैसी तीखी प्रतिक्रिया नहीं दिख रही है, जैसा निंदा करने की उग्र तेजी तब दिखी थी और सत्ताधारियों को उसका दंश बरसों तक झेलना पड़ा था।

वैसे, 23 फरवरी से चार-पांच दिनों तक बेरोकटोक जलती रही उत्‍तर-पूर्वी दिल्ली में '84 और 2002 से कई तरह की समानताएं भी दिखी हैं। मसलन, उन दोनों दंगों की तरह पुलिस और सरकार नदारद रही या फिर आंख मूंदे रही। यहां तक कि तत्कालीन दिल्ली पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक भी दृश्य से गायब रहे और कई रिपोर्टरों को पुलिसवाले कहते रहे कि “ऊपर से ऑर्डर नहीं आया।” आखिर में 26 फरवरी को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल को सड़क पर उतरना पड़ा, जो किसी भी पुलिस नेतृत्व के लिए शर्मसार करने वाला होना चाहिए।

लेकिन सबसे हैरानी सियासी हरकतों को लेकर हुई। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दौरे के बाद 26 फरवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सिर्फ ट्वीट पर नमूदार हुए कि “दिल्ली में शांति और सद्भाव की कोशिशें जारी हैं। मैं दिल्ली की अपनी बहनों और भाइयों से शांति और भाईचारा बनाए रखने की अपील करता हूं।” इसमें न मारे गए लोगों के प्रति कोई संवेदना थी, न तबाही का कोई जिक्र। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह तो मौन ही साधे रहे, जिनके तहत दिल्ली पुलिए आती है। आखिर 29 फरवरी को ओडिशा की एक सभा में उन्होंने इतना भर कहा, “विपक्षी पार्टियां सीएए को लेकर भ्रम फैला रही हैं और दंगे करा रही हैं।” भाजपा का कोई नेता अपने स्‍थानीय नेता कपिल मिश्रा के भड़काऊ बयान पर या तो कुछ बोला नहीं या फिर बचाव करता दिखा, जिनके स्‍थानीय डीसीपी के सामने बयान के बाद ही यह हिंसा शुरू हुई।

इसके बाद दिल्ली में सत्ता की बागडोर आम आदमी पार्टी की अरविंद केजरीवाल सरकार के पास है, जिन्हें हाल ही में भारी बहुमत से लोगों ने सत्ता सौंपी। केजरीवाल सोमवार 24 फरवरी को अमित शाह से मिल आए। इलाके में जाने के बदले राजघाट पर महात्मा गांधी की समाधि पर अमन की अपील करने कुछ देर मौन बैठे। आखिर 26 फरवरी को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के दंगाग्रस्त इलाके में पहुंचने के बाद कुछेक इलाके में घूम आए। बेशक, उन्होंने अस्पताल का भी दौरा किया। हैरान करने वाला यह  भी है कि समूचे इलाके में उनके मोहल्ला क्लीनिक नदारद पाए गए और राहत कार्य भी एनजीओ और सदाशय सिविल सोसायटी के जिम्मे छोड़ दिया गया।

दूसरी विपक्षी पार्टियां भी इलाके में पहुंचने के बदले ट्विटर को ही प्रतिक्रिया का जरिया बनाए रहीं। कांग्रेस अध्यक्ष (अंतरिम) सोनिया गांधी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस किया, कुछ विपक्षी नेताओं के साथ राष्ट्रपति से मिलीं। प्रियंका गांधी ने इलाके से काफी दूर शांति मार्च निकाला लेकिन किसी विपक्षी पार्टी की ओर से इलाकों में जाने की महज खानापूर्ति ही हो पाई। बेशक, 2 मार्च को शुरू हुए संसद के बजट सत्र के दूसरे चरण में अमित शाह के इस्तीफे की मांग को मुद्दा बनाया गया। कांग्रेस ने दिल्ली दंगे की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट की अगुआई में एसआइटी और संयुक्त संसदीय समिति गठित करने की मांग की है। कांग्रेस प्रवक्ता और सांसद मनीष तिवारी कहते हैं, “जैसी हैवानियत दिल्ली में दिखी, उससे सारी संस्थाओं पर सवाल उठने लगे हैं। सुप्रीम कोर्ट को निष्पक्ष जांच अपने निरीक्षण में करानी चाहिए। देश में सुनियोजित षड़यंत्र के तहत सामाजिक और धार्मिक ध्रुवीकरण कराया जा रहा है। एनपीआर और एनआरसी के जरिए देश के साथ खतरनाक खेल खेला जा रहा है।”

उधर, भाजपा के सहयोगी दलों ने भी दिल्ली हिंसा की निंदा और जांच की मांग की है। अकाली दल के नेता और राज्यसभा सांसद नरेश गुजराल कहते हैं, “दिल्ली हिंसा ने '84 दंगों की याद ताजा कर दी। पुलिस एक्शन नहीं ले रही थी। सरकार को तुरंत राहत का ऐलान करना चाहिए। पूरी पारदर्शिता के साथ दोषियों को जल्द से जल्द सजा मिलनी चाहिए।”

सजा कैसे मिले, यह भी एक गंभीर सवाल बनकर उभर रहा है। मसलन, 24-25 फरवरी की दरम्यानी रात दिल्ली हाइकोर्ट के तत्कालीन जज एस. मुरलीधर ने सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर की याचिका पर स्‍थानीय अल-हिंद अस्पताल में फंसे घायलों को बड़े अस्पताल में ले जाने के लिए एंबुलेंस भेजने का आदेश जारी किया। अगले दिन उन्होंने इन्हीं याचिकाकर्ताओं के अनुरोध पर कपिल मिश्रा, प्रवेश वर्मा, अभय वर्मा और अनुराग ठाकुर पर एफआइआर दर्ज करने पर दिल्ली पुलिस को 24 घंटे की मोहलत दी। लेकिन उसी रात 11 बजे उनका तबादला पंजाब-हरियाणा हाइकोर्ट में कर दिया गया। 26 फरवरी को दिल्ली हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अदालत ने पुलिस को महीने भर की मोहलत दे दी। यही नहीं, 2 मार्च को सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश एस.ए. बोबडे के सामने यह मामला आया तो उन्होंने इसे विचार के लिए तो स्वीकार किया, लेकिन अपनी बेबसी भी जाहिर कर दी कि हम पर बहुत दबाव है।

 

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