महाराष्ट्र के आदिवासी बहुल गढ़चिरौली जिले के धानोरा क्षेत्र में 13 नवंबर को पुलिस के विशेष दस्ते ‘सी-60’ और माओवादियों के बीच मुठभेड़ में 26 माओवादी मारे गए। उनमें 50 लाख के इनामी कमांडर मिलिंद तेलतुंबड़े समेत 20 पुरुष और छह महिला माओवादी थे। हमले में विशेष पुलिस दल के चार सदस्य भी बुरी तरह जख्मी हुए। पुलिस के मुताबिक ग्यारापट्टी के जंगलों से भारी मात्रा में हथियार और गोला-बारूद बरामद हुआ।
दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी में आने वाले इस इलाके में सफल ऑपरेशन के बाद ‘सी-60’ चर्चा में है। नक्सल प्रभावित अन्य राज्यों में भी ऐसा विशेष दस्ता बनाकर कार्रवाई करने की मांग उठने लगी है। भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह आउटलुक से कहते हैं, “महाराष्ट्र ने बहुत बड़ा काम किया है। इस प्रकार बड़ी कार्ययोजना के साथ यहां की भी सरकार को तैयारी करनी चाहिए।” पूर्व मुख्यमंत्री की इस बात पर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के कई अधिकारियों ने भी सहमति जताई है।
नक्सलियों की गुरिल्ला रणनीति के खिलाफ महाराष्ट्र पुलिस ने एक विशेष दल का गठन किया था। यह काम गढ़चिरौली के तब के एसपी के.पी. रघुवंशी ने किया था। 1992 में गठित इस विशेष दल में स्थानीय जनजाति समूह के 60 लोगों को शामिल किया गया। धीरे-धीरे दल की ताकत बढ़ती गई और नक्सलियों के विरुद्ध इनके ऑपरेशन भी बढ़ने लगे। दस्ते में शामिल जनजाति समूह के लोग स्थानीय जानकारी, भाषा और संस्कृति की समझ के कारण गुरिल्ला युद्ध में माहिर नक्सलियों से लोहा लेने में कामयाब रहे।
सी-60 के कमांडों को 2014, 2015, 2016 और 2018 में कई ऑपरेशन में बड़ी कामयाबी मिली। इस यूनिट ने 2018 में 39 नक्समलियों को ढेर किया था। हालांकि अगले ही साल नक्सिलियों ने उसका बदला लिया जिसमें इस विशेष दस्ते के 15 जवान शहीद हुए। नक्सनली सी-60 को अपना सबसे बड़ा शत्रु मानते हैं।
नक्सल प्रभावित दंतेवाड़ा के एसपी अभिषेक पल्लव आउटलुक से कहते हैं कि गढ़चिरौली में पुलिस को मिली इस बड़ी कामयाबी से दूसरे नक्सल इलाकों में पुलिस का मनोबल बढ़ा है और नक्सलियों के हौसले पस्त हुए हैं। छत्तीसगढ़ के दक्षिण बस्तर में बड़े ऑपरेशन की आवश्यकता पर जोर देते हुए वे कहते हैं, “सबसे ज्यादा हथियारबंद माओवादी यहीं हैं। यहां बड़ी कार्रवाई बेहद जरूरी है और यहां भी गढ़चिरौली की तरह ही विशेष दस्ते के गठन की आवश्यकता है।”
सी-60 राज्य स्तरीय फोर्स है जबकि छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में जिला स्तरीय दस्ता डिस्ट्रिक्ट रिजर्व ग्रुप (डीआरजी) तैनात है। सी-60 की तर्ज पर दस्ता गठित करने की पैरवी करते हुए पल्लव कहते हैं, "गढ़चिरौली का इलाका भी बस्तर की तरह है। भौगोलिक स्थिति में ज्यादा अंतर नहीं है। दोनों जगह गोंडी भाषा बोली जाती है। दंतेवाड़ा और गढ़चिरौली दोनों दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी के अंतर्गत आते हैं। ऐसे में सी-60 की तरह ही हमारे बल में भी पैनापन लाने की जरूरत है।"
हालांकि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में काम करने वाले कई मानवाधिकार और सामाजिक कार्यकर्ता किसी विशेष दस्ते या पुलिसिया कार्रवाई के जरिए नक्सल समस्या का समाधान नहीं देखते। बस्तर अंचल में सक्रिय मानवाधिकार कार्यकर्ता और वकील बेला भाटिया कहती हैं, "नक्सल समस्या कानून-व्यवस्था का मसला नहीं है, इसलिए बल के जरिए समाधान तक नहीं पहुंचा जा सकता। दरअसल, माओवाद पनपने की वजह सामाजिक और आर्थिक शोषण है। जब तक सभी नागरिकों को समान नहीं मानेंगे तब तक ऐसे विचार पनपते रहेंगे। आज माओवाद है, कल कुछ और होगा।"
सामाजिक कार्यकर्ता और मजदूर नेता नंद कश्यप भी इसे कानून-व्यवस्था का मुद्दा नहीं मानते। वे कहते हैं कि लोगों को मार देने से समाधान नहीं निकलेगा। हालांकि कश्यप के अनुसार, "नए जमाने में हथियारों के बल पर परिवर्तन संभव नहीं है, यह बात माओवादियों को भी समझनी पड़ेगी। सरकार को भी समझना पड़ेगा कि माओवादियों को इस रास्ते से अलग करने के लिए बातचीत करे। पेसा कानून, ग्राम पंचायत की स्वायत्तता जैसे उनके संवैधानिक अधिकार उन्हें देने पड़ेंगे।"
आदिवासियों के भरोसा जीतने के सवाल पर अभिषेक पल्लव कहते हैं कि सरकार लगातार आदिवासियों के बीच विश्वास कायम करने की कोशिश कर रही है। वे कहते हैं, "मोबाइल कनेक्टिविटी, सड़क, पुल, स्वास्थ्य और शिक्षा मुहैया कराने और सरकार की योजनाओं के बारे में ग्रामीणों को बताने के साथ-साथ इन इलाकों में पुलिस ऑपरेशन भी जरूरी है। बिना फोर्स की कार्रवाई के नक्सली ये काम उन्हें नहीं करने देंगे। वे नहीं चाहते कि सरकार यहां अपनी पकड़ मजबूत करे।" पल्लव का मानना है कि ऑपरेटिंग सीजन की शुरुआत में ही इस बड़ी कार्रवाई से नक्सलियों की जमीन खिसक गई है। इससे नए इलाकों में फैलने के उनके मंसूबों पर भी लगाम लगेगी। अब बस्तर में भी ऐसी कामयाबी पाने की कोशिश की जाएगी।