कुछ फिल्मी शीर्षक वास्तव में भ्रम में डाल देते हैं। जैसे, रोमियो अकबर वाल्टर (रॉ) को ही देखिए। यह हमारे समय की अमर अकबर एंथनी (1977) नहीं है। मनमोहन देसाई के प्रिय खोए-पाए फॉर्मूले के जरिए भारत की साझा संस्कृति दिखाने के विपरीत रॉ बांग्लादेश युद्ध से जुड़ी सच्ची घटनाओं पर आधारित जॉन अब्राहम की नई जासूसी फिल्म है। इसमें उन्होंने अनुसंधान और विश्लेषण विंग (रॉ) द्वारा पाकिस्तान में गुप्त मिशन पर भेजे गए एक अंडरकवर एजेंट की भूमिका निभाई है। यह अनुमान लगाने के लिए कोई पुरस्कार नहीं है कि 46 वर्षीय अभिनेता फिल्म में भेस बदल कर तीन अलग-अलग नामों के साथ अपना चरित्र निभा रहे हैं। यदि इसकी कहानी जानी-पहचानी लग रही है तो इसके लिए राजी को दोष देना चाहिए। 2018 में आई आलिया भट्ट की इस ब्लॉकबस्टर फिल्म की विषयवस्तु भी यही थी।
इतिहास के पीले पड़ गए पन्नों में दबे अनाम नायक आज के दौर में बॉलीवुड की नई पसंद हैं। हाल के दिनों में सेल्युलाइड पर कई ऐसी फिल्में सामने आई हैं, जिसमें कहानी दुश्मनों के बीच या दुश्मन के खिलाफ गुप्त मिशन पर तैनात कोई अंडरकवर एजेंट की बहादुरी के आसपास बुनी रहती है। पिछले साल राजी की सफलता ने इस ट्रेंड को सेट करने में अहम भूमिका निभाई है। रॉ सिनेमाघरों में आ चुकी है जबकि 1966 में तत्कालीन सोवियत संघ में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की मौत के आसपास के विभिन्न षड्यंत्र सिद्धांतों की पड़ताल करने वाली विवेक अग्निहोत्री की एक और थ्रिलर ताशकंद फाइल्स भी सिनेमाघरों में मौजूद है।
पिछले कुछ वर्षों में, फिल्मकार जासूसी थ्रिलर हिंदी फिल्म शैली में प्रचुर संभावना के बावजूद अलग-अलग रूप में पेश करते आए हैं, जैसा कि हॉलीवुड जैसे अन्य फिल्म उद्योगों में देखा जाता है। फिर भी हिंदी सिनेमा में जासूसी फिल्मों को लेकर ये ताजा आशावादी माहौल क्यों है? इसे राष्ट्रीय सुरक्षा के आलोक में देखा जाए तो यह मुद्दा दृश्य माध्यम में जुनून बन गया है। स्मार्टफोन पर देखे गए बालाकोट हमले के वीडियो इसका ताजा उदाहरण हैं। दरअसल, इस संदर्भ में राजी और रॉ को ट्रेंड सेटर नहीं कहा जा सकता। लेकिन हां ये परदे के पीछे की कहानियों को देखने-सुनने की हमारी इच्छाओं को बढ़ाते जरूर हैं, जो कई माध्यमों पर कई बार हमें सुनाई-बताई गईं हैं। बेशक, इस घटना के पीछे एक और प्राथमिक कारक नए जमाने के दर्शकों का बढ़ना है, जो सभी ‘बॉलीवुडिया’ रूपकों को परे धकेल कर शैली से ऊपर विषय वस्तु को चुन रहे हैं। इसी भरोसे के कारण फिल्मकार अपने तयशुदा फार्मूले को छोड़ पा रहे हैं।
मजे की बात है कि ये आधुनिक जासूसी थ्रिलर गुजरे जमाने के अपने समकक्षों से काफी अलग हैं। इस नई शैली का उदय उड़ी (2019) जैसी प्रमुख राष्ट्रवादी विषय से भरी फिल्म की लोकप्रियता के साथ हुआ है, जिसने हाल ही में दर्शकों पर अपना जादू चलाया। 2016 में पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में आतंकी ठिकानों पर भारत की सर्जिकल स्ट्राइक को आधार बना कर बनी विकी कौशल की इस फिल्म में कोई बड़ा स्टार न होने के बावजूद यह बड़ी हिट साबित हुई। हाल ही में पाकिस्तान में भारतीय वायु सेना के हमलों ने इस तरह की फिल्मों को फिर से प्रोत्साहन दिया है। पहले से ही, बालाकोट, सर्जिकल स्ट्राइक 2.0, हाउज द जोश जैसे शीर्षकों का पंजीकरण कराने के लिए निर्माताओं के बीच दीवानापन दिखाई दे रहा है। इनमें अभिनंदन (भारत के स्क्वाड्रन लीडर जिन्हें पाकिस्तान में पकड़ लिया गया था) शीर्षक भी शामिल है।
यह ऐसा ही है जैसे, मनोज कुमार, रविकांत नगाइच से मिलें! अपने सुनहरे दिनों में, मनोज ने आम आदमी के चारों ओर देशभक्ति फिल्में बनाकर खुद को ‘भारत कुमार’ के रूप में स्थापित किया, जबकि नगाइच ने देसी जेम्स बॉन्ड के साथ जासूसी थ्रिलर्स को मुख्यधारा में लाने में अहम भूमिका निभाई। आज, इन दो अलग-अलग शैलियों के बीच की रेखाओं में चल रहे अति राष्ट्रवाद के सामूहिक तंतु को धुंधला कर दिया है।
हालांकि, ट्रेड एक्सपर्ट इसे केवल ‘यथार्थवादी’ सिनेमा के लिए बढ़ती मांग के विस्तार के रूप में देखते हैं। ट्रेड एक्सपर्ट अतुल मोहन का कहना है कि देशभक्ति थीम वाली फिल्में इन दिनों युवाओं को पसंद आ रही हैं और हालिया जासूसी थ्रिलर फिल्मों ने इसमें इजाफा किया है। कंप्लीट सिनेमा के संपादक मोहन कहते हैं कि आज फिल्म के दर्शक भी वास्तविक घटनाओं पर आधारित सामग्री को अधिक पसंद कर रहे हैं। वह कहते हैं, “कुछ सिनेमाई स्वतंत्रताएं वास्तविक जीवन की घटना या एक चरित्र के साथ ली जा सकती हैं, लेकिन मूल कथानक को वास्तविकता के जितना संभव हो, उतना करीब होना चाहिए। यही वजह है कि राजी जैसी जासूसी थ्रिलर फिल्म इतनी कमाऊ फिल्म बन गई।”
वह यह भी बताते हैं कि बीते दौर के काल्पनिक और अक्सर हंसोड़ जासूस थ्रिलर के विपरीत, आज के दौर में इस तरह की फिल्मों के निर्माण के लिए सावधानीपूर्वक बहुत सारे शोध किए जाते हैं। उनके अनुसार, इस मामले में ताजा उदाहरण फिल्म रॉ है। समीक्षक निर्देशक रॉबी ग्रेवाल की इस जासूसी फिल्म की सुस्त गति के लिए आलोचना कर सकते हैं, लेकिन 1971 के युद्ध के समय को फिर से परदे पर दिखाने के लिए किए गए श्रमसाध्य शोध प्रयासों के लिए उन्हें खूब तारीफ मिली है। रॉ के प्रमुख अनिल कुमार धस्माना सहित इसके अधिकारियों और उनके परिवार के लिए फिल्म की स्पेशल स्क्रीनिंग रखी गई थी और यह फिल्म सभी शीर्ष अधिकारियों को बहुत पसंद आई। ग्रेवाल ने बाद में कहा कि यह एक स्वप्निल अनुभव था। उन्होंने कहा, “रॉ प्रमुख से मिलना और उनके साथ बात करना सुखद अनुभवों में से एक रहा। मैं उनकी सहृदयता और गर्मजोशी से अभिभूत था।”
रॉ को भले ही बायोपिक नहीं माना गया, लेकिन अब्राहम का चरित्र जाहिरा तौर पर 1971 के युद्ध से पहले रॉ द्वारा पाकिस्तान को भेजे गए एक अंडरकवर एजेंट, रविंद्र कौशिक से प्रेरित है। कहा जाता है कि उन्हें वहां जेल में डाल दिया गया था। उसके बाद कौशिक कई साल तक अपनी असली पहचान जाहिर होने तक भेस बदल कर ही रहे। इसके अलावा जैकी श्रॉफ का किरदार रॉ के पहले प्रमुख आर.एन.काव से प्रेरित है। रॉ के अधिकारियों के साथ फिल्म देखने के बाद, श्रॉफ ने कहा, “मैं असली नायकों और उनके परिवारों से मिलने के लिए बेताब था। मैं सोच रहा था वे लोग मुझे फिल्मी प्रमुख के रूप में स्वीकारेंगे या नहीं। लेकिन मुझे राहत मिली जब मैंने उन्हें यह कहते सुना, आप एकदम उपयुक्त थे।”
निर्देशक मेघना गुलजार ने भी राजी के रूप में एक कश्मीरी मुस्लिम लड़की का विश्वसनीय किरदार बनाने में कामयाबी हासिल की। आलिया भट्ट ने सहमत खान का किरदार शानदार ढंग से निभाया था, जो पाकिस्तानी सेना के परिवार में अपने देशभक्ति मिशन के तहत शादी करती है। फिल्म हरिंदर एस. सिक्का के उपन्यास कॉलिंग सहमत पर आधारित थी।
इस तरह का यथार्थवाद या कहें अति वास्तविकता निश्चित रूप से बीते जमाने की जासूसी थ्रिलर से गायब थी। नगाइच की जीतेंद्र अभिनीत फिल्म फर्ज (1967) में एक खुशगवार सीक्रेट एजेंट होता है जो महिलाओं के साथ ज्यादा समय बिताता है। यह चलन तब तक जारी रहा, जब तक कि नगाइच ने फिल्म सुरक्षा (1979) और वारदात (1981) जैसी फिल्मों के लिए “गनमास्टर जी-9” का चरित्र नहीं गढ़ दिया, जिसने मिथुन चक्रवर्ती को स्टारडम का पहला स्वाद चखाया। नगाइच ने 1982 में, रक्षा फिल्म के जरिए जीतेंद्र के साथ फर्ज का जादू फिर जगाने की कोशिश की, लेकिन असफल रहे। जीतेंद्र के साथ ही निर्देशक रवि टंडन ने भी बॉन्ड 303 (1985) की कोशिश की लेकिन वे भी असफल रहे। जाहिर है 1990 के बाद द स्पाय हू लव्ड मी (1977) जैसी जेम्स बॉन्ड की हिट फिल्मों से प्रेरित जासूसी थ्रिलर्स की शैली तब तक नवीनता खो चुकी थी और वे सभी आदित्य चोपड़ा और करण जौहर की पसंद से प्रेरित रोमांटिक संगीत के युग में गायब हो गए थे। हालांकि दिसंबर 16 (2002) और हीरो: लव स्टोरी ऑफ ए स्पाई (2003) जैसी कुछ स्पाई थ्रिलर्स बीच में आईं जरूर, लेकिन शताब्दी के दूसरे दशक तक जासूसी फिल्मों के बदले अवतार ने तब तक परदे पर वापसी नहीं की जब तक फिल्मकार कबीर खान, नीरज पांडे और निखिल आडवाणी सीन में नहीं आ गए।
2012 में दो फिल्मों ने भारतीय जासूस हीरो को पुनर्जीवित किया, श्रीराम राघवन की एजेंट विनोद जिसका नाम 1977 में इसी नाम से आई एक फिल्म से उधार लिया गया था। और सलमान खान की एक था टाइगर। बाद में रवींद्र कौशिक के एक भतीजे ने निर्माताओं को कानूनी नोटिस भिजवाया, जिसमें दावा किया गया था कि फिल्म का चरित्र उनके चाचा के समान था। इसके ठीक अगले साल कमल हासन की विश्वरूपम और निखिल आडवाणी की डी डे जैसी दो जासूसी फिल्में आईं। लेकिन यह नीरज पांडे ही थे जिनकी फिल्म बेबी (2015) ने जासूसी फिल्मों के जॉनर का बेहतरीन उदाहरण पेश किया। अक्षय कुमार की मुख्य भूमिका वाली फिल्म भारतीय गुप्तचर सेवा एजेंट के मिशन के बारे में थी जो मौलाना मसूद अजहर की तरह एक पाकिस्तानी आतंकवादी को पाकिस्तान से भारत लेकर आता है। इसी साल रिलीज हुई सैफ अली खान अभिनीत फिल्म फैंटम भी थी, जिसमें नायक को 26/11 को हुए मुंबई आतंकवादी हमले के सभी संदिग्धों को खत्म करने के लिए एजेंसी द्वारा विदेश में एक मिशन पर भेजा जाता है। बेबी की सफलता ने निर्माताओं को इसी तरह की फिल्में बनाने के लिए प्रेरित किया। इसी कड़ी में 2017 में नाम शबाना आई। इस बार एक लड़की अंडरकवर एजेंट थी जिसकी भूमिका तापसी पन्नू ने निभाई थी। पन्नू को रॉ अपने विशेष मिशन के लिए तैयार करता है। इस तरह की फिल्मों की सफलता ने एक बार फिर ‘टाइगर’ को पर्दे पर वापसी के लिए प्रेरित किया। टाइगर जिंदा है (2017) ने बॉक्स ऑफिस पर तगड़ी कमाई की। फिल्म लेखक मुर्तजा अली खान का कहना है कि राजी ने भले ही जासूसी के इर्द-गिर्द घूमने वाली पीरियड फिल्मों के चलन को पुनर्जीवित किया हो, लेकिन “हमारे पास अतीत में भी कुछ बहुत ही दिलचस्प जासूसी थ्रिलर रहे हैं।” वह समाधि (1950), आंखें (1968) और शतरंज (1969) जैसी फिल्मों का जिक्र करते हैं। खान कहते हैं, “रवि नगाइच की फिल्मों की बात छोड़ दें तो हाल के दिनों में राजी और रॉ के साथ बेबी और अय्यारी (2018) जैसी फिल्मों को मजबूत राष्ट्रवादी उत्थान के रूप में देखा जा सकता है, जिसने युवाओं की कल्पना पर कब्जा कर लिया है। अगर यह ट्रेंड कुछ समय तक जारी रहा तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा।”
चहेते जासूस
अशोक कुमार, समाधि
यह दिग्गज अभिनेता रमेश सहगल की फिल्म समाधि (1950) में देशभक्त जासूस की भूमिका निभाने वाले पहले एक्टर थे। फिल्म युवाओं को आइएनए में शामिल होने और अंग्रेजों को बाहर करने के लिए नेताजी के आह्वान पर आधारित थी।
देव आनंद, ज्वेल थीफ
देव आनंद का अंडरकवर का दोहरा चरित्र जासूसी थ्रिलर के रूप में मनोरंजन से भरपूर था। कहने की जरूरत नहीं है कि यह कितनी बड़ी हिट थी।
जीतेंद्र, फर्ज
रविकांत नगाइच की फर्ज (1967) में जीतेंद्र की खूबसूरत लड़कियों के साथ समय बिताने वाले देसी बॉन्ड की भूमिका थी, जब तक उसे एक जरूरी मिशन के लिए वापस नहीं बुलाया गया।
धर्मेन्द्र, आंखें
फर्ज की सफलता के बाद रामानंद सागर 1968 में एक रस्मी जासूस के साथ आए। विदेशों में एक्शन करने के लिए सजीले धर्मेंद्र से बेहतर भला और कौन होता।
मिथुन चक्रवर्ती, सुरक्षा
भले ही मृणाल सेन की मृगया (1976) ने मिथुन चक्रवर्ती को राष्ट्रीय पुरस्कार दिलाया हो लेकिन यह गनमास्टर जी-9 ही थी, जिसने डिस्को डांसर (1982) से पहले उनके स्टारडम को गति दी थी।
महेंद्र संधू, एजेंट विनोद
1977 में आई इस जासूसी गाथा की सफलता आश्चर्यजनक थी। सालों पहले सैफ अली खान की भी इसी नाम से फिल्म आई थी।