जब देश के करोड़ों गन्ना किसानों की सुध न लेकर सरकार चीनी मिलों के हितों का पूरा खयाल रखे, और उन्हें अच्छा-खासा मुनाफा कमाने का मौका देने के रास्ते तैयार करे, तो यह कहना सही है-‘हम हैं साथी चीनी मिलों के।’ देश में सबसे ज्यादा चीनी और गन्ना उत्पादन करने वाले राज्य उत्तर प्रदेश के मामले में तो यह और सटीक बैठता है। वैसे इसमें सरकारों के बदलने का भी कोई असर नहीं होता है। जब सरकार किसानों की आमदनी दोगुना करने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए दिन-रात एक करने का दावा करने के बावजूद लगातार दूसरे साल गन्ने का राज्य परामर्श मूल्य स्थिर रखे, तो किस आर्थिक सिद्धांत से किसानों की आमदनी दोगुनी होगी, यह समझना काफी टेढ़ा काम है।
अब बात चीनी उद्योग के लिए सौगातों और बेहतर होती आमदनी के रास्तों की। इस समय चीनी की कीमतें 35 रुपये किलो के आसपास हैं। उत्तर प्रदेश में चीनी की रिकवरी 12 फीसदी को पार कर गई है। कई चीनी मिलों के मामले में यह 13 फीसदी से भी ज्यादा है। यानी एक क्विंटल गन्ने से 12 से 13 किलो चीनी बन रही है। इससे करीब 400 रुपये की आमदनी होती है, जबकि गन्ने की कीमत 315 और 325 रुपये है। इसके अलावा चीनी के सह-उत्पादों शीरे, एथनॉल और खोई से को-जेनरेशन (बिजली उत्पादन) से होने वाली आय अलग है। बात यहीं नहीं रुकती। दुनिया में इस साल चीनी का उत्पादन खपत से कम होने वाला है। इसके चलते वैश्विक बाजार में 7 जनवरी को चीनी की कीमतें 13.73 सेंट को पार कर गई थीं। वैसे 13 सेंट पर चीनी मिलों को मुनाफा होने लगता है। वहीं, डॉलर के मुकाबले रुपये में लगातार गिरावट आ रही है और यह 71.81 रुपये प्रति डॉलर पर पहुंच गया था। नतीजा, निर्यात से रुपये में होने वाली आय बढ़ेगी। सरकार चीनी निर्यात पर 10.44 रुपये प्रति किलो का प्रोत्साहन भी देती है। उद्योग को गन्ने के रस, ए मोलेसेस और बी हैवी मोलेसेस से बनने वाले एथनॉल के लिए 59.93 रुपये प्रति लीटर तक की कीमत मिल रही है। हाल के दिनों में जिस तरह से खाड़ी के देशों में तनाव बढ़ रहा है, उससे कच्चे तेल की कीमतों में इजाफे के चलते एथनॉल की कीमतें भी बढ़ने का अनुमान है। यानी चीनी मिलों के लिए आमदनी की स्थिति काफी अच्छी होती जा रही है।
इस साल कर्नाटक और महाराष्ट्र में गन्ने की फसल को नुकसान के चलते चीनी उत्पादन 260 से 270 लाख टन के आसपास सिमट सकता है। यह देश की कुल खपत से थोड़ा ही ज्यादा होगा। हो सकता है कि अंतिम अनुमानों में उत्पादन और घट जाए। दूसरी ओर बेहतर कीमतों के चलते चीनी निर्यात 60 लाख टन को पार कर सकता है। अक्टूबर, 2019 में सीजन शुरू होने के बाद से दिसंबर के अंत तक निर्यात सौदे 25 लाख टन तक पहुंच चुके हैं। मिलों से 8.86 लाख टन चीनी का शिपमेंट भी हो चुका है। यही नहीं, सरकार ने चीनी मिलों को देश में स्थित चीनी रिफाइनरी को भी बिक्री की अनुमति देकर इसे निर्यात का दर्जा दे दिया है।
खराब आर्थिक सेहत और गन्ना किसानों को भुगतान के नाम पर चीनी मिलों ने 40 लाख टन चीनी के बफर स्टॉक की भी व्यवस्था सरकार से करा रखी है। इस चीनी के रखरखाव का खर्च सरकार चीनी मिलों को दे रही है। इसके बावजूद गन्ना किसानों को समय से भुगतान नहीं हो रहा है। अभी तक पिछले सीजन का गन्ना मूल्य का बकाया चीनी मिलों पर है। देरी से भुगतान करने पर ब्याज का प्रावधान है। अकेले उत्तर प्रदेश में 2,500 करोड़ रुपये का ब्याज चीनी मिलों को देना है और यह मामला अभी न्यायालय में है। इसमें भी दिलचस्प बात यह है कि उत्तर प्रदेश की पिछली अखिलेश यादव सरकार ने चीनी मिलों पर ब्याज को ‘जनहित’ में माफ कर दिया था, लेकिन बाद में मामला कोर्ट में चला गया। हालांकि मौजूदा योगी सरकार का रुख भी इस पर ठंडा ही है।
परिस्थितियों में बदलाव के चलते चीनी की कीमतों में इजाफा होने से चीनी मिलों की आमदनी बढ़ना तय है। महाराष्ट्र जैसे राज्य में सहकारी चीनी मिलों में आय बढ़ने की स्थिति में चीनी मिलों को मुनाफा बांटने का प्रावधान है। लेकिन उत्तर प्रदेश में ऐसा नहीं है और पूरा मुनाफा चीनी मिलों की जेब में जाता है। जब महंगाई बढ़ रही हो, उत्पादन लागत बढ़ रही हो और तमाम संकेतक ग्रामीण भारत और किसानों की क्रय क्षमता के घटने के गवाह बन रहे हों, तो गन्ना किसानों के लिए दाम स्थिर रखने और भावी मुनाफे से उन्हें दूर रखने की नीति बनाने वाली केंद्र और राज्य सरकारों के लिए ‘हम हैं साथी चीनी मिलों के’ ही तो कहना तर्कसंगत है।