सरकार किसानों की आमदनी बढ़ाना चाहती है। यह दोगुना होगी या नहीं, और तय साल तक हो पाएगी, यह कहना मुश्किल है। इसके लिए तमाम तरह के आंकड़े और मानक ही सवालों के घेरे में हैं। लेकिन इस बीच एक रास्ता बनाने की गंभीर कोशिश जरूर हुई है। नए साल 2020-21 के बजट प्रस्तावों में एक रोडमैप काफी हद तक मंजिल की ओर जाने के लिए आश्वस्त कर सकता है, बशर्ते इस पर गंभीरता से अमल हो। किसानों के उत्पादों की मार्केटिंग और मुनाफा ऐसा मसला है जिसका हल एक पहेली बना हुआ है। इस पहेली को देश के कई हिस्सों में सहकारिता यानी कोऑपरेटिव के आर्थिक मॉडल के जरिए हल करने की कोशिशें हुई हैं, और कुछ बहुत कामयाब भी रही हैं। लेकिन उत्तरी राज्यों समेत देश के बड़े हिस्से में यह उतना कारगर नहीं हुआ, क्योंकि इसमें राजनेता और नौकरशाही की दखल के चलते प्रोफेशनल मैनेजमेंट और कौशल की लगातार कमी रही है। ऐसे में, किसानों के उत्पादक संगठनों (फार्मर प्रोड्यूसर ऑर्गनाइजेशंस) यानी एफपीओ का एक विकल्प सामने आया। यानी सहकारी समितियों की तर्ज पर किसान अपना एफपीओ बना लें। इसके जरिए वे कृषि उत्पादन के लिए इनपुट से लेकर उत्पादों की मार्केटिंग तक, सबकुछ संगठित रूप से कर सकते हैं और कमाई बढ़ा सकते हैं। लेकिन इस मोर्चे पर अभी उतनी सफलता नहीं मिली है जितनी इसे एक बड़े विकल्प के रूप में स्थापित करने के लिए मिलनी जरूरी है। चालू साल के बजट के दौरान सरकार ने दस हजार एफपीओ स्थापित करने की घोषणा की थी। इसमें सरकार इक्विटी के लिए ग्रांट फंड भी देती है। यानी अगर किसान एफपीओ बनाते हैं तो उसके लिए सरकार अपनी ओर से पैसा देती है, जिसे इक्विटी का हिस्सा माना जाता है। लेकिन इसने गति नहीं पकड़ी। स्मॉल फार्मर्स एग्रीबिजनेस कंसोर्सियम और नाबार्ड को जिम्मा दिया गया है कि वे एफपीओ स्थापित करने में मदद करें।
नए बजट में इसका खाका काफी साफ किया गया है। इसके लिए 500 करोड़ रुपये का बजट निर्धारित करने के साथ एक हजार एफपीओ बनाकर उनके साथ पांच लाख किसानों को जोड़ने का लक्ष्य रखा गया है। इक्विटी ग्रांट फंड देने के लिए 1,250 एफपीओ का लक्ष्य है। किसी एक एफपीओ से जुड़ने वाले किसानों की संख्या 500 होनी चाहिए। हालांकि पूर्वोत्तर के राज्यों और पहाड़ी क्षेत्रों में यह सीमा 200 किसानों की होगी। उद्देश्य साफ है कि पारंपरिक और मौजूदा मंडी-व्यवस्था के मुकाबले एफपीओ के सदस्य किसानों की आमदनी कितनी बढ़ी और विपणन लागत कितनी कम हुई है। यानी सीधा मतलब है कि किसानों की आय बढ़ रही है या नहीं।
इस क्षेत्र में काम करने वाले एक अधिकारी बताते हैं कि कुछ बदलाव ऐसे भी किए गए हैं जिससे एफपीओ बनाना आसान और व्यवहार्य होगा। मसलन, आप कंपनी कानून या सहकारिता के तहत एफपीओ बना सकते हैं। यही नहीं, सोसायटी एक्ट के तहत और ट्रस्ट एक्ट के तहत भी एफपीओ बन सकता है। यानी दायरा बड़ा कर दिया गया है। पैसे के जरिए मदद का प्रावधान भी है, लेकिन इसके लिए सबसे जरूरी बात किसानों में भरोसा पैदा करना है, ताकि वे इस दिशा में कदम बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित हों। यह काम नौकरशाही के पुराने ढर्रे से नहीं हो सकता। इसके लिए इसे एक आंदोलन की तरह देखना होगा। मसलन, सहकारिता भी एक विकल्प है, जिसके प्रसार के लिए इसे एक आंदोलन की तरह ही देखा गया। गुजरात, महाराष्ट्र और कुछ दक्षिणी राज्यों में सहकारिता के मजबूत होने का सीधा संबंध सहकारिता आंदोलन में किसानों का भरोसा जीतने से है। इसके लिए ऐसा नेतृत्व चाहिए जिस पर लोग भरोसा कर सकें। यह वह मसला है जिसकी कमी के चलते अब कई हिस्सों में सहकारिता आंदोलन कमजोर हो रहा है या हुआ है। असली मसला साख का है। सरकारी विभागों की तर्ज पर एफपीओ खड़े नहीं किए जा सकते हैं। उत्तर के कई बड़े राज्यों में लोगों को सहकारी संस्थाओं और सरकारी विभागों के बीच अंतर ही नहीं पता, क्योंकि यहां स्वायत्तता है ही नहीं और नौकरशाह ही सहकारी संस्थानों को भी चलाते हैं। पूर्ण स्वायत्तता, पारदर्शी प्रशासन और नेतृत्व के साथ प्रोफेशनल प्रबंधन इसकी सफलता की गारंटी है। अमूल, इफको और कुछ दूसरे संस्थान इसके कामयाब उदाहरण के रूप में हमारे सामने हैं। जहां यह फार्मूला नहीं है, उनके नाकाम होने की लंबी फेहरिस्त भी है। इसलिए, एफपीओ को बढ़ावा देने के लिए रोडमैप बनाने का काम तो आगे बढ़ गया है, लेकिन उसकी कामयाबी के लिए जरूरी दूसरे पक्ष भी उपबल्ध हों, तभी किसानों की आय बढ़ाने का यह विकल्प अपने मकसद की तरफ बढ़ पाएगा।