इस समय देश की इकोनॉमी संकट में फंसी है। लॉकडाउन में जब सब कुछ बंद रहा तब भी किसान पूरे जोर-शोर से अपने खेतों में काम में लगा हुआ था। इस दौरान किसानों को बाजार में बंदी और फसलों की सही खरीद नहीं होने से हजारों करोड़ रुपये का घाटा हुआ। सरकार को इस घाटे को कम करने और किसानों की मदद के लिए कदम उठाने चाहिए थे। लेकिन सरकार ने सुधारों पर आगे बढ़ने का रुख कर लिया।
कृषि उत्पाद विपणन समिति (एपीएमसी) एक्ट में सुधार को लेकर नीति-निर्धारकों में एक राय बन गई है और उसे लागू करने के लिए राज्यों से कहा गया है। जाहिर है, सबसे पहले भाजपाशासित राज्यों से इसकी शुरुआत हो रही है। गुजरात ने एपीएमसी कानून में संशोधन के लिए अध्यादेश जारी कर दिया है, जिसमें एक ही लाइसेंस पर राज्य के सभी एग्रीकल्चर मार्केट में कृषि उत्पाद खरीदने की छूट होगी। जाहिर है, इसका फायदा मंडी में बैठा आढ़ती नहीं ले पाएगा और यह बड़े कॉरपोरेट के लिए कृषि उत्पाद खरीदने का रास्ता खोलने का बड़ा कदम है। इसमें कहा गया है कि इससे किसानों को उत्पाद बेचने के ज्यादा विकल्प मिलेंगे और अच्छा भाव मिलेगा। देखने में यह आदर्श लगता है। लेकिन क्या किसान को राज्य की सभी मंडियों की कीमतों की जानकारी होती है या होगी? उसके लिए क्या व्यवस्था है? कई बार किसान अपनी उपज केंद्र के तय न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेचने के लिए अपने राज्य में सुविधा नहीं मिलती तो बगल के राज्य में जाता है। लेकिन विडंबना यह है कि दूसरे राज्य का मार्केट उसके लिए पराया हो जाता है।
बेहतर होगा कि केंद्र सरकार राज्यों से कहे कि किसान के लिए पूरा देश एक मार्केट है। बड़े कॉरपोरेट पूरे राज्य में खरीद की व्यवस्था कर कीमतों को नियंत्रित नहीं करेंगे, इसकी क्या गारंटी है। इस पर निगरानी का तंत्र पहले तय होना चाहिए। वैसे तमाम एक्सपर्ट जानते हैं कि बिहार में एपीएमसी है ही नहीं, अगर उदारीकृत कानूनों से किसानों का भला होता तो बिहार का किसान सबसे समृद्ध और सुखी होता।
राज्य की एजेंसियां भी किसानों को संकट के समय सही दाम नहीं दिला पा रही हैं। यहां तीन उदाहरण उत्तर प्रदेश से हैं। अमूल दिल्ली में दूध बेचने के लिए गुजरात के किसानों को करीब 45 रुपये प्रति लीटर कीमत देता है लेकिन दिल्ली के करीब उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले की दुग्ध उत्पादक सहकारी समिति किसान से केवल 31 रुपये लीटर में दूध खरीद रही है, जो 9 मार्च के पहले 46 रुपये प्रति लीटर था। यानी किसानों को सीधे 30 फीसदी कम दाम मिल रहा है। वह भी तब जब राज्य के डेयरी मंत्री लक्ष्मी नारायण चौधरी मथुरा जिले से ही विधायक हैं।
बात केवल दूध की ही नहीं है। उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा चीनी उत्पादक राज्य है लेकिन यहां चीनी मिलों की कॉरपोरेट लॉबी किसानों को कैसे संकट में डालती है, वह 11 मई तक गन्ना किसानों के 14,457 करोड़ रुपये के बकाए से जाहिर है। राज्य सरकार ने भी दो साल से गन्ने के राज्य परामर्श मूल्य (एसएपी) में कोई इजाफा नहीं किया है जबकि खाद, बीज, एग्रोकेमिकल्स, डीजल और मजदूरी में बढ़ोतरी से लागत बढ़ी है।
यही मामला गेहूं का है। चालू साल में उत्तर प्रदेश में 363 लाख टन गेहूं उत्पादन का अनुमान है जबकि सरकारी खरीद का लक्ष्य 55 लाख टन ही है। इसके विपरीत पंजाब में 185 लाख टन गेहूं उत्पादन में 135 लाख टन, हरियाणा में 115 लाख टन उत्पादन में 95 लाख टन, मध्य प्रदेश में 190 लाख टन उत्पादन में 100 लाख टन की खरीद का लक्ष्य है। 11 मई तक पंजाब 114.90 लाख टन, हरियाणा 57.64 लाख टन, मध्य प्रदेश 63.67 लाख टन लेकिन उत्तर प्रदेश केवल 11.85 लाख टन गेहूं की सरकारी खरीद ही हुई। इस साल हरियाणा सरकार ‘मेरी फसल मेरा ब्योरा’ के तहत पंजीकरण कर रही है। उत्तर प्रदेश और राजस्थान के किसानों को हरियाणा में गेहूं बेचना मुश्किल हो रहा है। हालांकि इस लेखक के साथ बातचीत में हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने कहा कि हमारे किसानों का गेहूं बिकने के बाद हम उत्तर प्रदेश और राजस्थान के किसानों का गेहूं खरीदने की अनुमति दे सकते हैं।
उम्मीद है कि गुजरात के बाद दूसरे राज्य भी एपीएमसी सुधारों पर फैसले कर सकते हैं। लेकिन जिन किसानों के लिए सुधार की बात की जा रही है, उनकी कोई राय नहीं ली जा रही है। लॉकडाउन में इस तरह का एकतरफा फैसला लेने के पहले संबंधित पक्षों की राय ली जाए तो बेहतर रहेगा। लेकिन यह तो तभी हो सकता है, जब किसान के हक इन सुधारों के केंद्र में हों, अगर बाजारवाद केंद्र में है तो फिर किसान की राय की जरूरत ही कहां है।