संसद में 8 अगस्त, 2024 को वक्फ संशोधन बिल पेश करते हुए केंद्रीय मंत्री किरण रिजिजू ने कहा कि वक्फ की संपत्तियों के कुप्रबंधन और कुछ व्यक्तियों द्वारा कब्जाए जाने के कारण गरीब मुसलमान लाभों से वंचित रह गए हैं। मौजूदा संशोधन विधेयक का विरोध जरूरी है, लेकिन वक्फ को बचाने की लड़ाई यहीं खत्म नहीं होती। गरीबों, मजलूमों, जरूरतमंदों को ऊपर उठाने के इसके मिशन को बचाने के लिए इन सुनियोजित हमलों को इतिहास की रोशनी में समझना जरूरी है ताकि वक्फ की मौजूदा माली हालत के असली दोषियों की पहचान की जा सके।
ब्रिटिश राज ने मुसलमान वक्फ वैलिडेटिंग एक्ट 1913 के माध्यम से वक्फ को शुरुआती वैधानिक मान्यता दी थी। इसके बाद 1923 में मुसलमान वक्फट एक्ट आया। आजादी के ठीक बाद इस पर पहला हमला हुआ जब मुसलमान वक्फ बिल 1952 में से ‘मुसलमान’ को हटा दिया गया। यही 1913 और 1923 के कानूनों के साथ भी किया गया। 1955 में जाकर एक नया वक्फ कानून बना। यह मुसलमानों की पहचान को मिटाने का महज मामला नहीं था। इसने मुसलमानों के धार्मिक और आध्यात्मिक व्यवहार की अवधारणा के रूप में वक्फ को कमजोर करने के बीज भी बोये। इसने वक्फ को महज एक धर्मार्थ संस्थान में तब्दील कर दिया और इसकी गहराई खत्म कर दी गई।
वक्फ की संपत्तियों पर राज्य और निजी व्यक्तियों का जबरदस्त अतिक्रमण कायम है, हालांकि राज्य की भूमिका यहां केंद्रीय है क्योंकि वह कागज पर वक्फ का संरक्षक है। इन जायदादों को बचाने के बजाय राज्य ने इन्हें पलट कर राजसात करने का काम किया है। हालिया उदाहरण दिल्ली की 123 संपत्तियों पर कब्जे का है। यह मामला अदालत में है। अंग्रेजों ने 1911 में जब राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित किया, उन्होंने रायसीना गांव का अधिग्रहण किया जो मुसलमान बहुल था। मुस्लिम आबादी इससे बहुत असंतुष्ट हो गई। इस चक्कर में अंग्रेजों ने धार्मिक स्थलों को बख्श दिया और उनके इर्द-गिर्द लुटियन की दिल्ली बना दी। अंग्रेजों ने 1943 में इन संपत्तियों को सुन्नी मजलिस बोर्ड को सौंप दिया। आजादी के बाद औकफ की जगह दिल्ली वक्फ बोर्ड अस्तित्व में आया। इसने दिल्ली के गजेट में इन संपत्तियों को अधिसूचित कर दिया। दिल्ली विकास प्राधिकरण और लैंड एंड डेवलपमेंट ऑफिस दोनों ने इस अधिसूचना का विरोध किया और इन संपत्तियों पर अपना दावा जताया।
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प्रतिक्रिया में इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार ने मीर नसरुल्ला कमेटी बना दी। इस कमेटी ने ऐसी 400 से ज्यादा संपत्तियों का निरीक्षण किया। इससे केंद्र सरकार में हड़कम्प मच गया क्योंकि ज्यादातर संपत्तियां केंद्र के कब्जे में ही थीं। अगर इस कमेटी की सिफारिशों को लागू कर दिया गया होता तब केंद्र सरकार को इन संपत्तियों का कब्जा छोड़ना पड़ता या फिर दिल्ली। वक्फ बोर्ड को मुआवजा देना होता। इस झंझट से बचने के लिए इंदिरा गांधी ने एक और कमेटी बना दी। इसके अध्यक्ष बर्नी साहब थे। बर्नी कमेटी की रिपोर्ट में कई विसंगतियां थीं। वे वक्फ के मूल सिद्धांत के खिलाफ थीं। इनमें एक पहलू वक्फ की 250 संपत्तियों में से 120 के ऊपर उसकी चुप्पी थी, जिनमें से कई पर केंद्र सरकार का कब्जा था।
इसके बाद केंद्र सरकार ने अधिसूचना जारी कर के ऐसी 123 संपत्तियों को लीज पर दिल्ली वक्फ बोर्ड को दे दिया। इनमें मस्जिदें, मकबरे और कब्रगाहें थीं। इस हरकत से वक्फ बोर्ड किरायेदार बन गया जबकि स्वामित्व केंद्र के पास ही कायम रहा। इस फैसले ने वक्फ के बुनियादी विचार को ही पलट दिया क्योंकि वक्फ की संपत्तियां अल्लाह के नाम पर तामीर की जाती हैं जिनका कोई मालिक नहीं होता, आदम हो चाहे संस्था।
अदालत ने इन्हीं 123 संपत्तियों के मामले में 12 जनवरी, 2011 को कहा कि इनकी मिल्कियत अल्लाह के पास है इसलिए केंद्र सरकार इन पर अपना दावा नहीं कर सकती। अदालत ने केंद्र सरकार को छह माह के भीतर मामला निपटाने को कहा और इस बीच यथास्थिति कायम रखने का निर्देश दिया। यूपीए सरकार ने इस मसले को नजरअंदाज कर दिया। पिछली अधिसूचना को खत्म करने में उसे तीन साल लग गए, वह भी बिना मुआवजा दिए जबकि पैंतालीस साल से वह इन संपत्तियों का इस्तेमाल करते आ रही थी। इस कार्रवाई ने फिर से मुकदमे की राह खोल दी।
इसके बाद हाइकोर्ट ने भाजपा सरकार को मामला निपटाने का निर्देश दिया। भाजपा सरकार ने 2021 में एक व्यक्ति की एक समिति बनाई। उसकी रिपोर्ट आज तक जारी नहीं की गई है। बाद में दो सदस्यों की एक और कमेटी बनाई गई। उसने एकतरफा ढंग से अपनी रिपोर्ट जमा कर दी। उसमें दिल्ली वक्फे बोर्ड शामिल ही नहीं हुआ क्योंकि दिल्ली हाइकोर्ट में वह कमेटी के गठन को कानूनी चुनौती दे चुका था।
दिल्ली का यह मामला केवल बड़ी समस्या की छोटी सी झलक भर है। देश भर में वक्फ की संपत्तियों पर राज्य कब्जा कर रहा है। ऐसे कब्जों की कोई सूची तो मौजूद नहीं है लेकिन विभिन्न सरकारी रिपोर्टों में अलग-अलग समय पर कुछ क्षेत्रों में सरकारी कब्जे के उदाहरण मिलते रहे हैं। मसलन, सच्चर कमेटी की 2006 में आई रिपोर्ट ने बताया था कि राजधानी दिल्ली में राज्य का वक्फ की 316 संपत्तियों पर अतिक्रमण है। ऐसे ही राजस्थान और उत्तर प्रदेश में 60 तथा ओडिशा और मध्य प्रदेश में 53 संपत्तियां हैं।
मुसलमानों के नेताओं ने इस मसले पर कुछ कोशिश की है। उदाहरण के लिए, के. अब्दुर्रहमान ने 2014 में वक्फ प्रॉपर्टीज (इविक्शन ऑफ अनऑथराइज्ड ऑक्युपैंट्स) बिल पेश किया था। समर्थन के अभाव में उसे उन्हें वापस लेना पड़ा। ऐसे ही 2022 में फौजिया खान ने वक्फ संशोधन बिल पेश किया लेकिन उसे भी वापस लेना पड़ गया।
वक्फ कानून, 1995 की धारा 6(1) वक्फ संपत्ति के रूप में अधिसूचित किसी संपत्ति पर सर्वे कमिश्नर की रिपोर्ट को कानूनी चुनौती देने की अवधि एक साल तय करती है। यह सीमा गैर-मुसलमानों पर लागू नहीं है, इसलिए यह संशोधन भेदभावकारी है और वक्फ संपत्तियों पर कब्जे को बढ़ावा देने वाली भी है।
वक्फ के प्रावधानों को कमजोर करने के लिए ऐसे ही कई कानून बनाए गए हैं। खासकर, हर एक राज्य का रेंट कंट्रोल कानून किरायेदारों को पर्याप्त सुरक्षा मुहैया कराकर वक्फ की संपत्तियों पर बहुत बुरा असर डालता है क्योंकि ये संपत्तियां इस कानून के मातहत आती हैं। नतीजतन, वक्फ अपने उद्देश्यों को पूरा नहीं कर पाता और जरूरतमंदों के लाभ प्रभावित होते हैं।
ऐसे ही कई और कानून हैं, मसलन 1981 का ठीका कानून जिसे पश्चिम बंगाल की असेंबली ने बनाया था। इस कानून के तहत किरायेदारों को राज्य भर में कई संपत्तियों का स्वामी बना दिया गया। इसमें सरकारी और निकाय की संपत्तियों को छोड़ दिया गया था, लेकिन वक्फ को नहीं छोड़ा गया। इस चक्कर में वक्फ की कई संपत्तियां चली गईं। वक्फ के खिलाफ जाने वाले और कानूनों में 1908 का संपत्ति पंजीकरण कानून, 1899 का स्टाम्प ड्यूटी कानून और भूमि सुधार कानून हैं। ऐसा ही एक कानून प्राचीन स्मारकों और पुरातात्विक स्थलों व अवशेषों का 1958 में बना कानून है जो अकसर वक्फ कानून से टकराता है।
कई ऐसे मामले सामने आए हैं जहां पूजास्थलों और धार्मिक महत्व की जगहों को ‘संरक्षित स्मारक’ बनाकर वक्फ की पहुंच से ही दूर कर दिया गया है और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को सौंप दिया गया है।
(लेखक कानूनी मामलों के जानकार हैं। विचार निजी हैं)