अभी तक के इतिहास में कर्नाटक में गठबंधन का प्रयोग सफल नहीं रहा है। भाजपा ने 23 जुलाई को एच.डी. कुमारस्वामी को विश्वास-मत में हरा दिया। पिछले 13 वर्षों में यह तीसरी बार है, जब गठबंधन सरकार संख्या बल में मात खा गई। अब बी.एस. येदियुरप्पा के नेतृत्व में भाजपा को कर्नाटक में फिर सरकार बनाने का मौका मिला है। यह पूरा प्रकरण ही एक विडंबना से जुड़ा था। यह एच.डी. कुमारस्वामी ही थे, जिन्होंने 2006 में धर्म सिंह की अगुआई वाली कांग्रेस-जनता दल (सेक्युलर) गठबंधन सरकार को गिराया था। तब उन्होंने पार्टी के एक धड़े की अगुआई करते हुए येदियुरप्पा से समझौता कर लिया था। बीस महीने बाद, जब कुमारस्वामी ने भाजपा को सत्ता हस्तांतरित करने के समझौते से हाथ पीछे खींच लिया, तो दूसरी बार गठबंधन की सरकार गिर गई। इस बार, बागियों के एक समूह ने अपनी ही 14 महीने पुरानी सरकार को गिरा दिया। अब तीसरी बार विश्वास-मत के प्रस्ताव पर चार दिनों तक चर्चा चली, क्योंकि गठबंधन को उम्मीद थी कि वह कांग्रेस-जेडी (एस) के 16 बागियों में से कुछ को अपने पाले में लाने में सफल हो सकता है। अंत में बहुजन समाज पार्टी के विधायक सहित 20 विधायक वोटिंग से दूर रहे। इस तरह उन्होंने खंडित जनादेश वाली विधानसभा में 105 सदस्यों के साथ भाजपा को बहुमत दिला दिया।
चार दिनों की बहस के दौरान, भाजपा निश्चिंत होकर विपक्ष की बेंच पर बैठी रही और जेडी (एस)-कांग्रेस ने दलबदलुओं पर करारा हमला बोला। दोनों ने इस्तीफा देने वाले बागियों को कथित रूप से करोड़ों रुपये दिए जाने की चर्चा की। विधानसभा अध्यक्ष के.आर. रमेश कुमार ने कहा कि सभी बातें रिकॉर्ड में दर्ज हो रही हैं। उन्होंने कहा, “लोगों को पता होना चाहिए, सब कुछ बाहर आने दीजिए।”
बागियों का क्या होगा, यह अभी साफ नहीं है। बागियों ने इस महीने की शुरुआत में अपने इस्तीफे को लेकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। कोर्ट ने अंतरिम फैसले में कहा था कि मुकदमा लड़ने वाले विधायकों को सदन की कार्यवाही में भाग लेने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए। कांग्रेस और जेडी (एस) दोनों ने इन विधायकों से नाता तोड़ लिया और उन्हें अयोग्य घोषित करने के लिए दबाव डाला। कांग्रेस नेता सिद्धरमैया ने कहा, “ऑपरेशन कमल के लिए जो बागी बने हैं, उन्हें हमारी पार्टी में वापस शामिल नहीं किया जाएगा। भले ही आसमान टूट पड़े!” राजनीतिक विश्लेषकों को अब उप-चुनाव की संभावना दिख रही है।
अब सवाल यह है कि 2018 में बिलकुल अलग ही परिदृश्य में बना जेडी (एस)-कांग्रेस गठबंधन क्या आगे भी जारी रहेगा। जब कुमारस्वामी से इस बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि दोनों पक्षों में अभी इस पर चर्चा नहीं हुई है। अभी वह यही कहेंगे कि उनकी प्राथमिकता जेडी (एस) को मजबूत करना है। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष दिनेश गुंडू राव ने भी कहा, “अब राज्य में फिर से पार्टी को खड़ा करने का समय है। हम (विधानसभा) वोट शेयर के मामले में पहले नंबर पर हैं और हमें अपने कार्यकर्ताओं को भरोसा दिलाना है।”
लेकिन अहम बात यह है कि अब सबका ध्यान भाजपा की ओर चला गया है, जिसकी सत्तारूढ़ दल के रूप में अपनी चुनौतियां होंगी। राजनीतिक विश्लेषक ए. नारायण का कहना है, “क्या भाजपा एक टिकाऊ सरकार दे पाएगी? इस पर अभी कुछ कहना मुश्किल होगा। अगर उप-चुनावों के परिणामों के बाद भी संख्या बल को लेकर अनिश्चितता बनी तो राजनीतिक अस्थिरता जारी रहेगी।”
कइयों को लगता है कि भाजपा को बड़ी चुनौती खुद पार्टी के भीतर से ही मिलने वाली है। भाजपा की पहली सरकार जब 2008-13 में बनी थी, तो पार्टी को पांच साल में तीन मुख्यमंत्री बनाने पड़े थे। अगर भाजपा नए सदस्यों के भरोसे सरकार बनाती है, तो यह निश्चित है कि उसे एक दशक पहले वाली स्थिति का सामना करना पड़ेगा। भाजपा ने किसी तरह बहुमत जुटाने के लिए बागी सदस्यों पर दांव लगाया है। भाजपा के वरिष्ठ नेता एस.सुरेश कुमार ने एक न्यूज चैनल से कहा है, “सरकार गिरने के लिए हम जिम्मेदार नहीं हैं। यह तो गठबंधन में जो अविश्वास की स्थिति पैदा हुई है, उसी का परिणाम है। पिछले 14 महीने से इस तरह की धारणा बन गई थी कि यह सरकार लोकप्रिय नहीं है। अब हमारी जिम्मेदारी है कि हम एक स्थायी सरकार दें, जिसके लिए हम तैयार हैं। हम यह भरोसा दिलाते हैं कि पिछली सरकार जैसी स्थिति फिर नहीं पैदा होगी।”