अपनी फिल्म पुष्पा: द राइज के रिलीज होने की पूर्व-संध्या पर 16 दिसंबर को तेलुगु स्टार अल्लु अर्जुन ने कहा था, ‘‘2000 के दशक में उत्तर और दक्षिण भारत के सिनेमा के बीच स्पष्ट विभाजन था, जो अब धुंधला होने लगा है। पिछले एक दशक से हम धीरे-धीरे इस खाई को मिटता देख रहे हैं। आने वाले दिनों में यह विभाजन-रेखा इतनी धुंधली हो जाएगी कि पता ही नहीं चलेगा कि फिल्में कहां से रिलीज हो रही हैं।’’ हालांकि उन्हें भी शायद ही अंदाजा रहा होगा कि पुष्पा ऐसा तहलका मचा देगी कि आने वाले समय की तो छोडि़ए, अभी से यह रेखा धुंधलाती नजर आने लगी है।
बाहुबली, केजीएफ, असुरन और कैथी जैसी दक्षिण भारतीय फिल्मों की समूचे देश में धांसू कामयाबी के बाद पुष्पा के परचम लहराने से साफ हो गया कि डब की गई फिल्मों का बाजार भी छलांग मार रहा है। आखिर डब फिल्में इतनी ज्यादा हिट क्यों हो रही हैं? डेडपूल जैसी फिल्म की हिंदी में पटकथा लिख चुके मयंक जैन आउटलुक से कहते हैं, ‘‘भारत की विविधता इतनी ज्यादा है और यहां इतनी भाषाएं बोली जाती हैं कि सिर्फ एक भाषा में फिल्म बन ही नहीं सकती है। एक भाषा में फिल्म बनने का मतलब एक क्षेत्र में ही सिमट कर रह जाना है। फिल्में जितनी भाषाओं में डब होती हैं, उतने ही बड़े ऑडियंस तक पहुंच बनाती हैं, जिससे उनका मुनाफा भी उतना ही बढ़ता है।’’
1990 के दशक तक अधिकांश डबिंग चार प्रमुख दक्षिण भारतीय भाषाओं तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम में होती थी। हिंदी में डबिंग कम ही देखी जाती थी। उस समय तक भारतीय दर्शकों को हॉलीवुड और हांगकांग से रिलीज हुई फिल्मों का डब वर्जन ही देखने को मिलता था। 1990 के बाद से ब्रूस ली, जैकी चैन और सिल्वेस्टर स्टैलोन जैसे विदेशी एक्टरों की फिल्में हिंदी में डब होनी शुरू हुईं और ठीक-ठाक सफल भी हुईं। 1992 में जरूर मणिरत्नम निर्देशित रोजा को हिंदी में डब किया गया था। हालांकि फिल्म को उतनी सफलता नहीं मिली, लेकिन उसने देश में डबिंग को लेकर सोच और नजरिया दोनों बदल दिया। इसी ट्रेंड को आगे बढ़ाते हुए 2007 में रिलीज हुई रजनीकांत अभिनीत तमिल फिल्म शिवाजी को 2010 में हिंदी में डब किया गया और इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर शानदार प्रदर्शन किया। तब से लेकर अब तक डबिंग फिल्म इंडस्ट्री ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा है और उसका बाजार लगातार बढ़ता जा रहा है।
डबिंग फिल्म इंडस्ट्री का मार्केट कितना बड़ा है, इस पर जैन कहते हैं, ‘‘यह इंडस्ट्री फिलहाल दो हजार करोड़ रुपये से ऊपर की है। जिस पैमाने पर कारोबार बढ़ रहा है, उससे निकट भविष्य में यह इंडस्ट्री कम से कम पांच हजार करोड़ रुपये की हो सकती है।’’ डबिंग के काम में दबदबा रखने वाले मनीष शाह तो इसे 10 हजार करोड़ रुपये का हो जाने का अनुमान लगाते हैं (देखें इंटरव्यू)। जानकार भारत में डबिंग फिल्म इंडस्ट्री के बढ़ते वर्चस्व के पीछे दो प्रमुख कारण मानते हैं। पहला इंटरनेट क्रांति, जिसकी वजह से डाटा सुलभ और सस्ता हुआ और दूसरा ओटीटी का उदय। 20 साल से डबिंग फिल्म इंडस्ट्री में कार्य करने वाले और तुर्की की वेब सीरीज द प्रोटेक्टर को हिंदी में डब कर चुके रवींद्र भी इस बात से इत्तेफाक रखते हैं। उन्होंने आउटलुक से कहा, ‘‘जब से ओटीटी का जमाना आया है, फिल्में सिर्फ हिंदी में ही नहीं, बल्कि अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में भी डब हो रही हैं। इसका सबसे बड़ा कारण सबके हाथ में स्मार्टफोन और पर्याप्त मात्रा में डाटा उपलब्ध होना है। अभी तो यह बस शुरुआत है, क्रांति आनी बाकी है। आने वाले समय में तो डबिंग इंडस्ट्री से होने वाली कमाई दो-तीन गुना रफ्तार से बढ़ेगी।’’
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार 2017 में गैर-हिंदी भाषी सिनेमा ने मूवी थियेटर चेन सिनेपोलिस के राजस्व में 22 प्रतिशत का योगदान दिया है। वहीं, फिक्की-ईवाइ की 2018 में मनोरंजन उद्योग पर आई एक रिपोर्ट के अनुसार, 2017 में ऑनलाइन टिकट बुकिंग प्लेटफॉर्म बुक माई शो के जरिए जितने भी लोगों ने टिकट बुक किए, उनमें औसतन 45 से 46 प्रतिशत लोगों ने क्षेत्रीय फिल्मों के टिकट बुक किए, जबकि 2016 में यह लगभग 39 से 40 प्रतिशत था। रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि हॉलीवुड फिल्मों के 2018 में भारत में कुल बॉक्स ऑफिस कलेक्शन में 33 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखी गई थी। अब उसकी कमाई घरेलू फिल्मों में 13 प्रतिशत तक पहुंच गई है।
भारत की टेलीविजन मॉनिटरिंग एजेंसी बार्क (ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल) के डाटा के अनुसार, हिंदी भाषी फिल्मों को देश में अब भी सबसे ज्यादा देखा जा रहा है लेकिन आने वाले समय में क्षेत्रीय भाषाओं के कंटेंट की खपत में बढ़ोतरी देखी जाएगी। 2016 में गुजराती, असमिया, मराठी और कन्नड़ में क्रमशः 146 प्रतिशत, 123 प्रतिशत, 74 प्रतिशत और 63 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि हिंदी के कंटेंट में बढ़ोतरी की दर मात्र 27 प्रतिशत रही थी। माना जा रहा है कि क्षेत्रीय भाषाओं में कंटेंट की मांग ही वह सबसे बड़ा कारण है, जिसकी वजह से डबिंग फिल्म उद्योग में बढ़ोतरी देखी जा रही है।
लागत कम, मुनाफा ज्यादा
आम तौर पर फिल्मों के बनने में जितनी लागत आती है, उसका एक प्रतिशत भी उसे डब करने में नहीं लगता है। हालांकि डबिंग पर कुछ पैसे खर्च करने के बाद उस फिल्म को बड़ा बाजार मिल जाता है, जिससे कमाई कई गुना बढ़ जाती है। जैन कहते हैं, ‘‘डब की हुई फिल्में इसलिए हिट हो रही हैं और मुनाफा कमा रही हैं, क्योंकि डबिंग के जरिए समाज के बड़े से लेकर छोटे तबके तक उसकी पहुंच बन जाती है। डेडपूल ने डबिंग के बाद 60-70 करोड़ रुपये का बिजनेस किया था।’’
दक्षिण भारत फिल्मों के लिहाज से हमेशा एक बड़ा बाजार रहा है। वहां की फिल्में देश और दुनिया के तमाम हिस्सों में डबिंग के जरिये जबरदस्त मुनाफा कमाती रही हैं। आंकड़ों के लिहाज से बात करें तो बाहुबली: द बिगनिंग और कनक्लूजन ने वैश्विक स्तर पर क्रमशः 600 करोड़ और 1749 करोड़ रुपये कमाए थे। दक्षिण की फिल्में ही नहीं, बल्कि स्पाइडर मैन: नो वे होम जैसी फिल्म ने भी दो हफ्तों के भीतर ही देश में लगभग 200 करोड़ रुपये तक का बिजनेस कर लिया था। स्पाइडर मैन को भोजपुरी में भी डब किया गया था।
जानकारों का मानना है कि डबिंग फिल्म इंडस्ट्री के लिए आने वाला समय बहुत अच्छा है। पहले जो फिल्में सिर्फ तमिल और तेलुगु में डब होती थीं, वे मराठी, बांग्ला, पंजाबी और गुजराती में भी डब होने लगी हैं। इससे फिल्में लगातार मुनाफा कमा रही हैं। बॉलीवुड हंगामा की एक रिपोर्ट के अनुसार, शाहरुख खान अभिनीत चेन्नै एक्सप्रेस ने आंध्र प्रदेश, बंगाल और तमिलनाडु-केरल में क्रमशः 15.21 करोड़, 10.95 करोड़ और 6.89 करोड़ रुपये का कारोबार किया था।
डबिंग का अर्थतंत्र
आम तौर एक फिल्म के निर्माण में महीनों-वर्षों लग जाते हैं, लेकिन जैसा मयंक जैन बताते हैं, एक फिल्म को डब करने में ज्यादा से ज्यादा दो हफ्ते लगते हैं। वे बताते हैं, ‘‘सबसे पहले हमारे पास फिल्म आती है, फिर उसको जिस भाषा में डब करना होता है उसकी स्क्रिप्ट लिखते हैं और उसके बाद अलग-अलग किरदार उसे डब करते हैं। सारे किरदारों की डबिंग अलग-अलग होती है और फिर उसकी मिक्सिंग की जाती है, तब जाकर कोई फिल्म डब होकर तैयार होती है।’’ जैन फिल्मों की डबिंग स्क्रिप्ट लिखते हैं। एक लेखक को किसी बड़ी फिल्म की स्क्रिप्ट लिखने के लिए तीन से चार लाख रुपये मिलते हैं।
वेब सीरीज को विभिन्न भाषाओं में डब करने का काम करने वाले दो बड़े प्रोडक्शन हाउस ने आउटलुक को बताया कि बड़ी फिल्मों को डब कर रिलीज करने में ज्यादा से ज्यादा 10-15 लाख रुपये का खर्च आता है। छोटी-छोटी क्षेत्रीय फिल्मों पर खर्च काफी कम आता है। नेटफ्लिक्स के लिए फिल्म डबिंग कर चुके रवींद्र कहते हैं, ‘‘ओटीटी पर रिलीज होने वाली छोटी-छोटी फिल्मों की डबिंग कम से कम एक लाख रुपये में होती है, लेकिन जब ये फिल्में टेलीविजन के लिए डब की जाती हैं तो उसका खर्च 3-4 लाख रुपये तक पहुंच जाता है। यही नहीं, अगर किसी ऐसी फिल्म की डबिंग की जा रही, जिसे थियेटर में रिलीज होना है तो उसमें 20-25 लाख रुपये तक का खर्च आता हैं।’’ उनके मुताबिक, फिल्म के मुख्य किरदार को आवाज देने वाले की फीस कम से कम दो लाख रुपये होती है, जबकि दूसरे किरदारों को आवाज देने वालों को भी 50-60 हजार रुपये मिल जाते हैं। अगर डबिंग जानेमाने अभिनेता करते हैं तो यह राशि कई गुना बढ़ जाती है। पुष्पा में अल्लु अर्जुन की डबिंग श्रेयस तलपडे ने और बाहुबली में प्रभाष की डबिंग शरद केलकर ने की।
डबिंग का भविष्य
मल्टीप्लेक्स क्रांति और भाषाओं के सिमटते दायरे के कारण भारत का मनोरंजन परिदृश्य कुछ क्रांतिकारी दौर से गुजर रहा है। बाहुबली: द कन्क्लूजन और मार्स जैसी ब्लॉकबस्टर फिल्मों की बदौलत अमेरिका और मलेशिया में तेलुगु और तमिल फिल्में बॉलीवुड को पीछे छोड़ भारतीय सिनेमा का मुख्य चेहरा बनती जा रही हैं। संयुक्त अरब अमीरात, ऑस्ट्रेलिया, नीदरलैंड, सिंगापुर में भी ये फिल्में करोड़ों की कमाई कर रही हैं।
डबिंग इंडस्ट्री में इस बूम का आखिर कारण क्या है? जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफेसर तथा दक्षिण भारतीय सिनेमा के एक्सपर्ट कृष्ण शंकर कुसुमा कहते हैं, ‘‘लोगों को मनोरंजन चाहिए और उन्हें जहां से मिलेगा, वहां से इसका उपभोग करेंगे। दक्षिण भारतीय फिल्में यह मुहैया करा रही हैं, इसलिए वे सफल हो रही हैं।’’ वे डबिंग फिल्मों के भविष्य पर कहते हैं कि आने वाले समय में ऐसी कोई फिल्म नहीं होगी, जो तीन-चार भाषाओं में डब न हो। यानी भविष्य उज्ज्वल है।