1971-80 के दशक की पांच घटनाएं चुनकर पत्रकार सुदीप ठाकुर ने एक वृत्तांत समेकित किया है। यह जानकारियों, सूचनाओं, सांख्यिकी, इंटरव्यू, रिपोर्ताज वगैरह से लकदक कई अव्यक्त इशारे भी करता है। लेखक ने गरीबी, प्रिवीपर्स समाप्ति, कोयला-कथा, परिवार-नियोजन और आपातकाल जैसे पांच विषयों को चुनकर उनकी विस्तार से व्याख्या की है। लेखक के अनुसार ये पांचों मुद्दे आज तक कमोबेश अपनी अनुगूंज में कहीं न कहीं कुलबुला रहे हैं। ये लोकतंत्र की बुनियाद में पैठ गए हैं।
इंदिरा गांधी ने 1971 में ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था। सुदीप ने लिखा कि यह सूत्र कांग्रेस के कद्दावर नेता सी. सुब्रमण्यम के सुझाव पर इंदिरा ने राजनीति-सुलभ किया था। उन्होंने श्रीकांत वर्मा का जिक्र भी इस सिलसिले में किया है। इस पार्टी में रहने के कारण मुझे याद है कि महासचिव श्रीकांत वर्मा ने अपने दफ्तर में बैठकर इंदिरा गांधी को यह कहने ‘मैं कहती हूं गरीबी हटाओ, और वे कहते हैं इंदिरा हटाओ’ के ध्वनि संयोजन की बारीकियों की शिद्दत से तलाश में रिहर्सल भी की थी।
लेखक ने राजशाही और प्रिवीपर्स के खात्मे को लेकर दमदार तकरीर कम्युनिस्ट सदस्य भूपेश गुप्त ने की। संसदीय राजनीति में कई धनुर्धर हुए, जो निर्दलीय या छोटी पार्टियों के सदस्य रहे। लेकिन उनकी आवाज इतिहास में प्रतिध्वनि की तरह गूंज रही है।
काले रंग का कोयला खदानों में दबा-दबा आखिर हीरा भी बन जाता है। इतिहास में भी कई घटनाएं मनुष्य की उत्पत्ति और हैसियत का अनिवार्य चरित्र बन जाती हैं। लेखक या शोधकर्ता बहुत गंभीर या धैर्यवान नहीं है, तो कोयले को अपने सामाजिक चिंतन की भूमिका में बुनियादी महत्व का नहीं मानेगा। कोयले वाले परिच्छेद में सुदीप ने कई राजनीतिक चक्रव्यूहों के षड़यंत्रों का वर्णन भी किया है, जो पढ़ने में धीरज मांगता है।
आपातकाल के अभिशापों में अब यह स्वीकृत है कि संजय गांधी के हस्तक्षेप के कारण अत्याचार जनता पर नसबंदी और परिवार नियोजन को लेकर हुए हैं। वह इंदिरा गांधी के राजनीतिक पतन का बड़ा कारण रहा है। किताब में बहुत विस्तार से उन सब घटनाओं, परिदृश्यों, राजनीतिक उठापटक और नेपथ्य की हरकतों का हवाला है, जो आमतौर पर उजागर नहीं हो पाते।
इसी बीच, गुजरात के छात्रों की ओर से एक जलजला पैदा किया गया। असंतोष, आक्रोश और जोश के पूरे माहौल में वर्षों से शांत अलग-थलग और उपेक्षित लगते बीते जमाने का एक पौरुषपूर्ण किरदार मैदान में आकर बागडोर संभालने अपनी भूमिका से बेरुख नहीं रह सका। यह किरदार था अतीत के राजनीतिक नायक जयप्रकाश नारायण का। इसी परिच्छेद में नागरिक आजादी को लेकर सरकार की तरफ से किए जा रहे हमलों को तथ्यपरक किया गया है। आज जो पार्टी देश में हुकूमत कर रही है। दरअसल उसका गर्भगृह आपातकाल की घोषणा में है।
भारतीय लोकतंत्र को उसके संविधान के प्रावधानों के कारण राजनीतिक विवेक की चुनौतियां मिलीं। उनका तरतीब के साथ किताब में बयान है। यह किताब अकादेमिक नस्ल और तेवर की भी है। यह भी लिखने की शैली है कि यदि उद्धरण दिए जाएं, तो उनका प्रमाण भी संलग्न किया जाए।
दस साल: जिनसे देश की सियासत बदल गई
सुदीप ठाकुर
सार्थक, राजकमल प्रकाशन समूह का उपक्रम
मूल्य: 299 रुपये |पृष्ठः 232