प्रतिभा अवसर का इंतजार नहीं करती, अक्सर अपने लिए अवसर पैदा कर लेती है, चाहे वह सुदूर गांव में पनप रही हो या किसी महानगर में। उसे किसी भौगोलिक सीमा में सीमित नहीं किया जा सकता। आधुनिकता की अंधी दौड़ में जब विकास की तमाम गतिविधियां बड़े नगरों के इर्द-गिर्द सिमट गईं, छोटे कस्बे और शहर पीछे छूट गए। इससे देश दो तबकों में बंट गया: राजधानियों में रहने वाला आभिजात्य वर्ग, जिसे आधुनिक और प्रगतिशील समझा गया और कस्बों में बसने वाली आबादी, जिसे पिछड़ापन का प्रतीक माना गया। इन दोनों के बीच खाई इतनी चौड़ी होती गई कि उसे पाटना नामुमकिन समझा गया।
लोकप्रिय साहित्य और सिनेमा में उनके चित्रण ने भी वैसी ही छवि पुख्ता करने में अहम भूमिका निभाई। छोटे शहरों से आने वाले नायक को भोला लेकिन गंवार दिखाया गया, जो महानगर में आने के बाद अचंभित होकर गगनचुंबी अट्टालिकाओं के माले गिनता है। तमाम बुराइयों के बावजूद उसका वहां ‘बड़ा आदमी’ बनना ही सफलता का आखिरी पैमाना समझा जाता है।
असल जिंदगी में हालांकि ऐसा नहीं है कि सिर्फ बड़े शहर के लोगों ने ही सफलता के कीर्तिमान स्थापित किये। गांधी और डॉ. राजेंद्र प्रसाद से लेकर डॉ. अब्दुल कलाम जैसी विभूतियां छोटे गांव-कस्बों से ही आगे बढ़ीं। वहां से निकलकर कला और साहित्य क्षेत्र की अनगिनत हस्तियों ने भी अपना लोहा मनवाया। इसके बावजूद ‘छोटे शहर की मानसिकता’ जैसी अभिव्यक्ति का ईजाद किया गया। ऐसा समझा गया कि वहां के लोगों की सोच छोटी होती है, जो रोजमर्रा के जीवन में उनके हावभाव, व्यवहार और खानपान के तौर-तरीकों में दिखती है। बड़ी सफलता के लिए छोटे से बड़े शहरों की ओर कूच करना आवश्यक समझा गया।
यह सिर्फ उनके लिए लागू न था, जो जीवन में कुछ बड़ा करने का ख्वाब देखते थे, बल्कि उनके लिए भी, जो महज अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण करने का अरमान रखते थे। दरअसल, इसका प्रमुख कारण देश के विभिन्न हिस्सों का सामान रूप से विकसित न होना ही था। आजादी के बाद अधिकतर कल-कारखाने महानगरों के आसपास बने, जिससे वहां तो विकास तेजी से हुआ, लेकिन अन्य क्षेत्र अविकसित रह गए। वहां न तो रोजगार का सृजन हो सका, न ही स्थानीय अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने का कभी गंभीर प्रयास किया गया। ऐसी स्थिति में लाखों लोगों का गांव-कस्बों से महानगरों की ओर पलायन हुआ, जिनमें सिर्फ निर्धन और अशिक्षित मजदूर नहीं थे, बल्कि बड़ी तादाद में मध्यम वर्ग के वैसे लोग भी थे, जो उच्च शिक्षा या नौकरी की तलाश में बाहर जा रहे थे। दिल्ली, मुंबई, कोलकता जाना ही सफलता का मूलमंत्र बन गया। सो, बड़े शहर और बड़े होते गए और छोटे शहर और छोटे। सरकारें बदलती गईं, हुक्मरान सर्वांगीण विकास का दावा करते रहे, लेकिन स्थितियां दशकों तक नहीं बदलीं।
क्या अब समय ने करवट ली है? क्या बदलते वक्त के साथ बड़े और छोटे शहरों के बीच की दूरी कम हो रही है? कम से कम हमारी आवरण कथा के नायक-नायिका इसी बात का संकेत दे रहे हैं। व्यवसाय का क्षेत्र हो या फैशन-ग्लैमर का, आज छोटे शहरों में सफलता की ऐसी कहानियां लिखी जा रही हैं, जो पहले बिरले ही सुनी जाती थीं। इसका सबसे उल्लेखनीय पहलू यह है कि उन्होंने सफलता की तलाश में महानगरों की ओर पलायन नहीं किया बल्कि अपने ही शहर में रहकर ऊंचाइयों को छुआ।
आज गांव-कस्बों में पढ़कर युवा जिलाधीश बन रहे हैं, राष्ट्रीय स्तर की इंजीनियरिंग और मेडिकल की परीक्षाओं में शीर्ष स्थान प्राप्त कर रहे हैं। यहां तक कि विश्व सुंदरियां बन रही हैं। इसमें निस्संदेह पहले वैश्वीकरण और उदारीकरण और हाल के वर्षों में इंटरनेट के प्रादुर्भाव का असर है। मोबाइल फोन के प्रचलन, इंटरनेट की बढ़ती स्पीड और दिनोदिन घटते डाटा की दर ने समय और स्थान की दूरी को मानो पाट दिया है। आज गांव में रह रहा नौजवान इंटरनेट की बदौलत ऑनलाइन शिक्षा और कोचिंग ग्रहण कर रहा है। ई-कॉमर्स की सुविधा के कारण उसके घर तक कोई भी पुस्तक या अन्य आवश्यक सामग्री आसानी से पहुंच जा रही है। देश-विदेश की जानकारियों से वह पल-पल वाकिफ रहता है। कारोबारियों और उद्यमियों के लिए तो घर बैठे ही वैश्विक बाजार खुल गया है। मधुबनी के किसी दुर्गम गांव की चित्रकारी करने वाली गरीब महिला कलाकार को अपनी कला का दुनिया भर में प्रचार-प्रसार के लिए बिचौलिये पर निर्भर नहीं रहना है। यू-टयूब, इंस्टाग्राम जैसे प्लेटफार्म गांव-कस्बों में फैली गुमनाम प्रतिभाओं को रातोरात स्टार बना रहे हैं।
अब वे सपनों को साकार करने के लिए महानगरों के मोहताज नहीं हैं। हां, इस सबके बावजूद, कुछ नहीं बदला है तो वह है सफलता के मौलिक सूत्र। अभी भी जीवन में कुछ पाने के लिए परिश्रम, लगन और अनुशासन की उतनी ही जरूरत है, जितनी हर दौर में रही है। इनकी जरूरत छोटे शहरों में सपने देखने वालों को उतनी ही है, जितनी किसी बड़े शहर वाले को। हमारी आवरण कथा का यही संदेश है।