पांच राज्यों, खासकर उत्तर प्रदेश में हो रहे विधानसभा चुनावों में सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी को विपक्ष से चुनौती मिल सकेगी? दरअसल इन चुनावों को विपक्ष को अपने आप को संगठित करने के अवसर के रूप में लेना चाहिए था, लेकिन लगता है, हर बड़े दल ने स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ने की रणनीति अपनाकर यह अवसर गवां दिया है। समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस इस चुनाव में न सिर्फ भाजपा के खिलाफ, बल्कि एक दूसरे के विरुद्ध भी मैदान में हैं। वैसे तो लोकशाही में चुनाव भी क्रिकेट की तरह अनिश्चितताओं का खेल है, लेकिन यह समझना भी जटिल नहीं है कि विरोधियों के मतों का विभाजन होने से किसे लाभ हो सकता है। मोदी पिछले साढ़े सात साल से केंद्र में सत्ता में हैं और उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ अपना पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा करने जा रहे हैं। उनकी ‘डबल इंजन’ की सरकार की चुनौती को विपक्ष हल्के में नहीं ले सकता।
इन चुनावों के परिणाम का असर न सिर्फ इस वर्ष होने वाले राष्ट्रपति चुनाव पर बल्कि देश में 2024 में होने वाले आम चुनाव पर भी पड़ेगा। 80 लोकसभा क्षेत्र वाले राज्य का विधानसभा चुनाव हर दृष्टि से महत्वपूर्ण है। यह बताने की आवश्यकता नहीं कि बहुकोणीय चुनावों में कुछ मतों का अंतर भी भारी उलटफेर कर सकता है। हाल के वर्षों में जिन राज्यों में सत्तारूढ़ दल की विपक्ष से सीधी टक्कर हुई, उसे कड़ी चुनौती मिली है, चाहे वह 2015 का बिहार विधानसभा का चुनाव हो या 2018 में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ का चुनाव। बिहार में जब नीतीश कुमार की जनता दल-यूनाइटेड ने लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा तो उनके महागठबंधन को भारी बहुमत से विजय मिली।
ऐसे अनेक उदाहरणों के बावजूद विपक्ष का इस बार एकजुट होकर न लड़ने का फैसला हैरान करने और नहीं करने वाला दोनों है। हैरान इसलिए है कि किसी भी तरह की विपक्षी एकता चुनावी रणक्षेत्र में भाजपा के खिलाफ उसे मजबूत करती है और आश्चर्यजनक इसलिए नहीं कि इसकी संभावना शुरू से ही क्षीण थी। 2017 में अखिलेश यादव ने कांग्रेस के साथ गठबंधन में विधानसभा चुनाव लड़ा तो 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने मायावती के साथ गठबंधन किया। लेकिन, दोनों बार भाजपा को विजय मिली। जाहिर है, दो वर्षों में अलग-अलग गठबंधन करने के बावजूद पराजय मिलने से इस बार समाजवादी पार्टी ने उनसे दूरी बनाकर अपने बल पर ही भाजपा को सत्ता से बेदखल करने का बीड़ा उठाया है। लेकिन क्या यह फैसला सिर्फ पिछले कटु अनुभवों के आधार पर किया गया है?
गौरतलब है कि भारत में किसी भी चुनाव में विपक्षी एकता न होने का सबसे बड़ा कारण नेतृत्व का सवाल है। क्या मायावती को अखिलेश यादव का नेतृत्व स्वीकार होता या क्या अखिलेश बसपा सुप्रीमो को सत्ता की कमान सौंपने को तैयार होते? क्या कांग्रेस अपनी सांगठनिक कमजोरियों को ध्यान में रखकर उनके साथ गठबंधन में समझौता करती? ये ऐसे प्रश्न हैं जिनके जवाब ढूंढ़ना मुश्किल नहीं। देखा जाए तो बिहार में भी लालू प्रसाद यादव ने नीतीश कुमार की अगुआई सिर्फ इसलिए स्वीकार की थी क्योंकि चारा घोटाला में दोषी करार दिए जाने के बाद वे स्वयं चुनाव नहीं लड़ सकते थे। उनके लिए वह वक्त का तकाजा भी था क्योंकि उनके राजनैतिक उत्तराधिकारी तेजस्वी प्रसाद यादव उस समय अपनी सियासी पारी शुरू कर रहे थे। आज बिहार में भी परिदृश्य बदल चुका है। अब अगर नीतीश भाजपा के साथ अपना गठबंधन तोड़ना भी चाहें तो इसकी संभावना नहीं दिखती कि लालू उन्हें अपने गठबंधन के नेता के रूप में फिर स्वीकार करें।
नेतृत्व की समस्या सिर्फ उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़े राज्यों में ही नहीं, राष्ट्रीय स्तर पर भी भाजपा-विरोधी पार्टियों में इस पर मतभेद रहे हैं। हर पार्टी राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकार करने को राजी नहीं है। कांग्रेस के भीतर भी दिग्गज नेताओं की बड़ी फौज उनके नेतृत्व पर सवाल उठाती रही है। लेकिन यह भी सही है कि विपक्ष में कांग्रेस ही राष्ट्रव्यापी मौजूदगी वाली पार्टी है। चाहे शरद पवार हों या ममता बनर्जी, नवीन पटनायक हों या दक्षिण भारत का कोई क्षत्रप, किसी भी नेता को आज विपक्ष एकजुट होकर नेता मानने को तैयार नहीं। आज विपक्ष को भाजपा के विरुद्ध अपनी लड़ाई में किसी अटल बिहारी वाजपेयी जैसे सेनापति की जरूरत हैं, जो किसी समय 22 पार्टियों के गठबंधन में सर्वमान्य नेता थे। उनके साथ कुछ ऐसे नेता थे जिनकी सियासी अदावत जगजाहिर थी, लेकिन वाजपेयी के नेतृत्व में आस्था होने के कारण वे एक छतरी के नीचे आए। हालांकि ऐसा नहीं है कि गैर-भाजपा पार्टियों ने कभी नेतृत्व के सवाल पर एकजुटता नहीं दिखाई। एच.डी. देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल भले ही इसमें सफल न हो पाए हों, लेकिन मनमोहन सिंह के नेतृत्व में लालू प्रसाद और रामविलास पासवान जैसे विरोधी नेता एक साथ रहे। आज विपक्ष को अपने लिए कोई नया अटल या मनमोहन चाहिए। यह खोज पूरी होते ही विपक्षी एका की राहें आसन हो जाएंगी। यह कब होगा, यह यक्ष नहीं तो अटल प्रश्न जरूर है।