जीवन के ज्यादातर समय मुझे पत्रकार होने पर गर्व रहा है, सिवाय उन लम्हों के जब प्रमोशन में देरी हुई या किसी सनकी बॉस से पाला पड़ा। उन लम्हों में मैं यह सोचने पर मजबूर हो जाता था कि नेक समझे जाने वाले इस पेशे में बने रहना आखिर कितना उचित है। पिछले कुछ हफ्तों से मेरी मनोदशा एक बार फिर कुछ वैसी ही बनी हुई है। जून में बॉलीवुड स्टार सुशांत सिंह राजपूत को उनके घर में मृत पाया गया था। उनकी असमय मौत के बाद मीडिया में जो ड्रामा चला, उसने पत्रकारिता के पवित्र सिद्धांतों को एक तरह से दफन कर दिया है। सुशांत की मौत चाहे जिस वजह से हुई हो, वह बेहद दुखद है मगर उसके बाद का घटनाक्रम भी कम दुर्भाग्यपूर्ण नहीं। इसने मुझ जैसे पत्रकारों को परेशान और निराश कर दिया है।
इस बात से कोई इनकार नहीं कि मीडिया का काम सच बोलना, अन्याय को उजागर करना, भ्रष्टाचार के सबूतों को सामने लाना और यह तय करना है कि जिसके साथ भी गलत हुआ, उसे इंसाफ मिले। लेकिन सुशांत की मौत के बाद हम जो कुछ होता देख रहे हैं, वह मीडिया के स्वीकार्य दायित्वों से कोसों दूर है। सुशांत को मरणोपरांत न्याय दिलाने के नाम पर मीडिया के एक बड़बोले वर्ग ने अभिनेता की मौत के कारणों की समानांतर जांच शुरू कर दी। ऐसा करने में उन्होंने सुशांत की लिव-इन पार्टनर रही रिया चक्रवर्ती की प्रतिष्ठा को तार-तार कर दिया।
मीडिया के सघन ट्रायल ने लोगों में एक तरह का उन्माद पैदा कर दिया है। आज कोई भी इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं कि सुशांत ने अपना जीवन खुद समाप्त किया, जैसा कि पहले कहा जा रहा था, या मौत की वजह कोई गड़बड़झाला है। इस बारे में लोगों की राय अलग-अलग हो सकती है, लेकिन मीडिया को अपने उस नतीजे पर जरा भी हिचक नहीं है कि किसने सुशांत को मौत की ओर धकेला। अपराध के मामले में न्याय-व्यवस्था का बुनियादी सिद्धांत यही है कि जब तक कोई दोषी साबित न हो, उसे निर्दोष माना जाए। लेकिन रिया चक्रवर्ती को प्राइमटाइम टीवी पर बार-बार विलेन बताया गया। एक ओर जहां पत्रकारों की टोलियां घर और बाहर हर जगह रिया और उनके परिवार वालों के पीछे पड़ी हैं, वहीं दूसरी ओर रिया को न जाने कितने लांछनों से लाद दिया गया-शोख हसीना से लेकर पैसे उड़ाने वाली और काली जादूगरनी तक।
इन हालात में एक बांग्लाभाषी का दूसरे बांग्लाभाषी की तरफदारी करना लोगों को नागवार गुजर सकता है, इसके बावजूद रिया के प्रति सहानुभूति जाहिर करने से मैं खुद को रोक नहीं पा रहा हूं। सुशांत प्रकरण में चाहे जो भूमिका रही हो, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि रिया के साथ अच्छा बर्ताव नहीं हुआ है। टीवी चैनलों पर #अरेस्टरिया का काफी जोर रहा। उनके साथ घटिया स्तर की गाली-गलौज भी की गई। इनमें भोजपुरी म्यूजिक एलबम भी शामिल है, जिसके बोल इतने भद्दे हैं कि उन्हें लिखा नहीं जा सकता। जब पब्लिक रिया के खून की प्यासी हो रही थी, तो राजनैतिक नेता भला इस मामले में कूदने से कैसे चूकते। उन्होंने निर्लज्ज सत्ता-लिप्सा दिखाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। बिहार में, जहां जल्द ही विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, सुशांत की मौत की जांच की मार्केटिंग बिहारी गौरव के तौर पर की जा रही है। दूसरी ओर, अगले साल विधानसभा चुनाव वाले पश्चिम बंगाल में रिया प्रकरण का इस्तेमाल बंगालियों और गैर-बंगालियों के बीच भेद बढ़ाने में किया जा रहा है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण मीडिया ट्रायल न तो देश में पहला है और न ही आखिरी होगा। आरुषि तलवार और शीना बोरा की सनसनीखेज हत्या के मामलों में भी हम ऐसा देख चुके हैं। मौजूदा प्रकरण में सुशांत सिंह राजपूत जैसी सेलिब्रिटी का होना मीडिया ट्रायल करने वालों के लिए मुंहमांगी मुराद पूरी होने जैसा था। इससे उनके दर्शकों की संख्या बढ़ गई और अब वे विज्ञापन में अतिरिक्त रेवेन्यू की उम्मीद कर सकते हैं। अब जब उनका मकसद पूरा हो गया है, इस बात की फिक्र किसी को नहीं कि निष्पक्ष जांच संभव है या नहीं। इस मामले की जांच की जिम्मेदारी सीबीआइ को सौंपी गई है, लेकिन सीबीआइ से असहज सवाल पूछने वाला कोई नहीं। दिल्ली में एक परिवार के चार सदस्यों ने खुदकुशी करने से पहले सुसाइड नोट में जांच एजेंसी के अधिकारियों पर आरोप लगाया था कि वे उन्हें अपनी जान लेने के लिए मजबूर कर रहे हैं। सीबीआइ ने उस मामले की जांच करने की जहमत भी नहीं उठाई।
फिर भी, इस मामले में मुझे उम्मीद है कि सीबीआइ अपनी भूमिका ठीक तरह से निभाएगी और सुशांत के साथ-साथ रिया चक्रवर्ती को भी न्याय मिलेगा। जहां तक मुझ जैसे पत्रकारों की बात है, तो कोई राहत नहीं दिखती। नियम-कायदों और आत्म-नियंत्रण के अभाव में हम अपने आप को समय-समय पर शर्मिंदा होने को मजबूर करते रहेंगे।