भारतीय सिनेमा के लिए यह निस्संदेह गौरव का क्षण है। वर्षों के इंतजार के बाद आखिरकार देश में बनी किसी फीचर फिल्म के गीत को ऑस्कर अवॉर्ड से नवाजा गया। लॉस एंजिलिस में आयोजित 95वें अकादेमी अवॉर्ड समारोह में जब एस.एस. राजामौली की बहुचर्चित फिल्म आर आर आर के नाटू नाटू को सर्वश्रेष्ठ मौलिक गीत की श्रेणी में यह प्रतिष्ठित अवॉर्ड मिला, तो पूरे देश में जश्न का माहौल बन गया। भारत के लिए यह दोहरी खुशी का मौका था क्योंकि इस बार गुनीत मोंगा की द एलीफैंट व्हिस्परर्स को सर्वश्रेष्ठ डाक्यूमेंट्री शॉर्ट फिल्म का भी अवार्ड मिला।
इस वर्ष जनवरी में गोल्डन ग्लोब पुरस्कार जीतने के बाद चंद्रबोस द्वारा लिखित और एम.एम. कीरवानी द्वारा संगीतबद्ध किए गए नाटू नाटू गीत की यह दूसरी अंतरराष्ट्रीय उपलब्धि है। जाहिर है, जिन्हें गोल्डन ग्लोब अवॉर्ड महज संयोग लगा था, उनके लिए ऑस्कर अवॉर्ड यह समझाने के लिए काफी होगा कि नाटू नाटू भारतीय फिल्म फैक्ट्रियों से हर वर्ष निकलने वाला कोई औसत दर्जे का गीत नहीं है। इसे ऑस्कर अवॉर्ड से नवाजा गया है, जिसे एक कालजयी रचना के रूप में स्वीकारने में अब किसी को कोई झिझक नहीं होनी चाहिए।
गौरतलब है कि ऑस्कर अवॉर्ड हमारे लिए सिनेमा की हर बेशकीमती चीज परखने की आखिरी कसौटी रहा है। यह उपलब्धि इस वजह से और भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि नाटू नाटू ने लेडी गागा और रिहाना जैसी वैश्विक स्तर की लोकप्रिय गायिकाओं को कड़ी स्पर्धा में पछाड़ कर यह सम्मान हासिल किया है। हालांकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब किसी भारतीय गीतकार-संगीतकार को यह अवॉर्ड मिला है। डैनी बॉयल की स्लमडॉग मिलियनेयर (2008) में संगीतकार ए.आर.रहमान और गीतकार गुलजार के लोकप्रिय गीत जय हो को अकादमी अवॉर्ड से नवाजा गया था। उसी फिल्म के लिए रसूल पुकुट्टी को भी सर्वश्रेष्ठ साउंड मिक्सिंग का ऑस्कर पुरस्कार मिला था। वर्ष 1982 में बनी रिचर्ड एटनबरो की गांधी में भानु अथैया को सर्वश्रेष्ठ कॉस्टयूम डिजाईन के लिए ऑस्कर मिला, लेकिन दोनों फिल्में अंग्रेज फिल्मकारों ने बनाई थीं। आर आर आर की सफलता इस मायने में अलग है क्योंकि यह देश में निर्मित स्वदेशी फिल्म है, वह भी मूल रूप से तेलुगु में लिखी और बनाई गई। ऑस्कर अवॉर्ड समारोह के मेजबान रिचर्ड कीमेल ने भले ही आर आर आर को बॉलीवुड फिल्म कहा हो, लेकिन जैसा कि इसके निर्देशक राजामौली ने पहले स्पष्ट किया था, यह तेलुगु फिल्म है, न कि बॉलीवुड फिल्म, जिसका तात्पर्य सिर्फ हिंदी सिनेमा से होता है। इस लिहाज से नाटू नाटू की सफलता और बड़ी हो जाती है क्योंकि यह एक प्रादेशिक भाषा में बनी फिल्म है। लेकिन, इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि पूरे विश्व में ऐसी धारणा बन गई है भारत में बनने वाली हर भाषा की फिल्म बॉलीवुड ही है, चाहे वह कोलकाता में बनी बांग्ला फिल्म हो या हैदराबाद में बना तेलुगु सिनेमा। हालांकि इससे फर्क नहीं पड़ना चाहिए क्योंकि महत्वपूर्ण यह है कि किसी भारतीय फिल्म के गीत ने पहली बार कोई ऑस्कर अवॉर्ड जीता है। वर्षों तक भारतीय फिल्मों को महज उनके गीत-संगीत और नृत्य की वजह से पाश्चात्य देशों में खिल्ली उड़ाई जाती थी। बदलते वक्त में तो इतना तो स्पष्ट होता ही है कि हॉलीवुड और पाश्चात्य देशों में भारतीय सिनेमा के प्रति पुराना पूर्वाग्रह ग्रस्त नजरिया बदल रहा है।
इसका एक और पहलू भी है। पिछले कुछ वर्षों में खासकर ओटीटी के प्रादुर्भाव के बाद न सिर्फ भारत बल्कि संपूर्ण एशिया सिनेमा के बड़े बाजार के रूप में उभरा है, जिसे हॉलीवुड अनदेखा नहीं कर सकता। यह सिर्फ भारत तक सीमित नहीं है। इस वर्ष मिशेल यो ऑस्कर का सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार जीतने वाली एशियाई मूल की पहली महिला बन गईं। तीन वर्ष पूर्व कोरियाई फिल्म पैरासाइट ने तो ऑस्कर का सर्वश्रेठ फिल्म का खिताब जीत कर तहलका मचा दिया। हालांकि यह सब इसलिए नहीं हो रहा है कि भारत या एशिया महज एक बाजार बन गया है। आज यह क्षेत्र फिल्में बनाने में सुपर पॉवर के रूप में उभर रहा है। ईरान, कोरिया, लेबनान, इजराइल जैसे छोटे देश बेहतरीन फिल्में बना कर विश्व स्तर पर अपनी छाप छोड़ रहे हैं। उनके मुकाबले गुणवत्ता के दृष्टिकोण से बॉलीवुड या हमारी किसी भी प्रांतीय भाषा की फिल्में नहीं टिकतीं। ऑस्कर में इस वर्ष की सफलता के बाद भारतीय सिनेमा से उम्मीदें बढ़नी लाजिमी है। हमारे फिल्मकारों, खासकर बॉलीवुड के दिग्गजों को यह समझना होगा उनकी फिल्मों और ऑस्कर अवॉर्ड के बीच कोई लोहे की अभेद्य दीवार नहीं है। अगर वे भी कोरिया और ईरान जैसी लीक से हट कर सुंदर और कलात्मक फिल्में बनाएंगे तो वे भी ऑस्कर के दौड़ में आगे रहेंगी। अब वह दौर बीत गया जब उनकी फिल्मों को महज नाच-गानों से भरपूर फिल्में कहकर नकार दिया जाता था। गीत-संगीत में तो हमने दुनिया को दिखा दिया, अब बॉलीवुड या हमारी प्रादेशिक सिनेमा की बारी ऑस्कर का सर्वश्रेष्ठ फिल्म का खिताब जीत कर यह साबित करने की है कि वे भी वैश्विक स्तर के कलात्मक सिनेमा बनाने में सक्षम हैं। तभी भारतीय सिनेमा की आखिरी सरहद पर फतह की मुकम्मल स्क्रिप्ट लिखी जा सकती है।