अस्सी के दशक में अंग्रेजी साप्ताहिक द इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया ने ‘50 इंडियंस हू मैटर’ शीर्षक से एक आवरण कथा छापी थी, जिसमें देश के पचास चुनिंदा शख्सियतों का चयन किया था, जो विभिन्न क्षेत्रों में उस वक्त सबसे ज्यादा मायने रखती थीं। जाहिर है, ऐसे संकलन पर विवाद खड़ा होना लाजिमी था। पत्रिका के अगले ही अंक में एक प्रबुद्ध पाठक ने ‘संपादक के नाम पत्र’ में लिखा कि यह नहीं भूलना चाहिए कि देश में 500 लोग अभी भी हैं “हू माइंड।” करोड़ों लोगों के देश में सिर्फ 50 शीर्षस्थ हस्तियों को चुनना वाकई ‘आ बैल मुझे मार’ जैसी स्थिति को आमंत्रण देना है। ऐसे चयन पर एकमत हुआ ही नहीं जा सकता। इसलिए, शुरुआत में ही यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि उपलब्धियों या किसी अन्य कसौटी पर हस्तियों की कोई भी फेहरिस्त वस्तुनिष्ठता के सवाल पर न तो विवादरहित रह सकती है, न ही उसकी सर्वमान्य स्वीकार्यता हो सकती है। आउटलुक के इस अंक पर भी यही लागू होता है, जिसमें पिछले 75 वर्षों में हिंदी सिनेमा के 75 अभिनेता, अभिनेत्री, निर्देशक और गायक-गीतकार-संगीतकार के साथ-साथ 1947 से अब तक बनी हर साल की एक महत्वपूर्ण फिल्म को चुनने का ‘दुस्साहस’ किया गया है। हमारे अस्वीकरण (डिस्क्लेमर) के माध्यम से समझा जाए कि हमारी फेहरिस्त अंतिम नहीं है।
कलाकारों को पसंद या नापसंद करना व्यक्तिगत रुचि पर निर्भर करता है। दिलीप कुमार को आम तौर पर हिंदी सिनेमा में अभिनय सम्राट समझा जाता है, लेकिन ऐसे लोगों की भी कमी नहीं, जो देव आनंद को उनसे बेहतर अभिनेता समझते हैं। ऐसे भी लोग मिलेंगे, जो राज कपूर को इन दोनों से ज्यादा प्रतिभावान मानते हैं। बीबीसी ने अमिताभ बच्चन को एक इंटरनेट पोल के आधार पर ‘सदी का महानायक’ बताया तो खूब भवें तनी थीं, लेकिन उनके ऐसे मुरीदों की संख्या लाखों में हैं, जो यह मानने को तैयार नहीं कि उनके जैसा कोई और बहुमुखी प्रतिभावान अभिनेता अभी तक हिंदी सिनेमा के परदे पर अवतरित हुआ है। स्वयं अमिताभ का मानना है कि नसीरुद्दीन शाह उनसे बेहतर कलाकार हैं, लेकिन हिंदी फिल्मोद्योग में राज कुमार जैसे अभिनेता भी रहे, जो अपने से बेहतर किसी को मानने को तैयार न थे। उनके प्रशंसकों यह कहते नहीं थकते थे कि कैसे उन्होंने पैगाम (1959) में दिलीप साहब की छुट्टी कर दी। तात्पर्य यह है कि कोई कलाकार किसी की नजर में महान हो सकता तो उसी फनकार को कोई दूसरा औसत दर्जे का समझ सकता है। आखिरकार, अभी तक कोई ऐसा पैमाना नहीं बना जो सर्वमान्य आधारों पर किसी एक कलाकार को सर्वश्रेष्ठ घोषित कर दे।
इसलिए इस अंक में कलाकरों के चयन में अभिनय प्रतिभा के अलावा कई अन्य आधारों को भी पैमाना बनाया गया, लेकिन उनमें पूर्वाग्रह कतई शामिल नहीं। इस लिस्ट में जीतेंद्र, सनी देओल और अक्षय कुमार जैसे कलाकार दिखते हैं, जिनकी अभिनय प्रतिभा ने समीक्षकों को बिरले ही प्रभावित किया, लेकिन दर्शकों ने उन्हें तीन दशकों से अधिक तक सराहा। लेकिन, उसी पैमाने पर हृतिक रोशन शामिल न हो पाए। इतिहास में कई ऐसे कलाकार भी हुए जो हिंदी सिनेमा के फलक पर धूमकेतु की तरह उभरे, जिन्हें ‘द नेक्स्ट बेस्ट थिंग’ तक कहा गया, लेकिन वे कहां खो गए, पता ही नहीं चला। गुजरे दौर में बिश्वजीत, जॉय मुखर्जी और संजय (खान) ने दर्जनों सुपरहिट फिल्में दीं, लेकिन बाद में उनका स्टारडम फीका पड़ गया। निर्देशकों में हरमेश मल्होत्रा और राज कुमार कोहली ने सत्तर और अस्सी के दशक में थोक भाव में हिट फिल्में बनाईं, लेकिन इस अंक में उनके मुकाबले अवतार कृष्ण कौल को तरजीह दी गई, जो सिर्फ एक फिल्म 27 डाउन बनाकर हिंदी सिनेमा के ‘हॉल ऑफ फेम’ में शामिल हो गए। इसके बावजूद जब 1974 में प्रदर्शित फिल्मों में से एक के चुनने की बारी आई, तो अंतिम फैसला कौल के क्लासिक की जगह श्याम बेनेगल के अंकुर के पक्ष में हुआ। गौरतलब है कि उसी वर्ष मनोज कुमार की बहुचर्चित रोटी कपड़ा और मकान भी प्रदर्शित हुई थी।
इस अंक में स्वतंत्रता दिवस के अमृत महोत्सव पर आउटलुक-टोलुना के जनमत सर्वेक्षण के नतीजे भी हैं, जो लोगों, खासकर युवा वर्ग के ‘आजादी और सिनेमा’ के विभिन्न आयामों पर दृष्टिकोण को उजागर करते हैं। लेकिन, इस अंक को तैयार करने की जटिल प्रक्रिया के दौरान जो पहलू सबसे महत्वपूर्ण बनकर उभरा, वह है हिंदी सिनेमा को बनाने में उन हजारों कलाकारों का योगदान जिनकी चर्चा शायद ही होती है। उनमें से कुछ को थोड़ी-बहुत पहचान मिली, लेकिन अधिकतर गुमनाम ही रह गए। हमारा यह अंक उन्हीं कलाकारों को समर्पित है। शोले (1975) फिल्म और उसके मुख्य कलाकारों जैसे संजीव कुमार, धर्मेन्द्र, अमिताभ, हेमा मालिनी, जया भादुड़ी, अमजद खान, ए.के. हंगल, लीला मिश्र और असरानी तो हमारी फेहरिस्त में शामिल हो गए, लेकिन जगदीप, मैकमोहन और विजू खोटे छूट गए। इसके बावजूद शोले के सूरमा भोपाली, सांभा और कालिया को तब तक याद किया जाएगा जब तक लोग ठाकुर, जय-वीरू और बसंती का स्मरण करेंगे। अगर इस फिल्म के सबसे चर्चित किरदार गब्बर सिंह की जुबां में कहें तो ‘बहुत नाइंसाफी है ये!’