अब राजा का बेटा राजा नहीं बनेगा ...अब राजा वही बनेगा जो हकदार होगा! वर्ष 2018 में प्रदर्शित बिहार के गणित शिक्षक आनंद कुमार की जिंदगी पर आधारित फिल्म सुपर 30 में नायक ह्रितिक रोशन का बोला यह संवाद काफी लोकप्रिय हुआ था। विडंबना यह है कि परदे पर कहे गए संवाद से इतर बॉलीवुड की हकीकत बिलकुल अलहदा है। मायानगरी में किसी राजा के बेटे का राजा बनना अब भी अस्वाभाविक नहीं समझा जाता है। स्वयं ह्रितिक रोशन फिल्मी परिवार से हैं।
पृथ्वीराज कपूर से लेकर शोभना समर्थ जैसे श्वेत-श्याम फिल्मों के दौर के बड़े कलाकारों से लेकर समकालीन सुपरस्टारों के बेटे-बेटियों तक फिल्मी खानदानों के वारिसों के अभिनेता-अभिनेत्री बनने का सिलसिला जारी है। हमारी आवरण कथा से जाहिर है, इस वर्ष भी लगभग एक दर्जन से अधिक ऐसे अभिनेता-अभिनेत्रियों का फिल्म इंडस्ट्री में प्रवेश हो रहा है जिनमें अमिताभ बच्चन के नवासे से लेकर शाहरुख खान और श्रीदेवी की बेटियां शामिल हैं। इन नवोदित कलाकारों को न फिल्म निर्माताओं के दफ्तर के चक्कर काटने पड़े हैं और न ही कास्टिंग डायरेक्टर के समक्ष ऑडिशन की कतार में लगना पड़ा है। उनका रुपहले परदे पर आने का पासपोर्ट रसूखदार फिल्मी परिवारों से संबंध ही है। फिल्म इंडस्ट्री पर वर्षों से वंशवाद के बढ़ावे का आरोप लगता रहा है, लेकिन पिछले चार दशकों में यह चलन बढ़ा है। अब तो फिल्मी खानदानों की तीसरी-चौथी पीढ़ियां अपनी पारी शुरू करने को तैयार हैं।
पिछले दिनों अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु के बाद वंशवाद को बढ़ाने के लिए बॉलीवुड को कठघरे में खड़ा किया गया। आरोप लगे कि इंडस्ट्री के कुछ प्रभावशाली लोग सुशांत जैसे कलाकार के आगे बढ़ने में रोड़ा बनते हैं, जिनका किसी फिल्मी खानदान से रिश्ता नहीं होता है। उस घटना ने भीतरी बनाम बाहरी का विवाद खड़ा किया, लेकिन वंशवाद सिर्फ हिंदी सिनेमा उद्योग की देन है यह तथ्यों को नकारने जैसा है। राजनीति से लेकर औद्योगिक घरानों तक हर क्षेत्र में वंशवाद के बीज पनपते रहे हैं। अनगिनत नौकरशाह, जज, वकील, पत्रकार और अन्य पेशेवरों की संतानों ने अपने माता-पिता के पेशे को बगैर किसी विवाद के अपनाया है। कुछ को प्रतियोगिता परीक्षा के माध्यम से सफलता मिली, कुछ को महज परिवार का वारिस होने से।
सियासत में परिवारवाद को प्रश्रय देने का आरोप सबसे पहले कांग्रेस पर लगा। पंडित नेहरू के बाद इंदिरा और इंदिरा के बाद राजीव गांधी के प्रधानमंत्री और पार्टी की कमान अपने हाथों में रखने के कारण कांग्रेस को एक परिवार की पार्टी तक कहा गया। पार्टी के विरोधियों के अनुसार, कांग्रेस में नेहरू-गांधी खानदान से बाहर के किसी व्यक्ति का आगे बढ़ना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। नब्बे के दशक में सीताराम केसरी और हाल में मल्लिकार्जुन खड़गे के पार्टी अध्यक्ष बनने के बावजूद आरोप लगे कि कांग्रेस में सभी निर्णय एक ही परिवार लेता है। कालांतर में लगभग सभी पार्टियां परिवारवाद के आरोप से बच नहीं पाईं, यहां तक कि समाजवाद का परचम लहराती पार्टियां भी, जो लोहिया-जयप्रकाश नारायण के वंशवाद के खिलाफ मुहिम से अस्तित्व में आई थीं। आज के दौर में भाजपा सहित शायद ही कोई राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दल हो जिसके खिलाफ परिवारवाद के आरोपों को पूरी तरह से खारिज किया जा सकता है। हालांकि यह कहना कतई मुनासिब न होगा कि अपने परिवार या खानदान की वजह से आगे आया हर शख्स नाकाबिल होता है। उनमें से कई तो अपने माता-पिता से आगे निकल जाते हैं। राजनीति के अलावा दूसरे क्षेत्रों में भी ऐसी कई मिसालें हैं। इसके साथ-साथ ऐसे भी हजारों उदाहरण हैं कि सिर्फ पारिवारिक संबंध की बदौलत सफलता की गारंटी नहीं मिलती।
बॉलीवुड के साथ भी यही लागू होता है। किसी फिल्मी खानदान से आने के बाद भी कई कलाकार गुमनामी के अंधेरे में खो गए। उनमें से कई तो दिग्गज कलाकारों की संतान थे। इसके विपरीत, शाहरुख खान जैसे कई ऐसे स्टार बने जिनके परिवार का फिल्मों से कुछ लेना-देना नहीं था। उन्होंने सिर्फ अपनी योग्यता और मेहनत के बल पर अपना मुकाम बनाया। लेकिन आज सिर्फ उनके रुतबे की वजह से यह नहीं कहा जा सकता कि उनके बेटे या बेटी भी सुपरस्टार बन सकते हैं। इसके लिए उन्हें अपनी काबिलियत और हुनर साबित करना पड़ेगा। परिवार के बल पर कोई नया कलाकार फिल्मों में प्रवेश तो पा सकता है, लेकिन अपने आप को साबित करने के लिए उसे उतना ही दमखम दिखाना होगा जितना फिल्म इंडस्ट्री से बाहर से आए किसी संघर्षरत अभिनेता को। अगर ऐसा नहीं होता तो इरफान, मनोज बाजपेयी, पंकज त्रिपाठी, राजकुमार राव सरीखे अभिनेता सफल न होते और ह्रितिक रोशन, रणबीर कपूर और आलिया भट्ट जैसे फिल्मी परिवारों से आने वाले कलाकारों को दर्शक नकार देता। बॉलीवुड में भी सफलता की आखिरी कसौटी सिर्फ और सिर्फ योग्यता ही है, जो परदे पर साफ-साफ झलकती है। खानदान का ठप्पा परदे तक तो पहुंचा सकता है, लेकिन उसके आगे की तकदीर का फैसला सिर्फ दर्शकों के हाथ में होता है। वे किस खानदान के जानशीन हैं, यह मायने नहीं रखता।