मीडिया की दुनिया पिछली सदी का अंत होते-होते जब ब्लैक ऐंड वाइट से रंगीन होने लगी, तो कुछ संपादकों का ध्यान अचानक इस बात पर गया कि उनके अखबारों के पहले पन्ने पर रोज प्रकाशित होने वाले संक्षिप्त समाचारों के कॉलम में सिर्फ मौत की खबरों को प्रमुखता दी जाती थी। किसी चर्चित शख्सियत का निधन, सड़क दुर्घटना में मृत्यु, विमान दुर्घटनाग्रस्त जैसी खबरें उस स्तंभ के लिए सबसे मुफीद समझी जाती थीं। वर्षों से चला आ रहा यह सिलसिला रंगीन समाचारपत्रों के दौर में थम गया। नए मिजाज के अखबारनवीसों को शायद लगा कि श्वेत-श्याम पन्नों पर तो वैसी खबरों का औचित्य ठहराया जा सकता था, लेकिन बदलते जमाने में नए तेवर और नए कलेवर वाले सुंदर दिखने वाले रंगीन अखबारों में वैसी खबरें पाठकों की आंखों को खटक सकती हैं। उदारीकरण और खुले बाजार के दौर में समृद्ध होते मध्य वर्ग को सुबह की चाय के साथ निराशावादी सुर्खियां परोसने की मनाही हो गई।
उसके बाद उस कॉलम में सकारात्मक खबरों का सिलसिला शुरू हुआ। संपादकीय बैठकों में आम सहमति बन गई कि अखबारों को इतना ‘संवेदनशील’ तो होना ही पड़ेगा, ताकि पाठकों के दिन का आगाज अच्छी खबरों से हों। उसके बाद ‘पांच मरे दस घायल’ जैसी खबरें अंदर के पन्नों में ‘फिलर’ बन कर सिमट गईं और धीरे-धीरे वहां से भी गायब हो गईं। आम आदमी का सड़क दुर्घटना में मरना खबर ही न रहा। यह आशावादी सोच थी या हकीकत को नजरअंदाज करने की गलती, इस पर शायद ही कभी बहस हुई हो। इतना जरूर हुआ कि दफ्तरों में बैठने वाले समाचार संपादकों से लेकर फील्ड वर्क कर रहे संवाददाताओं पर सकारात्मक खबरें ढूंढ़ने का दबाव बढ़ गया। कम से कम पहले पन्ने के ‘बॉटम’ पर तो ऐसी खबर होनी ही चाहिए, जो सुबह-सुबह पाठकों को मकईबाड़ी चाय के प्याले से ज्यादा स्फूर्ति दे सके। लेकिन, उससे एक नई समस्या का जन्म हुआ। उस दौर तक अखबारों में ‘बैड न्यूज इज गुड न्यूज’ की संस्कृति कायम थी। जिस दिन किसी बड़ी दुर्घटना, प्राकृतिक आपदा, किसी नामचीन हस्ती की हत्या या किसी आतंकवादी हमले की खबर आती, उस रात पहले पन्ने के लिए बैनर हैडलाइन मिल जाती। उन दिनों यह धारणा थी कि खबरें खबरें होती हैं, अच्छी या बुरी नहीं और पाठकों को हर घटना से अवगत कराना जरूरी है।
इसके विपरीत, बदले दौर में ‘गुड न्यूज’ ढूंढ़ने का टेंशन बढ़ गया। शुरुआती दिनों में उसके आशातीत परिणाम मिले। गांव-कस्बों से सकारात्मक खबरें आने लगीं। कहीं कोई नौजवान वंचित वर्ग के छात्रों को आइआइटी दाखिले कराने की मुहिम में जुटा मिला तो कोई रेलवे प्लेटफार्म पर कूड़ा बीनने वाले बच्चों को मुफ्त तालीम देते दिखा। देश को मीडिया की बदौलत हजारों ‘गेम चेंजर’ मिले जो अपनी धुन में मगन अपने लक्ष्य की प्राप्ति में लगे रहे। वे बस निःस्वार्थ भावना से समाज के लिए काम कर रहे थे। अधिकतर ये वैसे लोग थे, जिन्हें यह भी पता नहीं था कि उनका नाम और काम अब सुर्खियां बनने वाली थीं। उनका मूल मंत्र ‘नेकी कर मीडिया में डाल’ नहीं था।
लेकिन, क्या पत्र-पत्रिकाओं की सुर्खियों में कथित बुरी खबरों को तवज्जो न देने से समाज में स्थितियां बदलीं? क्या हत्या, बलात्कार, जालसाजी, गबन, दंगों, स्त्री अधिकार हनन, ऑनर किलिंग, मॉब लिंचिंग, पुलिस हिरासत में मौत जैसी घटनाएं कम हुईं? क्या प्रेरणादायक खबरों की बहुतायत ने अखबारों को ज्यादा पठनीय और आकर्षक बनाया? शायद ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि हरेक गुड न्यूज की चमक के पीछे समाज के बैड न्यूज का स्याह सच बदस्तूर पढ़ने और सुनने को मिलता रहा, जिसे किसी भी दौर के मीडिया के लिए दरकिनार कर देना मुश्किल था। मीडिया के लिए यह वाकई आदर्श स्थिति होती अगर नेगेटिव न्यूज से ज्यादा सकारात्मक खबरों को प्रकाशित या प्रसारित करने का अवसर हमेशा मिलता।
इस अंक की हमारी आवरण कथा को ही देखें। हर वर्ष देश से हजारों बच्चे आंखों में डॉक्टर बनने का सपना संजोये मेडिकल की पढ़ाई करने सुदूर देशों में जाते हैं। उनमें अधिकतर डिग्री लेकर वापस आते हैं और समाज को अपनी सेवाएं देते हैं। यह प्रेरणा देने वाली खबर है। लेकिन भ्रष्ट व्यवस्था का साया ऐसे सपनों पर भी पड़ रहा है। व्यवस्था की खामियों का फायदा उठाकर उनमें से कुछ शॉर्टकट से सफलता पाने के लिए जालसाजी का सहारा लेते हैं। लेकिन, क्या सिर्फ वही जिम्मेदार हैं या वे भी जो इसकी पृष्ठभूमि तैयार करते हैं? गौरतलब है कि बीस वर्ष पूर्व मेडिकल संस्थानों में दाखिले की परीक्षाओं के पर्चे लीक कराकर या छद्म उम्मीदवार की मदद से एमबीबीएस की डिग्री दिलाने वाले एक देशव्यापी गिरोह का पर्दाफाश हुआ था। दस वर्ष पूर्व मध्य प्रदेश में व्यापम जैसा बड़ा घोटाला हुआ, लेकिन ताजा घटनाओं से लगता है कि कुछ स्थितियां मानो कभी बदलती ही नहीं हैं। उम्मीद है, इस बार सीबीआइ की जांच महज जांच नहीं रह जाएगी और इस नए पास-फेल घोटाले की तह तक जाकर उन सबको सजा दिलाएंगी, जो इसके असली जिम्मेदार हैं।