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प्रथम दृष्टि : मतदाता का मन

कोई भी मजबूत या कमजोर पार्टी मतदाता को हल्के में नहीं ले सकती। भारतीय लोकतंत्र की यही सबसे बड़ी खूबसूरती है
मतदाताओं के मन को समझना आसान नहीं

भारत में चुनाव नतीजों की भविष्यवाणी करना ‘आ बैल मुझे मार’ जैसी स्थिति में खुद को डालने जैसा है। दिग्गज से दिग्गज चुनावशास्त्री मतदान के परिणाम से पहले गुफा के बाहर खड़े अलीबाबा की तरह होते हैं जिन्हें आम जनता के ‘खुल जा सिम सिम’ कहने का इंतजार रहता है। इतने विशाल देश में चाहे कितने भी ओपिनियन पोल या एग्जिट पोल कर लें, चुनावों के सटीक नतीजे बताना अंततः टेढ़ी खीर ही साबित होता है। अधिकतर भविष्यवाणियां अंधेरे में तीर चलाने जैसी होती हैं। कभी जिस दल की जीत को अवश्यंभावी बताया जाता है, वह औंधे मुंह गिर जाता है; कभी जिसकी पराजय निश्चित समझी जाती है, वह आसानी से सरकार बना लेता है।

लेकिन, कुछ परिणाम ऐसे भी होते हैं जिनके नतीजों का सटीक पूर्वानुमान करना किसी के लिए बाएं हाथ का खेल होता है। मतदाताओं के ईवीएम का बटन दबाने के हफ्तों पूर्व जमीनी स्थिति का आकलन करने पर यह आसानी से पता चल जाता है कि हवा किस ओर बह रही है। गुजरात विधानसभा चुनाव में इस बार यही हुआ। शायद ही किसी विश्लेषक को इस बात से इनकार था कि भारतीय जनता पार्टी प्रदेश में एक बार फिर से सरकार बनाने जा रही है। बहस और भविष्यवाणियां सिर्फ जीत के फासले के इर्द-गिर्द घूम रही थीं। इसके बावजूद जिस तरह का प्रचंड बहुमत भाजपा को मिला, उसका अनुमान शायद वहां सत्तारूढ़ दल ने भी नहीं किया होगा। आखिरकार पांच साल पूर्व पिछले चुनाव में कांग्रेस ने कड़ी टक्कर दी थी और 182 सीटों वाली विधानसभा में भाजपा 99 सीटों पर सिमट गई थी, कांग्रेस से महज 22 अधिक। यही कारण था कि कुछ विश्लेषकों को उम्मीद थी कि इस बार कांग्रेस पूरे दमखम से चुनाव में उतरेगी और भाजपा के 27 साल से चले आ रहे विजयरथ को रोकेगी। लेकिन हुआ इसका बिलकुल उल्टा और कांग्रेस ने राज्य के इतिहास में अपना सबसे खराब प्रदर्शन दर्ज किया। भाजपा की जीत भले चौंकाने वाली कतई न हो, लेकिन कांग्रेस की इस तरह की दुर्गति बिलकुल हैरान करने वाली है। ऐसा लगता है मानो पार्टी को परिणाम आने के पूर्व ही इसका अंदेशा हो गया था।

आखिर इसके क्या कारण हैं? प्रथम दृष्टि में इस जीत का सेहरा सिर्फ और सिर्फ नरेंद्र मोदी को जाता है। भले ही वे देश के प्रधानमंत्री हों, लेकिन उनके गृहराज्य में हो रहे चुनावों को उनसे अलग कर के नहीं देखा जा सकता। मानो गुजरात में भाजपा की आधी जीत महज इस बात से तय हो जाती है कि प्रधानमंत्री उस राज्य से आते हैं। अधिकतर गुजरातियों के लिए यह निस्संदेह फख्र की बात है, लेकिन विकास के गुजरात मॉडल और मुद्दे के सवालों से इतर, अगर सिर्फ भावनात्मक जुड़ाव से ही चुनाव जीते जाते तो बाकी राज्यों में भी अन्य दलों को ऐसे परिणाम पूर्व में देखने को मिलते, जिनके नेता प्रधानमंत्री बने। इस कसौटी पर तो उत्तर प्रदेश को कांग्रेस का गढ़ रहना चाहिए था, जिसने नेहरू-गांधी खानदान के अलावा लालबहादुर शास्त्री जैसे प्रधानमंत्री दिए।

लेकिन शायद ही कोई पूर्व प्रधानमंत्री राजनीतिक रूप से अपने गृहराज्य से उतना जुड़ा रहा, जितना मोदी रहे हैं। जहां पूर्व के कई प्रधानमंत्री देश की बागडोर संभालने के बाद तमाम व्यस्तताओं के कारण अपने-अपने राज्यों से धीरे-धीरे दूर होते गए, मोदी का गुजरात से वैसा ही नाता बना रहा जैसा उनके मुख्यमंत्रित्व काल में था। इसलिए मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने गुजरात में चुनाव की तैयारी में इस बार भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। पिछले चुनाव में आशा के अनुरूप प्रदर्शन न करने के बाद पार्टी ने मुख्यमंत्री बदलने से लेकर कई विधायकों के टिकट काटने जैसी रणनीतियां बनाईं, ताकि पिछली बार जैसी स्थितियां न बनें। पिछले चुनाव से भाजपा ने तुरंत सबक लिया। इसके विपरीत, कांग्रेस ने 2017 के चुनाव के बेहतर परिणाम को इस बार भुनाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। राहुल गांधी ने बस नाममात्र की रैलियां कीं और उनका सारा ध्यान अपनी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ पर केंद्रित रहा। लेकिन, यह यात्रा न गुजरात से गुजरी, न ही हिमाचल से, जहां चुनाव होने थे। इसके पीछे की सोच जो भी रही हो, वहां की जनता में यह संदेश तो गया ही होगा कि वे शायद उनके राज्यों में होने वाले चुनावों के प्रति बेपरवाह हैं। जो भी हो, कम से कम गुजरात में तो यही दिखा कि कांग्रेस पिछले चुनावों में अपने उत्साहवर्धक प्रदर्शन के बावजूद न सिर्फ अपने संगठन में जान नहीं फूंक सकी, बल्कि अपने कार्यकर्ताओं को भी यह भरोसा नहीं दिला सकी कि वह चुनाव में भाजपा को हराने के लिए दृढसंकल्प है। यह उस पार्टी के लिए घातक है जिसकी टक्कर उस पार्टी से है जो अपने आप को चुनाव के लिए सदैव तैयार रखती है।

अगले वर्ष कई राज्यों में चुनाव होने हैं और फिर 2024 की बड़ी जंग होगी। गुजरात में नाकामी के बावजूद  कांग्रेस को हिमाचल विधानसभा और दिल्ली नगर निगम के चुनाव परिणामों से यह समझना चाहिए कि मतदाताओं के मन को समझना आसान नहीं और कोई भी मजबूत या कमजोर पार्टी उन्हें हल्के में नहीं ले सकती। भारतीय लोकतंत्र की यही सबसे बड़ी खूबसूरती है।

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