देश या समाज का हीरो सिर्फ वह ओजस्वी वक्ता या जननायक नहीं, जिसे देखने और सुनने के लिए हजारों की भीड़ उमड़ती है। सोशल मीडिया इनफ्लुएंसर भी नहीं, जिनके फॉलोअर लाखों की तादाद में होने के दावे किए जाते हैं। न रुपहले परदे का हरदिल अजीज हीरो, जिसकी झलक पाने के लिए हर रोज भारी संख्या में उसके मुरीद इक्कट्ठे होते हैं। न विश्व कप चूमता कोई विजयी क्रिकेट कप्तान। कुछ हीरो आम से भी आम भी होते हैं, लेकिन वे कुछ ऐसा खास कर जाते हैं जिससे उनका शुमार बड़े-बड़े महानायकों की श्रेणी में हो जाता है। वे हमारे आसपास तो होते हैं लेकिन उनकी असाधारण शख्सियत और हुनर के बारे में हमें तब तक पता नहीं चलता जब तक कोई त्रासदी हमें घेर नहीं लेती। वे वैसे दिलेर लोग होते हैं, जो वक्त आने पर सामने आते हैं, मुसीबत में फंसे लोगों की जान बचाने के लिए अपनी जान पर खेल जाते हैं और फिर वापस चुपचाप नेपथ्य में चले जाते हैं। कोई बोरवेल में फंसे बच्चे को बाहर निकाल कर लौटता है, तो कोई दो पहाड़ियों के बीच अटकी केबल कार में फंसे परिवार के लिए संकटमोचन बनकर आता है। कहीं कोई आग की लपटों से घिरे बहुमंजिली इमारत में किसी दंपती को आंच नहीं आने देता, तो कोई बाढ़ में डूबते वृद्धजन को सुरक्षित स्थानों तक पहुंचाता है। ये सब ‘फेसलेस हीरो’ होते हैं, जिनकी बहादुरी के लिए कोई सालाना जलसा आयोजित नहीं होता, न ही उन्हें कोई मेडल देने की जहमत उठाई जाती है। कुछ दिन तो उनके शौर्य के कसीदे जरूर पढ़े जाते हैं लेकिन वे फिर हमारी स्मृतियों से ओझल हो जाते हैं। उनकी याद फिर तभी आती है जब कोई दूसरा हादसा होता है और उनकी जरूरत एक बार फिर होती है।
पिछले महीने ऐसे ही कुछ हीरो की जरूरत हमें तब हुई जब उत्तराखंड में 41 मजदूरों की जान पर बन आई। ये मजदूर उत्तरकाशी के सिल्क्यारा में चारधाम ऑल-वेदर रोड परियोजना की निर्माणाधीन सुरंग में काम कर रहे थे। केंद्र और राज्य सरकारों ने युद्ध स्तर पर उनके बचाव के लिए तमाम आधुनिक साधन और संसाधन का उपयोग किया, विदेशी तकनीकी विशेषज्ञों की सहायता तक ली गई लेकिन जब सारे प्रयत्न विफल हो गए और भारी अनहोनी की आशंका होने लगी तब ऐसे शेरदिल मजदूरों के एक समूह को त्राहिमाम संदेश देकर बुलाया गया जिसकी मीडिया में पहचान महज ‘रैट-होल माइनर’ के रूप में की जाती है। ऐसे बारह जांबाजों की मदद से अंततः 26 घंटों की जद्दोजहद के बाद सभी मजदूरों को सुरंग से सुरक्षित बाहर निकाल लिया गया। जब मशीन उन तक नहीं पहुंच पाई, तब तो एक संकरे पाइप में रेंगते हुए इन ‘रैट-होल माइनर’ ने अपने हाथों से 40 मीटर तक के मलबे को हटा कर उन्हें बचाया।
विडंबना है कि जिस पुरानी विधि द्वारा उन्हें बचाया गया उसके खतरे को देखते हुए राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने लगभग दस वर्ष पूर्व प्रतिबंधित कर दिया था। आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2007 से 2014 के बीच लगभग 225 रैट माइनर की मौत हुई थी। लेकिन जब आपदा और आपातकाल की स्थिति आती है, तो उसी के मुताबिक निर्णय लिए जाते हैं। दरअसल ब्रिटिश काल से ही रैट-होल माइनिंग का लंबा इतिहास रहा है। इसका प्रयोग मेघालय से लेकर झारखंड तक अधिकतर राज्यों में कोयले के अवैध खनन में होता रहा है। इसके कारण अब तक सैकड़ों लोग जान गंवा चुके हैं। इसी वजह से इसे प्रतिबंधित कर दिया गया था। लेकिन अभी भी ऐसे लोग है, जिन्हें इसका लंबा अनुभव है और ये इस काम में कुशल हैं। यह कौशल इस बार दूसरों की जान बचाने के काम आया। इस पूरे ऑपरेशन का सबसे खुशनुमा पहलू यह था कि सूचना मिलने पर रैट माइनर कहे जाने वाले किसी भी व्यक्ति ने एक पल भी यह सोचने में नहीं गंवाया कि उन्हें ऐसे मिशन पर जाना चाहिए या नहीं, जिसमें उनकी अपनी जान पर भी खतरा हो सकता था। उनके कुछ परिजनों को जरूर आशंकाएं थीं लेकिन उनके लिए उन साथी मजदूरों की जान बचाने से बड़ा कर्तव्य कुछ और न था, जो जिंदगी और मौत की जंग लड़ रहे थे। उन्हें तो यह भी नहीं पता था कि इस काम के लिए उन्हें कितने पैसे या पुरस्कार मिलेंगे। उनके लिए बस यह एक चुनौतीपूर्ण मिशन था जिसके लिए उनका चुना जाना उनके लिए सौभाग्य का अवसर था। इसलिए हरेक ने अपनी निजी जिंदगी की दुश्वारियों को भुला दिया और अपने घरों से निकल गए।
गौरतलब है, उनके पास अपनी आजीविका या रोजगार के नियमित साधन नहीं हैं और घर-परिवार के गुजर-बसर के लिए उन्हें असंगठित क्षेत्र के हर मेहनतकश मजदूर की तरह रोजमर्रा के संघर्ष से दो-चार होना पड़ता है। उन्हें पता था कि इस मिशन के सफल होने के बाद भी उनकी अपनी जिंदगी में बहुत कुछ बदलने वाला नहीं। उन्हें कुछ दिनों बाद वैसे ही भुला दिया जाएगा जैसे इस तरह की हर आपदा के बाद उनके जैसे कई नायकों को भुला दिया जाता है। यही कारण है आउटलुक के इस अंक में हमने इन महानायकों को साल का सुपर हीरो बनाया है, ताकि न सिर्फ उन्हें याद रखा जाए बल्कि उनके जीवन में सुधार की पहल की जाए।