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प्रथम दृष्टि: सिनेमा के दो रूप

भारतीय दर्शकों को बड़े सितारों की मसाला फिल्मों से परहेज नहीं है। कंटेंट-प्रधान फिल्मों की चुनौतियां अब भी बरकरार हैं। इसके बावजूद कलात्मक फिल्म बनाने वालों के हौसले पस्त नहीं होते। अच्छी फिल्मों के लिए उम्मीद जगाने के लिए यही काफी
कंटेंट-प्रधान फिल्मों की चुनौतियां अब भी बरकरार हैं

कला या कैश? मनमोहन देसाई या मणि कौल? हर फिल्म उद्योग की तरह भारतीय सिनेमा में भी यह सवाल निरंतर मौजूं बना रहा है। सत्तर के दशक में जब अमर अकबर एंथनी (1977) जैसी व्यावसायिक फिल्म के निर्देशक मनमोहन देसाई एक साल में चार सुपरहिट फिल्मों का निर्माण रहे थे, उस समय सिनेमा-प्रेमियों का एक वर्ग ऐसा भी था जो उनकी मसाला फिल्मों को कला की तौहीन के रूप में देखता था। उनके आदर्श मणि कौल जैसे प्रयोगधर्मी फिल्मकार थे जिन्होंने व्यावसायिक सिनेमा के उत्कर्ष के दौर में भी उसकी रोटी (1969) और आषाढ़ का एक दिन (1971) जैसी उत्कृष्ट ‌िफल्में बनाईं। उनका मानना था कि सिनेमा कला का ऐसा नायाब माध्यम है जिसे बाजारवाद की कसौटी पर कभी नहीं तौला जा सकता। मनमोहन देसाई समानांतर सिनेमा के पैरोकारों की खुलेआम खिल्ली उड़ाते थे। वे कहते थे कि ऐसी फिल्म बनाने का क्या मतलब जिसे देखने चार दर्शक भी थियेटर न पहुंचें।

आश्चर्य नहीं कि जिस इंडस्ट्री में सफलता का आखिरी पैमाना बॉक्स ऑफिस रहा हो, तूती देसाई की बोलती न कि मणि कौल की। सवाल यह है कि इतिहास के पन्नों में जब भारतीय सिनेमा के दिग्गज फिल्मकारों का नाम आएगा तो उसमें मणि कौल का नाम ऊपर आएगा या मनमोहन देसाई का?

आखिरकार कला के हर माध्यम की तरह सिनेमा की गुणवत्ता की असली पहचान समय की कसौटी पर ही की जा सकती है। हाल में दिवंगत कुमार शहानी ने अपनी पहली ही फीचर फिल्म माया दर्शन (1972) से अपना लोहा मनवाया। अवतार कृष्ण कौल ने सिर्फ एक ही फिल्म 27 डाउन (1974) बनाई लेकिन वे अपनी प्रतिभा की अमिट छाप छोड़ गए। इसमें शक नहीं कि जब भी भारत में बनी कलात्मक फिल्मों को जिक्र होगा तो उनका नाम बड़े आदर के साथ लिया जाएगा। इसके विपरीत, बॉलीवुड में दर्जनों ऐसे निर्देशक हुए जिन्होंने एक के बाद एक सुपरहिट मसाला फिल्म बनाई, जिन्हें अपने दौर में बेशुमार दौलत और शोहरत तो मिली लेकिन बाद में उन्हें याद नहीं रखा गया।

भारतीय सिनेमा में कला बनाम मसाला फिल्मों का विवाद नया नहीं है। मदर इंडिया (1957) से चर्चित अभिनेत्री नरगिस ने एक बार पाथेर पांचाली (1955) से मशहूर हुए सत्यजित राय पर उनकी फिल्मों के माध्यम से भारत की गरीबी दिखाने का आरोप लगाकर सनसनी फैला दी थी जबकि राय के प्रशंसक उन्हें कलात्मक और यथार्थवादी सिनेमा का सर्वश्रेष्ठ फिल्मकार मानते थे। ऐसे भी फिल्मकार हुए जिन्होंने व्यावसायिक फिल्मों के दायरे में कई कलात्मक फिल्में बनाईं। महबूब खान, के. आसिफ, गुरुदत्त, राज कपूर, बिमल रॉय, हृषिकेश मुखर्जी, मणिरत्नम जैसे निर्दाशकों की फिल्में कलात्मक भी होती थीं और बॉक्स ऑफिस पर अच्छा मुनाफा भी कमा लेती थीं। उनके लिए यह जरूरी नहीं था कि व्यावसायिक फिल्में कलात्मक दृष्टिकोण से कमजोर हों या कलात्मक फिल्में दर्शकों को सिनेमाघरों तक लाने में असफल हों, लेकिन भारतीय सिनेमा के इतिहास में ऐसे फिल्मकार कम ही हुए जिनकी फिल्मों को समीक्षकों और दर्शकों ने समान रूप से सराहा। 

भारतीय सिनेमा में मसाला फिल्मों का बोलबाला दशकों तक चला लेकिन नई सदी में दर्शकों की ऐसी पीढ़ी का उदय हुआ जो आम लोगों के जीवन से जुड़ी कंटेंट-प्रधान फिल्मों को पसंद करने लगी। पिछले दो दशक में बड़े बजट की कई फिल्में फ्लॉप हो गईं और कई कथित रूप से छोटी कही जाने फिल्में सुपरहिट साबित हुईं। 2010 के आसपास ऐसी फिल्मों का बोलबाला शुरू हुआ और यह माना जाने लगा कि भारतीय सिनेमा में वर्षों पुराना स्टार सिस्टम खत्म हो जाएगा और स्क्रिप्ट ही स्टार बन जाएगा। पिछले साल यह उम्मीद टूट गई जब बड़े सितारों की कई औसत फिल्मों ने शानदार कामयाबी दर्ज की। उनके समानांतर प्रदर्शित होने वाली कई छोटे बजट की बेहतरीन फिल्में थियेटर में दर्शकों का बाट जोहती रहीं। इसका एक उदाहरण रणबीर कपूर की एनिमल है। फिल्म में हिंसा के चित्रण और महिला विरोधी दृश्यों को लेकर विवाद हुआ लेकिन इससे उसकी व्यावसायिक सफलता पर कोई फर्क नहीं पड़ा। दूसरी ओर, मनोज बाजपेयी अभिनीत जोरम को थियेटर में दर्शक नहीं मिले जबकि उसे कई अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में सराहना मिली थी।

इससे पहला निष्कर्ष यह निकाला जा सकता है कि भारतीय दर्शकों को अब भी बड़े सितारों की मसाला फिल्मों से परहेज नहीं है, बशर्ते वे उनका मनोरंजन कर सकें। दूसरा यह कि कंटेंट-प्रधान फिल्मों की चुनौतियां अब भी बरकरार हैं। उन्हें न तो मल्टीप्लेक्स में पर्याप्त संख्या में स्क्रीन मिलते हैं, न ही प्रमोशन के लिए राशि। ऐसे हालात में उन्हें थियेटर तक पहुंचने में काफी जद्दोजहद करना पड़ती है। सौ में एकाध फिल्म ही ऐसी होती है जो दर्शकों को आकर्षित करने में सफल होती हो। अच्छी बात यह है कि इसके बावजूद कलात्मक फिल्म बनाने वालों के हौसले पस्त नहीं होते। अच्छी फिल्मों के लिए उम्मीद जगाने के लिए यही काफी है।

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