चुनाव आयोग ने बीते 16 अगस्त को जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव कराने की घोषणा की तो कई लोगों को हैरानी हुई। हैरानी होनी नहीं चाहिए थी क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल आयोग से कहा था कि कश्मीर में 30 सितंबर, 2024 तक चुनाव संपन्न करा लिए जाएं। पिछले कई वर्षों से आरोप लग रहे थे कि नरेंद्र मोदी सरकार की घाटी में चुनाव कराने में दिलचस्पी नहीं है। शक जताया जाता रहा कि दिल्ली हुकूमत किसी भी सूरत में कश्मीर में लंबे समय तक चुनाव नहीं होने देगी। ऐसा नैरेटिव केंद्र सरकार के अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 के निरस्त करने और राज्य को दो केंद्र शासित क्षेत्रों– जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में बांट देने से तैयार हुआ। बाद में परिसीमन आयोग का भी गठन किया गया, जिसकी रिपोर्ट के आधार पर जम्मू-कश्मीर विधानसभा की सीटों का पुनर्गठन हुआ। इससे जम्मू क्षेत्र में छह नए विधानसभा क्षेत्र बने, जबकि घाटी में एक सीट की बढ़ोतरी हुई। इससे मोदी सरकार की मंशा पर सवाल खड़े किए गए। कहा गया, परिसीमन आयोग का गठन भाजपा को मजबूत करने और घाटी में उन पार्टियों को कमजोर करने के लिए किया गया था, जिनका वर्चस्व वहां वर्षों से रहा है।
तमाम विवादों के बीच चुनावों की घोषणा से उम्मीद जगी है कि जम्मू-कश्मीर में फिर लोकतांत्रिक तरीके से चुनी सरकार का गठन हो पाएगा। कश्मीर में पिछला विधानसभा चुनाव दस वर्ष पूर्व हुआ था। 2018 से वहां राष्ट्रपति शासन है। पांच वर्ष पहले अनुच्छेद 370 निरस्त होने के बाद घाटी में स्थितियां असामान्य होने की आशंकाओं के मद्देनजर केंद्र सरकार ने वहां सुरक्षा के व्यापक प्रबंध किए और स्थानीय स्तर पर हो रहे तमाम विरोधों के बावजूद हालात काबू में रखे। घाटी में आतंकवाद की जड़ें कमजोर हुईं और कश्मीर का पर्यटन उद्योग वापस पटरी पर लौटा। इसका श्रेय निस्संदेह मोदी सरकार को जाता है, जिसकी आतंकविरोधी नीतियों के कारण सीमापार से घुसपैठियों के संख्या में भी भारी कमी आई।
अतीत में दिल्ली में सरकार किसी की भी रही हो, सबके लिए पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद और बढ़ता उग्रवाद सिरदर्द बना रहा। कई दशक से घाटी में अस्थिरता का माहौल रहा, जिसके कारण वहां समुचित विकास नहीं हो पाया। उस दौर में कई लोकसभा और विधानसभा चुनाव हुए लेकिन उन पर हमेशा आतंकवाद का साया बना रहा। चुनाव आयोग ने घाटी में चुनाव करवाने के लिए हमेशा भारी संख्या में सुरक्षाबलों को तैनात किया। इसके बावजूद आतंकवादी गुटों के चुनावों के बहिष्कार के फरमान से मतदान प्रतिशत बेहद कम रहा। कुछ चुनावों में तो वोट प्रतिशत इतने कम रहे कि पूरी प्रक्रिया पर प्रश्नचिन्ह लगते रहे। वैसे, 2014 के विधानसभा चुनावों में अच्छा-खासा वोट पड़ा था, लेकिन बाद में स्थितियां बिगड़ गईं। तो, क्या इस बार भी खासकर घाटी के लोगों में सरकार चुनने के लिए उतना ही उत्साह दिखेगा?
इस वर्ष लोकसभा चुनावों में कश्मीर के अवाम ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया, तो आशा की किरण झलकी है। कभी आतंकवाद, उग्रवाद और अलगाववाद के पैरोकारों का चारागाह समझे जाने वाले अनंतनाग और बारामूला में 55 से 60 प्रतिशत मतदान होना बदलाव का प्रतीक है। इस चुनाव के परिणाम से ज्यादा महत्वपूर्ण यह रहा कि लोगों ने बेखौफ मतदान किया। मतदाताओं की लंबी कतारों से भी लगा कि चुनाव के बहिष्कार का फरमान जारी करने वाले भारत-विरोधी गुटों और उनके आकाओं की कमर टूट चुकी है।
फिर भी, चुनाव आयोग की असली अग्निपरीक्षा तीन फेज में होने वाले इस विधानसभा चुनाव में होगी। अनुच्छेद 370 निरस्त होने के बाद घाटी में पहली बार विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। गेंद अब वहां की अवाम के पाले में है। उन्हें अपनी पसंद की सरकार चुनने का फिर मौका मिला है। किसी भी दूसरे प्रदेश की जनता की तरह कश्मीर के आम लोग भी अमनपसंद हैं, जिनके सामने अब लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शिरकत कर देश और दुनिया को सार्थक संदेश देने का अवसर है। चुनाव बहिष्कार के दौर में संगीनों के साये में हुए मतदान से कश्मीर को कुछ हासिल नहीं हुआ। उदारवाद और वैश्वीकरण के कारण जहां देश के कई अन्य राज्यों ने प्रगति की, कश्मीर आतंकवाद से जूझता रहा। इसलिए इस चुनाव में कश्मीर की अवाम के पास एक मौका है कि मतदान के दिन भारी संख्या में बाहर निकलकर अपने इलाके की प्रगति के लिए वोट करें।
कश्मीर के विकास के लिए कौन-सा दल या गठबंधन बेहतर काम कर सकता है, यह चुनने का अधिकार सिर्फ वहां के लोगों को है। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि आगामी 4 अक्टूबर को घोषित होने वाले परिणाम के बाद कौन-सी पार्टी सत्ता में आती है; महत्वपूर्ण यह है कि इस चुनाव का मत प्रतिशत लोकसभा चुनावों से बेहतर हो ताकि बहुमत के अनुसार वहां ऐसी सरकार बन सके, जो स्थानीय लोगों की आशाओं और आकांक्षाओं के अनुरूप पांच वर्षों तक काम कर सके।