प्रतिभा की अपनी एक विशिष्टता है। कोई भी क्षेत्र हो, उसे पनपने से कोई नहीं रोक सकता, न ही उसे खिलने के लिए किसी विशेष मिट्टी, खाद या आबोहवा की जरूरत होती है। कुछ समय पहले एक पुरानी जर्जर इमारत के प्रवेश-द्वार पर जंग लगे ताले में से एक कोपल के फूटने की तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हुई थी। आदमी के हुनर की तुलना उस छोटे पौधे से की जा सकती है। परिस्थितियां कैसी भी हों, जिसे खिलना है वह खिलकर रहेगा। यही उसकी खासियत है।
कला और संस्कृति के क्षेत्र में न जाने कितने नायाब उदाहरण उन हस्तियों के हैं, जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों से लड़कर सिर्फ और सिर्फ अपने फन की बदौलत समाज में अपना मुकाम बनाया। भारतीय सिनेमा के इतिहास में भी न जाने कितने कलाकार हुए, जो आंखों में सपने और अपने अरमानों को मुट्ठी में बांधे मायानगरी में आए थे। कोई रेलवे प्लेटफॉर्म पर भूखे पेट सोया, किसी ने झुग्गी-झोपड़ी में अपना आशियाना बनाया तो किसी ने छोटे-मोटे काम करके रोजी-रोटी कमाई, ताकि उसका संघर्ष जारी रहे। उन्होंने कला के प्रति जुनून की धार कुंद नहीं होने दी। जिसने हौसला रखा उसे अकूत दौलत और बेमिसाल शोहरत मिली।
लेकिन, हाल के वर्षों में इसी फिल्म इंडस्ट्री में खासकर बॉलीवुड में ऐसा लगा, मानो प्रतिभा का कोई मोल नहीं है। सफलता और स्टारडम के लिए अभिनय क्षमता से अधिक निजी रिश्ते और सोशल नेटवर्किंग की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। पिछले ढाई दशक में जब मल्टीप्लेक्स का दौर शुरू हुआ, इंडस्ट्री में ऐसे रिश्तों की अहमियत फिल्मों में निभाए जाने वाले किरदारों की अहमियत पर भारी पड़ने लगी।
इसी कारण बॉलीवुड के कई बड़े निर्माता-निर्देशकों पर भाई-भतीजावाद के आरोप लगने लगे। कहा जाने लगा कि फिल्म इंडस्ट्री में बाहर से आए कलाकारों के लिए रत्ती भर जगह नहीं है। अधिकतर भूमिकाओं के लिए उन्हें ही चुना जाता रहा जिनकी रसूख वाले फिल्मकारों या फिल्म निर्माण करने वाले कंपनियों के आला अधिकारियों से नजदीकी जान-पहचान हो। फिर ऐसी स्थिति में उन कलाकारों का क्या जो महज अपनी प्रतिभा के बल पर फिल्म उद्योग में अपनी पैठ बनाने आते हैं। क्या उनके लिए सिर्फ उनका हुनर सफलता गढ़ने के लिए नाकाफी है?
अंत में सफलता उन्हें ही मिलती है जिनमें प्रतिभा है और उन्हें तो मंजिल जरूर मिलती है, जिनमें जुनून के साथ धैर्य भी हो। आउटलुक का यह अंक ऐसे ही चंद कलाकारों पर आधारित है जिन्होंने छोटे-छोटे किरदारों को निभाने के बावजूद दर्शकों पर अपना गहरा असर छोड़ा और अपनी खास पहचान बनाई। ये ऐसे कलाकार हैं, जो वर्षों से मायानगरी में बस एक अच्छे मौके की तलाश और इंतजार में बैठे थे। अमेजन प्राइम की पंचायत वेब सीरीज ने ऐसा ही अवसर उन्हें मुहैया कराया। इस अंक के आवरण पर ऐसे ही दो नायक – अशोक पाठक और दुर्गेश कुमार हैं। ये दोनों इस सीरीज में केंद्रीय भूमिका में नहीं थे लेकिन उन्होंने अपनी प्रतिभा से दर्शकों का ध्यान खींचा और यह सिद्ध किया कि कोई किरदार छोटा या बड़ा नहीं होता है। आज वे अभिनय क्षमता के बल पर स्टार हैं। जिस तरह की भूमिका अशोक पाठक या बुल्लू कुमार ने इस सीरीज में निभाई है, वैसी भूमिकाएं निर्माता पहले उन कलाकारों को देते थे जिन्हें जूनियर आर्टिस्ट कहा जाता था।
जाहिर है, ओटीटी का प्रादुर्भाव ऐसे कलाकारों के लिए वरदान साबित हुआ है। आज पारंपरिक तरीके से बनने वाली फिल्मों से अधिक फिल्में इस माध्यम से बन रही हैं और ऐसे कलाकारों की पूछ कई गुना बढ़ गई है जिन्होंने अभिनय का ककहरा पढ़कर अपना हुनर वर्षों तक तराशा है। यह सही है कि बॉलीवुड या देश की किसी अन्य फिल्म इंडस्ट्री में स्टारों की अपनी-अपनी श्रेणियां हैं। पहली श्रेणी शाहरुख खान और सलमान खान जैसे शीर्ष अभिनेताओं की है जिनकी फिल्में सौ-दो सौ करोड़ रुपये का व्यवसाय करती हैं। दूसरी श्रेणी नसीरुद्दीन शाह-मनोज बाजपेयी सरीखे कलाकारों की है, जिन्हें अपने सशक्त अभिनय के लिए जाना जाता है। अब ओटीटी की बदौलत तीसरी श्रेणी के स्टारों का उदय हुआ जिसमें दुर्गेश कुमार, अशोक पाठक, बुल्लू कुमार और फैसल मलिक जैसे अभिनेता हैं, जो साधारण भूमिकाओं को भी असाधारण बना देते हैं। ऐसे कलाकार बॉलीवुड की तीसरी दुनिया की नुमाइंदगी करते हैं। इस दुनिया में उनकी प्रतिस्पर्धा किसी स्टार किड से नहीं, बल्कि उनसे होती है जो समान पृष्ठभूमि से आते हैं।
बड़े स्टारों के बच्चों को तो इस उम्मीद के साथ बढ़ावा दिया जाता है कि उन्हें अपने पिता के सामान शोहरत मिलेगी। उनकी दिलचस्पी उस दुनिया में कतई नहीं होती जिसके सहारे अशोक पाठक जैसे कलाकार आगे बढ़ते हैं। इस लिहाज से ओटीटी का उदय भारतीय फिल्म उद्योग के लिए संजीवनी की तरह है क्योंकि इसकी खुराक से उसमें एक बार फिर से जान फूंकी जा सकती है। उनकी फिल्में फिलहाल भले ही सौ करोड़ रुपये का कारोबार नहीं करतीं पर उनकी प्रतिभा बेशक बेशकीमती है।