नब्बे के दशक में एक बहुप्रसारित दैनिक के संपादक को हर सुबह अपने अखबार के पहले पन्ने पर प्रकाशित संक्षिप्त खबरों का स्तंभ ‘शोक संदेश’ जैसा प्रतीत होता था। उस कॉलम में सिर्फ मृत्यु, सड़क दुर्घटना जैसी खबरें ही प्रकाशित होती थीं। इसलिए उन्होंने संपादकीय डेस्क के प्रभारी को निर्देश दिया कि वे उस कॉलम के लिए विविध क्षेत्रों के समाचारों का संकलन करें। उसके बाद उस अखबार के पहले पन्ने पर ‘तीन मरे, सात घायल’ जैसी खबरों का प्रकाशन बंद हो गया। संपादक महोदय का मानना था कि नकारात्मक खबरों को पहले पन्ने पर प्रकाशित करने से परहेज किया जाना चाहिए। यह वह दौर था जब देश के अलग-अलग हिस्सों में जघन्य हत्याएं, नरसंहार और सामूहिक बलात्कार की घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही थीं। इसलिए छोटी दुर्घटनाओं की खबरें तो गायब हो गईं लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण और निराशाजनक बड़े समाचारों का पहले पन्नों पर प्रकाशन जारी रहा। वह श्वेत-श्याम अखबारों का दौर था।
रंगीन अखबारों का जमाना आया तो नई पीढ़ी के खबरनवीसों का प्रादुर्भाव हुआ जिन्हें लगा कि आम पाठक अवसाद देने वाली खबरों को पढ़ना नहीं चाहते। उन्हें सिर्फ सकारात्मक समाचार चाहिए। इसी सोच से प्रकाशन समूहों में अच्छी खबरें ढूंढने की होड़ मच गई। संवाददाताओं को निर्देशित किया गया कि वे समाज में अच्छे संदेश देने वाली खबरों पर पैनी नजर रखें। इस ट्रेंड आने के बाद अच्छे समाचारों की बाढ़-सी आ गई। हर कस्बे से ऐसे लोग सामने आने लगे जिन्हें मीडिया ने समाज के लिए ‘एजेंट्स ऑफ चेंज’ कहा। ऐसे नायक हर युग में रहे थे जो चुपचाप समाज में परिवर्तन लाने के लिए कार्य करते रहे लेकिन मीडिया की बदलती प्राथमिकता के दौर में उन्हें अखबारों में वह जगह मिली जिसके वे हकदार थे। सकारात्मक खबरों के प्रति रुझान आगे चल कर इस कदर बढ़ा कि कुछेक प्रकाशनों ने नेगेटिव न्यूज को छापना तक बंद कर दिया, शायद इसलिए कि उनके पाठकों की सुबह की शुरुआत सकारात्मक खबरों के साथ हो सके।
यह निस्संदेह एक सकारात्मक पहलू रहा, लेकिन उसने इस चर्चा को भी जन्म दिया कि क्या प्रेस को खबर के संकलन में अच्छी खबर और बुरी खबर का फर्क करना चाहिए? क्या मीडिया अपनी जरूरत या अपने एजेंडे के मुताबिक ही पाठकों या दर्शकों के सामने खबरों को लाए? क्या सिर्फ ‘फील गुड’ देने वाले समाचार ही पाठक पढें, ऐसी खबरें नहीं जिन्हें पढ़ने से उनके मन में निराशा का भाव उत्पन्न होता हो? अगर ऐसा होता है तो इसके अपने खतरे हैं जो पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों से मेल नहीं खाते। अगर मीडिया खबरों का चयन सिर्फ अच्छे और बुरे के पैमाने पर करता है तो वह स्वयं समाज का आईना होने की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है। खबर सिर्फ खबर होती है और अगर वह किसी अखबार में छपने या किसी न्यूज चैनल में प्रसारण की सभी शर्तों को पूरा करती है तो उसके प्रकाशन या प्रसारण को रोकने की कोई वजह नहीं। अगर मीडिया को समाज का सच्चा प्रतिनिधि बनकर रहना है तो उसे हर तरह की खबरों को प्रकाश में लाना पड़ेगा। अच्छा क्या है, बुरा क्या है, यह पूरी तरह से पाठकों या दर्शकों के लिए छोड़ देना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता है तो यह उनके विवेक पर प्रश्नचिह्न लगाने वाली बात होगी। इसलिए मीडिया को किसी भी खबर के प्रति पहले से पूर्वाग्रह रखने या जजमेंटल होने से गुरेज करना चाहिए। अखबार आखिरकार अखबार है, अदालत नहीं।
मीडिया पर अक्सर यह भी आरोप लगते रहे हैं कि यह अंडरवर्ल्ड के सरगनाओं, भ्रष्टाचारियों या अन्य जुर्म में लिप्त लोगों के बारे में प्रकाशित करके उनका महिमामंडन करता है। ऐसे आरोप लगाने वालों की दलील होती है कि मीडिया उनके बारे में खबरें प्रकाशित/प्रसारित करके उन्हें हीरो बनाता है। ऐसे लोग भी आखिरकार समाज का हिस्सा हैं और उनकी खबरों को प्रतिबंधित करने से तो बेहतर है कि उनकी करतूतों को समाज के सामने लाया जाए। इसीलिए आउटलुक के इस अंक के आवरण पर लॉरेंस बिश्नोई की पुलिस हिरासत में तस्वीर है, जो पिछले कुछ दिनों से भारत से लेकर कनाडा तक चर्चा में है। आरोप लग रहे हैं कि हाल की कुछ बहुचर्चित आपराधिक घटनाओं में उसकी संलिप्तता है। सोचने वाली बात यह है कि अपराध की कई घटनाओं का आरोपी फिलहाल जेल में बंद है। जेल की सलाखों के पीछे होने के बावजूद जेल के बाहर की दुनिया में अपराध की घटनाओं को अंजाम देने वाले बाहुबलियों के कई उदाहरण पहले से मौजूद हैं।
पिछले तीन दशक में न जाने कितने अपराधी सामने आए, जिनका वर्चस्व जेल जाने के बावजूद बरकरार रहा। अगर लॉरेंस बिश्नोई पर लग रहे आरोप सही हैं, तो यह पूरी व्यवस्था पर सवाल खड़ा करता है कि कैसे किसी जेल में दिन काट रहा कई अपराधों का आरोपी कथित रूप से अपने गैंग की मदद से जुर्म की घटनाओं को देश से विदेश तक में अंजाम दे रहा है। हमारा यह अंक किसी अपराधी विशेष पर नहीं, उस व्यवस्था पर सवालिया निशान है जिसे इतने साल में दुरुस्त नहीं किया जा सका है।