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31 मार्च 2025 · MAR 31 , 2025

प्रथम दृष्टि: बाजारवाद का रैप

भोजपुरी सिनेमा का इतिहास लगभग 65 वर्ष पुराना है। साठ के दशक की शुरुआत में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के कहने पर फिल्मकार-अभिनेता नजीर हुसैन ने गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ईबो नामक पहली भोजपुरी फिल्म बनाई
भोजपुरी के सुनहरे दिन लाने की कवायद

चर्चित रैपर यो यो हनी सिंह के नए वीडियो में भोजपुरी की कुछ पंक्तियों ने पुराने विवाद को फिर से तूल दे दिया है। इस मीठी भाषा (इसे हिंदी की बोली कहने की गुस्ताखी नहीं करनी चाहिए!) के प्रेमियों को नागवार गुजरता है कि मनोरंजन उद्योग में भोजपुरी सिनेमा और गीत-संगीत को अश्लीलता का पर्याय समझा जाने लगा है। हाल के वर्षों में भोजपुरी सिनेमा-संगीत में द्विअर्थी फूहड़ गीत और संवाद का चलन बढ़ गया है कि पूरी फिल्म इंडस्ट्री को कला प्रेमी हिकारत भरी नजर से देखने लगे हैं। ऐसा समझा जाने लगा है कि भोजपुरी एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री से कलात्मकता की उम्मीद बेमानी है। जाहिर है, ऐसी राय उन लोगों ने बनाई जो भोजपुरी सिनेमा, लोक संगीत और उसके समृद्ध इतिहास से बेखबर थे। उनके लिए भोजपुरी सिनेमा का इतिहास मनोज तिवारी, रवि किशन और दिनेश लाल निरहुआ के दौर में शुरू हुआ जो पवन सिंह और खेसारी लाल यादव के समय अपने शिखर पर पहुंच गया।

भोजपुरी सिनेमा का इतिहास लगभग 65 वर्ष पुराना है। साठ के दशक की शुरुआत में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के कहने पर फिल्मकार-अभिनेता नजीर हुसैन ने गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ईबो नामक पहली भोजपुरी फिल्म बनाई। उसके बाद भोजपुरी में कई उत्कृष्ट फिल्में बनीं। इनमें लता मंगेशकर और मोहम्मद रफी जैसे कलाकारों ने गीत गाए, शैलेन्द्र जैसे गीतकार ने गीत लिखे और चित्रगुप्त जैसे संगीतकार ने संगीत दिया। ये फिल्में ग्रामीण परिवेश और संस्कृति पर आधारित थीं। भोजपुरी फिल्मों के दूसरे दौर की शुरुआत सत्तर के दशक में हुई, जब नजीर हुसैन ने सुस्त पड़ी इंडस्ट्री में बलम परदेसिया से नई जान डाली। अस्सी के दशक में गंगा किनारे मोरा गांव जैसे सुपर हिट फिल्मों से भोजपुरी सिनेमा ने नई बुलंदियों को छुआ। लेकिन, वीडियो पायरेसी और बिहार जैसे राज्य में मनोरंजन कर के नए स्वरूप के कारण नब्बे के दशक में भोजपुरी सिनेमा मृतप्राय हो गया। सिंगल थिएटर बंद होने से भी इंडस्ट्री को झटका लगा।

नई सदी में मनोज तिवारी और रवि किशन की फिल्मों से भोजपुरी सिनेमा की वापसी हुई। साल 2003 में मनोज तिवारी की 25 लाख रुपये में बनी फिल्म, ससुरा बड़ा पैसेवाला ने 20 करोड़ रुपये से अधिक का कारोबार किया तो बॉलीवुड को पहली बार भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री की व्यावसायिक ताकत का अहसास हुआ। उसके बाद अमिताभ बच्चन से लेकर जीतेंद्र तक और मिथुन चक्रवर्ती से लेकर अजय देवगन जैसे हिंदी सिनेमा के बड़े दिग्गजों ने भोजपुरी सिनेमा का रुख किया।

हालांकि नए मिजाज की भोजपुरी फिल्में उन भोजपुरी फिल्मों से बिलकुल अलग थीं, जो शुरुआती दौर में बनी थीं। नई फिल्मों में अश्लील गानों और द्विअर्थी संवादों की भरमार थी। कई लोगों का मानना है कि भोजपुरी समाज का बड़ा तबका खासकर संभ्रांत वर्ग इसी कारण इन फिल्मों से दूर होता चला गया। अब भोजपुरी समाज का सबसे बड़ा सिनेमा दर्शक वर्ग प्रवासी मजदूर रह गया है, जो अपने गांव से दूर महानगरों में दिहाड़ी पर काम कर रहा था। उनकी माली हालत ऐसी नहीं थी कि वे मनोरंजन के लिए मल्टीप्लेक्स के महंगे टिकट खरीद सकें। वैसी भी मल्टीप्लेक्स में दिखाई जाने वाली अधिकतर फिल्में ऐसे ‘मॉडर्न’ विषयों पर बनने लगीं जिनसे उनका कोई सरोकार नहीं था।

भोजपुरी फिल्मकारों की दलील थी कि वे अब वैसी ही फिल्में बना रहे हैं, जिन्हें देखने के लिए दर्शक सिनेमाघर आ रहे हैं और दर्शक उन्हीं फिल्मों को देखना पसंद कर रहे हैं जिनमें उनकी पसंद का ‘मसाला’ होता है। कमोबेश यही हाल सोशल मीडिया के समय में भोजपुरी संगीत का हुआ। पवन सिंह, खेसारीलाल यादव जैसे गायक-अभिनेताओं के कई वीडियो वायरल हुए। यू-टयूब पर उन्हें लाखों लोगों द्वारा देखा गया। डिजिटल बाजार में भोजपुरी गीत-संगीत की इसी ताकत को हनी सिंह जैसे कलाकार ने पहचाना। आज उनके नए रैप की चर्चा अन्य कारणों से अधिक भोजपुरी के कारण हो रही है।

मनोरंजन जगत का पुराना जुमला है कि जो बिकता है, वही बनता है। यही बात भोजपुरी सिनेमा और संगीत पर भी लागू होती है। व्यावसायिकता की दौड़ ने इस इंडस्ट्री के सुनहरे अतीत को धूमिल कर दिया है। आज भी नितिन चन्द्रा जैसे युवा फिल्मकार हैं जो साफ-सुथरी भोजपुरी फिल्में बना रहे हैं, लेकिन उनकी संख्या नगण्य है। ओटीटी के दौर में उम्मीद है कि अन्य युवा फिल्मकार और गीतकार-संगीतकार वैश्विक स्तर पर अपनी छाप छोड़ेंगे। उन्हें मलयालम और मराठी सिनेमा से सीखने की जरूरत है। किसी जमाने में मलयालम फिल्मों को हिंदी में डब कर सॉफ्ट पोर्न के रूप में प्रदर्शित किया जाता था। मराठी में भी दादा कोंडके द्विअर्थी संवादों के लिए जाने जाते थे। लेकिन दोनों भाषाओं में मल्टीप्लेक्स के दौर में उत्कृष्ट फिल्में बनी हैं। ओटीटी के दौर में भोजपुरी सिनेमा-संगीत को अगर अपना खोया गौरव पाना है तो उसे अपनी संस्कृति से फिर से जुड़ना पड़ेगा।

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