हर बार की तरह इस बार भी सबकी नजर बिहार विधानसभा चुनाव पर है। इस बार भी वही कहा जा रहा है कि चुनाव के नतीजों का व्यापक असर देश की राजनीति पर होगा। हालांकि इस बात की चर्चा कम होती है कि नवंबर में दो चरणों में होने वाले इस चुनाव का असर वहां के आम लोगों के जीवन पर कैसा होगा? क्या इस बार के चुनाव परिणाम बिहार की दशा-दिशा बदल कर ऐसे सकारात्मक परिवर्तन लाने वाले साबित होंगे, जिसकी बदौलत प्रदेश की सामाजिक-आर्थिक स्थितियां बदलें और उसका शुमार अगले पांच साल में विकसित प्रदेशों की सूची में हो?
तमाम सरकारी दावों, आंकड़ों और प्रयासों के बावजूद इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि विकास के आधुनिक पैमानों के आधार पर बिहार आज भी देश के सबसे गरीब राज्यों में है, चाहे प्रति व्यक्ति आय की बात हो या शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार सृजन का सवाल। इसलिए हर चुनाव से पहले लोगों के मन में छोटी-सी आस अवश्य जगती है कि शायद इस बार के चुनाव बिहार की तकदीर और तस्वीर बदलने वाले साबित हों।
यह कहना तो अनुचित होगा कि नीतीश कुमार के दो-दशकीय कार्यकाल में बिहार का विकास नहीं हुआ। नीतीश के नेतृत्व में बेशक बिहार ने कई क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति की, जिसकी बदौलत उन्हें ‘विकास पुरुष’ की उपाधि हासिल हुई। नीतीश के कार्यकाल के दौरान, खासकर शुरुआती वर्षों में बिहार की विकास दर दोहरे अंक में दर्ज की गई, जो कई विकसित राज्यों से बेहतर थी। इसके बावजूद बिहार विकसित प्रदेशों की तुलना में आज भी मीलों पीछे है। विकसित प्रदेशों की बराबरी करने में उसे न जाने कितने दशक अभी और लगेंगे। जाहिर है, महाराष्ट्र, गुजरात और तमिलनाडु जैसे समृद्ध और संपन्न प्रदेशों और बिहार जैसे गरीब, पिछड़े राज्य के बीच पिछले पचास-साठ साल में फासला इतना बढ़ गया कि अब उसे पाटना मुश्किल लगता है।
नीतीश के पहले आठ साल के कार्यकाल (2005-13) को उनका स्वर्णिम काल कहा जाता है। उस दौरान बिहार की विकास दर 14-15 प्रतिशत तक रिकॉर्ड की गई, लेकिन यह भी कहा गया कि अगर बिहार उसी रफ्तार से विकास करता रहा और उस दौरान विकसित प्रदेशों के विकास दर में कोई वृद्धि न हो, तो संभव है लगभग 30-40 साल बाद बिहार उनकी बराबरी कर सके। चुनाव से पहले यह सवाल मौजू है कि क्या आने वाली सरकार उसी रफ्तार से (या उससे तेज) प्रदेश का विकास कर सकती है, जो नीतीश के कार्यकाल के शुरुआती वर्षों में देखने को मिला था?
पिछले कई चुनावों की तरह इस बार भी मुख्य मुकाबला नीतीश के नेतृत्व वाले एनडीए और राष्ट्रीय जनता दल के नेतृत्व वाले महागठबंधन के बीच है, लेकिन इस बार मशहूर चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर की नई जन सुराज पार्टी के मैदान में होने के कारण चुनाव त्रिकोणीय होने की संभावनाएं जताई जा रही हैं। आशंकाओं है कि इस बार प्रदेश में किसी एक दल या गठबंधन को स्पष्ट जनादेश न मिले। ऐसा होता है तो फरवरी 2005 के बाद पहला मौका होगा, जब बिहार में त्रिशंकु विधानसभा देखने को मिले।
सिर्फ एनडीए और महागठबंधन के नेता ही नहीं, प्रशांत किशोर भी अपनी जीत के प्रति आश्वस्त हैं। उनका दावा है कि अगर उनकी पार्टी को 150 सीट से कम पर जीत मिलती हैं, तो उन्हें निराशा होगी। लेकिन ऐसा तभी संभव है जब जनता एनडीए और महागठबंधन दोनों को सिरे से नकार दे। इतना कहा जा सकता है कि उनकी पार्टी के सभी 243 सीटों से चुनाव लड़ने के कारण दोनों बड़े गठबंधनों को नुकसान झेलना पड़ सकता है, जिसका असर अंतिम नतीजों पर हो सकता है।
2005 के बाद बिहार की जनता ने चुनाव में कभी खंडित जनादेश नहीं दिया। 2020 के विधानसभा चुनाव में एनडीए के घटक दल होने के बावजूद लोक जनशक्ति पार्टी के चिराग पासवान ने जदयू के खिलाफ अपने उम्मीदवार मैदान में उतारे, जिसके कारण जदयू को 36 सीटों पर हार का सामना करना पड़ा। इसके बावजूद एनडीए ने कम अंतर से ही सही, बहुमत का आंकड़ा हासिल कर लिया।
वैसे प्रदेश में किसी एक पार्टी या गठबंधन के पक्ष या विरोध में अभी तक कोई लहर नहीं दिख रही है। शायद यही कारण है कि खंडित जनादेश की आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं। लेकिन, क्या इस बार वाकई कोई ऐसा जनादेश सामने आ सकता है जिससे प्रदेश में राजनैतिक उथल-पुथल का दौर फिर से शुरू हो जाए। किसी भी प्रदेश के विकास के लिए राजनैतिक स्थिरता जरूरी है, इसलिए बिहार की जनता से इस बार भी यही अपेक्षा रहेगी कि वह जिस दल या गठबंधन को सत्ता की चाबी सौंपे उसे पांच साल के लिए ही सौंपे। प्रदेश के विकास के लिए यही जरूरी है।