पहले से ही भुरभुरे धरातल पर खड़े देश के एजुकेशन सिस्टम को कोरोना ने और ज्यादा अस्थिर कर दिया है। पढ़ाने से लेकर परीक्षा कराने तक के सवालों के बीच इस वक्त किसी तरह का आश्वस्तकारी माहौल नहीं दिख रहा है। सरकारी दावों के बीच कड़वी सच्चाई यह है कि न तो देश की शिक्षा व्यवस्था ऑनलाइन माध्यमों पर शिफ्ट होने की स्थिति में है और न ही करोड़ों छात्रों की ऑनलाइन परीक्षा कराना संभव है।
देश में लॉकडाउन लागू होने के बाद यह सवाल बहुत बड़ा हो गया कि अब उन छात्र-छात्राओं की पढ़ाई और परीक्षा का क्या होगा, जिनकी संस्थाएं लंबे समय के लिए बंद हो गई हैं। आनन-फानन में इसका समाधान तलाशा गया कि अब समस्त पढ़ाई ऑनलाइन होगी। विचार और सिद्धांत के रूप में तो यह अच्छी पहल है, लेकिन जब धरातल पर देखते हैं तो कड़वी सच्चाई सामने आती है। यहां कुछ बड़े सवाल मौजूद हैं। मसलन, क्या शिक्षक ऑनलाइन माध्यमों से अपना काम करने के लिए ट्रेंड हैं? दूसरा, इस प्रोसेस में जिन गैजेट्स का उपयोग किया जाना है, वे कितने छात्र-छात्राओं के पास उपलब्ध हैं? तीसरा, क्या सभी छात्र-छात्राओं के पास नेट कनेक्टिविटी उपलब्ध है? बिना किसी किंतु-परंतु के इन सवालों का जवाब दिया जाए तो उत्तर नकारात्मक है। यहां एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि ऑनलाइन पढ़ाई के लिए जिस कोर्स मटेरियल की आवश्यकता है, उसकी उपलब्धता प्रश्नों के घेरे में है। भारत सरकार जिन पोर्टल और वर्चुअल प्लेटफॉर्म (SWAYAM, NPTEL, NDL) का इस्तेमाल करके ऑनलाइन टीचिंग कराने की बात कह रही है, उन पर 90 फीसदी से ज्यादा स्टडी मटेरियल अंग्रेजी में उपलब्ध हैं, जो दुनिया के कुछ प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों की भारतीय नकल है। यह सामग्री और इस सामग्री की भाषा देश के दूर-दराज के इलाकों के छात्र-छात्राओं के किसी काम की नहीं है। इनके अलावा भारत सरकार के 34-35 शैक्षिक चैनल भी अंग्रेजी कार्यक्रमों से ही अटे पड़े हैं।
इन छात्र-छात्राओं को जो शिक्षक पढ़ा रहे हैं, अभी वे खुद ऐसी स्थिति में नहीं हैं कि तत्काल ऑनलाइन शिक्षण सामग्री तैयार कर लें और स्टूडेंट्स को उपलब्ध करा सकें। शिक्षक यह भी नहीं समझ पा रहे हैं कि ऑनलाइन माध्यमों के जरिए रोजाना तीन से चार घंटे तक सैकड़ों छात्रों के साथ किस तरह कनेक्ट रहा जाए। गढ़वाल विश्वविद्यालय और उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति प्रो. सुधा पांडेय का कहना है, “किसी एजुकेशन मोड को इतनी जल्दी बदलना संभव नहीं होता और ऑनलाइन टीचिंग कभी भी क्लास टीचिंग का विकल्प नहीं हो सकती।” गौरतलब है कि ऑनलाइन टीचिंग के नाम पर कई जगह तो ऐसे मामले सामने आए जब शिक्षकों ने किताबों के सैकड़ों पेज व्हाट्सएप या अन्य माध्यमों से छात्रों को भेजकर अपने दायित्व की पूर्ति कर ली। यदि इसी ढंग से पढ़ाई होनी है तो फिर शिक्षक की भी क्या जरूरत है?
अप्रैल में केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय की पहल पर यूजीसी द्वारा गठित एक समिति ने कोरोना के प्रभावों के बीच पढ़ाई और परीक्षा के मसले पर एक रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट में जो सुझाव दिए गए हैं उसमें उम्मीद जताई गई है कि शिक्षक ऑनलाइन टूल्स का इस्तेमाल करते हुए ई-रिसोर्सेज का उपयोग करेंगे और छात्र-छात्राओं को वर्चुअल प्लेटफॉर्म के साथ जोड़ेंगे। इसमें यह भी सुझाव दिया गया है कि परंपरागत परीक्षा के स्थान पर वैकल्पिक माध्यमों से परीक्षा करा ली जाए। कुछ सुझाव प्रवेश परीक्षा को लेकर भी दिए गए हैं और इन सब कार्यों के लिए एक टाइम-फ्रेम भी तय किया गया है। इस रिपोर्ट को देखने के बाद ऐसा लगता है कि उच्च शिक्षा के सामने आने वाली लगभग सभी चुनौतियों का समाधान निकाल लिया गया है, लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं। पहली बात तो यह कि उच्च शिक्षा में पंजीकृत चार करोड़ से अधिक छात्र-छात्राओं की ऑनलाइन परीक्षा कराने का कोई ढांचा किसी सरकार अथवा विश्वविद्यालय के पास उपलब्ध नहीं है। देश का संघ लोक सेवा आयोग अपनी सबसे बड़ी परीक्षा को ऑनलाइन कराने की स्थिति में नहीं है, तो फिर विश्वविद्यालयों से कैसे उम्मीद की जाए!
दूसरी चुनौती यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट कनेक्टिविटी का दायरा 50 फीसदी से भी कम है। लड़कियों के मामले में यह 30 फीसदी से भी कम है। एक सरकारी सहायता प्राप्त डिग्री कॉलेज की उप प्राचार्य डॉ. दीपा अग्रवाल का कहना है कि ग्रामीण क्षेत्रों में मां-बाप लड़कियों को स्मार्टफोन का उपयोग करने ही नहीं देते हैं। उन्हें लगता है कि इससे लड़कियां बिगड़ जाएंगी। इसका परिणाम यह है कि लड़कियां ऑनलाइन पढ़ाई से पूरी तरह कट गई हैं।
अब जिन छात्र-छात्राओं के पास स्मार्टफोन, नेट कनेक्टिविटी उपलब्ध नहीं है, वे इस नई व्यवस्था से स्वतः ही बाहर हो जाएंगे। इसीलिए यह सुझाव भी सामने आया कि मौजूदा सत्र को जीरो सत्र कर दिया जाए, लेकिन इसका छात्रों और अभिभावकों की तरफ से व्यापक विरोध हुआ। फिर यह सुझाव दिया गया कि फाइनल ईयर के स्टूडेंट्स को छोड़कर अन्य सभी को अगले सेमेस्टर में प्रमोट कर दिया जाए। अब सवाल यह है कि यदि छात्र-छात्राओं को पढ़ाई और परीक्षा के बिना ही अगले सेमेस्टर में प्रमोट किया जाना है, तो फिर इस तरह की पढ़ाई का औचित्य क्या है?
फिलहाल, पूरे देश में न केवल मौजूदा शैक्षिक सत्र, बल्कि अगला शैक्षिक सत्र भी सीधे तौर पर प्रभावित होता दिख रहा है। भले ही केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री ने जुलाई में सीबीएसई की सीनियर सेकेंडरी की शेष परीक्षाएं कराने की घोषणा कर दी है, लेकिन इसकी संभावना कम ही है। इसके अलावा, देश के सभी बोर्ड एग्जाम अभी अधूरे पड़े हैं।
यदि ये सभी परीक्षाएं जुलाई में हो भी जाएं तो भी अगस्त से पहले परिणाम घोषित नहीं होगा। इसके बाद सितंबर में दाखिले की प्रक्रिया आरंभ होने पर अगला एक सेमेस्टर भी खराब होने का डर रहेगा।
इन सब के बीच एक बड़ी चुनौती यह है कि इंजीनियरिंग, मेडिकल, लॉ तथा अन्य प्रोफेशनल डिग्रियों की प्रवेश परीक्षाएं कब आयोजित होंगी? अभी जो तिथियां निर्धारित की गई हैं, वे संभवतः इस अनुमान पर आधारित हैं कि आगामी दिनों में कोरोना का प्रभाव तेजी से घटेगा और जुलाई तक स्थितियां लगभग सामान्य हो जाएंगी। वस्तुतः यह अनुमान वास्तविकता के बजाय खुद को दिलासा देने पर ज्यादा केंद्रित दिखता है।
भले ही सरकारें घोषित तौर पर कुछ नहीं कह रही हैं, लेकिन यह बात नीति निर्माताओं को भी समझ में आ गई है कि ऑनलाइन एजुकेशन से क्लास टीचिंग का मकसद पूरा नहीं हो सकता। इसलिए अब विश्वविद्यालय और कॉलेज खोले जाने की संभावनाओं पर विचार किया जा रहा है। शैक्षिक संस्थाएं खोलने का इस आधार पर समर्थन किया जाना चाहिए कि जब अन्य सरकारी कार्यालय खोले जा चुके हैं, तो फिर इन संस्थाओं को भी सामान्य कामकाज के लिए खोल दिया जाना चाहिए। उत्तराखंड के उच्च शिक्षा मंत्री डॉ. धन सिंह रावत ने प्राचार्यों से कॉलेज खोले जाने की रणनीति तैयार करने को कहा है। उनका कहना है कि उत्तराखंड में 70 फीसदी से अधिक छात्र-छात्राओं को ऑनलाइन कक्षाओं के साथ जोड़ लिया गया है और जो शेष बचे हैं उनके लिए भी विकल्प तलाश किए जा रहे हैं। उधर, केंद्र सरकार ने भी केंद्रीय विश्वविद्यालयों को निर्देशित किया है कि वे सत्र को नियमित करने की कार्ययोजना तैयार करें। इन दोनों बातों के दृष्टिगत यह स्पष्ट है कि क्लास टीचिंग और परंपरागत ढंग से परीक्षा कराने का अन्य कोई विकल्प उपलब्ध नहीं है। शिक्षाविद डॉ. अजीत सिंह तोमर का कहना है, “भविष्य के लिए ऐसे एजुकेशन सिस्टम की जरूरत है जिसमें क्लास टीचिंग के साथ ऑनलाइन और डिस्टेंस मोड की खूबियां भी समाहित हों। मौजूदा स्थितियों में सोसायटी के भीतर डिजिटल डिवाइड का खतरा और गहरा हो गया है।” फिलहाल, एजुकेशन सिस्टम को संभालने के मामले में सरकार की रणनीति अधूरी और अपर्याप्त दिख रही है। असली सवाल यह है कि उन करोड़ों छात्र-छात्राओं का क्या होगा जिनके पास ऑनलाइन माध्यमों से पढ़ाई करने के लिए न्यूनतम सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं! जब तक इस सवाल का जवाब नहीं मिलेगा तब तक सरकार द्वारा की गई कोई भी घोषणा या प्रचार निरर्थक ही रहेगा।
(लेखक उत्तराखंड में गवर्नमेंट एडेड पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज में प्रिंसिपल और प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं )
----------------------------------------------------
ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट कनेक्टिविटी का दायरा 50 फीसदी से भी कम है। साथ ही, वहां लड़कियों को स्मार्टफोन इस्तेमाल करने की छूट भी आम तौर पर नहीं होती
------------------------------------------------
सरकार घोषित तौर पर भले न कहे लेकिन यह बात नीति-निर्माताओं को समझ आ गई है कि ऑनलाइन से क्लास टीचिंग का मकसद पूरा नहीं हो सकता