आउटलुक-दृष्टि की इस बार प्रोफेशनल कॉलेज रैकिंग में 400 से ज्यादा संस्थानों ने भाग लिया है। हालांकि, टॉप-रैंकिंग में कोई खास बदलाव नहीं हुआ है। इससे एक बात तो साफ है कि टॉप-कॉलेजों ने अपनी गुणवत्ता बनाए रखने में गजब की स्थिरता कायम रखी है लेकिन भारतीय शिक्षा प्रणाली कई सारी समस्याओं से जूझ रही है। सबसे चिंताजनक हमारे विश्वविद्यालयों से निकलने वाले छात्रों का नौकरी के योग्य न हो पाना है। पिछले साल टेक महिंद्रा के सीईओ और एमडी सी.पी.गुरनानी ने यह कहकर हड़कंप मचा दिया था कि देश के 94 फीसदी इंजीनियरिंग ग्रेजुएट नौकरी के लिए उपयुक्त नहीं हैं।
इसका असर यह हुआ कि देश के कई अग्रणी संस्थानों ने शैक्षणिक प्रणाली की कई अहम समस्याओं को दूर करने के कदम उठाने शुरू कर दिए। निजी क्षेत्र से लेकर अग्रणी सरकारी संस्थानों ने छात्रों में नौकरी योग्य क्षमताएं विकसित करने के लिए उद्योग जगत और कंपनियों के साथ साझेदारी शुरू की। रिसर्च और डेवलपमेंट पार्क, पाठ्यक्रम में इंटर्नशिप को शामिल करने से लेकर स्टार्टअप और नए इनोवेशन के लिए आर्थिक अनुदान देने जैसे कदम उठाए जा रहे हैं। हालांकि इन कदमों का सीमित असर ही होना तय है, अगर स्कूलों और बुनियादी शिक्षा की मूल समस्याओं में सुधार नहीं किया जाता।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय की नई शिक्षा नीति स्कूली शिक्षा में सुधार की दिशा में एक सकारात्मक कदम है। नई शिक्षा नीति में सबसे अहम बात यह है कि उसमें पाठ्यक्रम के अलावा पाठ्यक्रम के इतर के विषय जैसे कला, संगीत, खेल, योग, सामुदायिक सेवा वगैरह भी पाठ्यक्रम का ही हिस्सा माना जाएगा। इन विषयों को पाठ्यक्रम में शामिल करने से शैक्षणिक व्यवस्था कहीं ज्यादा सकारात्मक भूमिका निभाएगी। इनसे विद्यार्थियों के कौशल क्षमता में विकास होगा, जिससे वे 21वीं सदी के आवश्यक कौशल के लिए तैयार होंगे। इससे छात्रों को हर क्षेत्र का व्यापक अनुभव प्राप्त होगा।
नई शिक्षा नीति में अंडरग्रेजुएट शिक्षा के लिए भी विशेष प्रावधान किया गया है। इसमें उच्च शिक्षा के लिए तीन तरह के संस्थान तैयार करने का प्रस्ताव दिया गया है। ये संस्थान विश्वस्तरीय रिसर्च और उच्च गुणवत्ता वाले शिक्षकों पर जोर देंगे। स्नातकस्तरीय पाठ्यक्रम में सभी विषयों के लिए उच्च गुणवत्ता वाले शिक्षक होने के साथ-साथ रिसर्च पर भी उनका जोर होगा। अंडरग्रेजुएट कोर्स में सभी विषयों में रिसर्च पर जोर के साथ उच्च गुणवत्ता की शिक्षा से प्रभावी बदलाव आएगा। अगर इन प्रस्तावों को प्रभावी तरीके से लागू किया गया, तो निश्चित तौर पर भारतीय शिक्षा प्रणाली में उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा और रिसर्च की कमी को दूर किया जा सकता है।
आज के दौर में पाठ्यक्रम में बहु-विषयक और समावेशी नजरिए को शामिल करना सबसे ज्यादा चर्चित मुद्दा है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आइआइटी) इस तरह के अलग विषयों को पाठ्यक्रम में शामिल कर रहे हैं। उदाहरण के तौर पर आइआइटी खड़गपुर ने कला और संगीत केंद्र का गठन किया है, जो भारतीय शास्त्रीय संगीत और वाद्य यंत्रों की शिक्षा मुहैया करा रहा है।
इसमें दो राय नहीं कि देश के ज्यादातर आइआइटी संस्थानों में मानविकी और समाजशास्त्र के बेहतरीन अध्यापक हैं लेकिन बीटेक के छात्रों ने इन विषयों में अभी तक खास रुचि नहीं दिखाई। कंपनियां इस समय नियुक्ति प्रक्रिया में विद्यार्थियों में अलग-अलग तरह की कौशल क्षमता का भी आकलन कर रही हैं। उदाहरण के तौर पर इन्फोसिस इंजीनियर के साथ-साथ ग्राफिक डिजाइनर, कलाकार, लिबरल आर्ट्स ग्रेजुएट को भी नियुक्त कर रही है।
कई लोगों का मानना है कि गुणवत्ता वाले उत्पाद देने के लिए इस तरह के कदम उठाना अब आवश्यक है। नए निजी विश्वविद्यालयों में लिबरल आर्ट प्रोग्राम को खास जगह दी जा रही है। उनका मानना है कि इस तरह के पाठ्यक्रम से विद्यार्थियों का बहुमुखी विकास होगा। इन कदमों से विद्यार्थी न केवल मार्केट की मांग के अनुसार अपनी कौशल क्षमता का विकास कर सकेंगे, बल्कि वह अपनी रुचि के विषयों में भी कुशलता हासिल कर पाएंगे।
यह भी गौरतलब है कि विद्यार्थियों का अपनी रुचि के विषयों में दाखिला लेने का रुझान बढ़ता जा रहा है। इसे आप देश के कई इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों में घटते दाखिला आवेदनों की संख्या में देख सकते हैं। कम लोकप्रिय कॉलेजों में कई सीटें खाली पड़ी हुई हैं। इन कॉलेजों के लिए जरूरी है कि वे गुणवत्तापरक शिक्षा देने की दिशा में जरूरी पहल करें। हालांकि इन चीजों के अलावा विद्यार्थियों के लिए यह भी जरूरी है कि वे इंटर्नशिप और दूसरे प्रोफेशनल एक्सपोजर पर ध्यान दें, क्योंकि नौकरी के बाजार में अच्छे प्रदर्शन के लिए पढ़ाई के साथ-साथ उनमें काम करने का कौशल भी होना आज की जरूरत है।