वजहें वाजिब हैं, आखिर कुछेक दिन बाद ही तो केंद्र सरकार का वह साल नमूदार हो जाएगा, जिसके आखिरी महीनों में युद्ध के मोर्चे खुल जाएंगे। फिर भी, लामबंदी इतनी तेज है कि एक ही दिन 24 अप्रैल को बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल (यूनाइटेड) के प्रमुख नीतीश कुमार और उप-मुख्यमंत्री तथा राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के नेता तेजस्वी यादव कोलकाता से लखनऊ तक की यात्राएं और प्रेस कॉन्फ्रेंस कर आए। दोनों जगह साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस हुई। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री तथा तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने कहा, ‘‘मेरा कोई ईगो नहीं है। मैं भाजपा को जीरो देखना चाहती हूं।’’ लखनऊ में पूर्व मुख्यमंत्री तथा समाजवादी पार्टी (सपा) के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कहा, ‘‘हम नीतीश जी के साथ हैं।’’ इसके पहले 12 अप्रैल को नीतीश और तेजस्वी कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी से मिलने नई दिल्ली में थे। उसके बाद बिहार के महागठबंधन के दोनों नेता दो दिनों के दिल्ली प्रवास में दिल्ली के मुख्यमंत्री तथा आम आदमी पार्टी (आप) के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल से मिले। फिर भाकपा, माकपा के नेताओं से भी बातचीत की। बकौल नीतीश, सबसे सहमति है कि ‘‘2024 के संसदीय चुनाव के लिए विपक्षी दलों का यथासंभव विशाल गठबंधन खड़ा करके भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को सत्ता से बेदखल किया जाए।’’
एकजुट: राहुल गांधी के साथ तेजस्वी यादव, मल्लिकार्जुन खड़गे और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार
हालांकि यह बेशक कहा जा सकता है कि गठबंधन की कवायद तेज करने की पहल दरअसल कांग्रेस की ओर से ही राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता खारिज होने के बाद हुई। इसका संकेत दिल्ली में कांग्रेस नेताओं के साथ साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस में नीतीश ने ही दिया, “हम तो इंतजार कर रहे थे। अब बुलाया गया तो अच्छी बातचीत हुई और यह सहमति बनी है कि जितनी पार्टियों से बात संभव है, सबसे की जाए, ताकि कड़ी चुनौती दी जा सके।”
गौरतलब यह भी है कि विपक्षी गठजोड़ की अब गंभीर दिखने वाली पहल की मूल वजह तमाम विपक्षी नेताओं पर भाजपा का तीखा वार ही है। कह सकते हैं कि भाजपा की ओर से इस साल के शुरू में आई हिंडनबर्ग रिपोर्ट के बाद समूचे विपक्ष पर एक साथ तीखा वार शुरू हुआ। फिर संसद के बजट सत्र में राहुल गांधी समेत लगभग सभी विपक्षी पार्टियों को हमला करने का मौका मिल गया। फिर तो राहुल गांधी गुजरात में सूरत की अदालत में मोदी उपनाम को कथित तौर पर अपमान करने के लिए घेरा गए। कथित दिल्ली शराब घोटाले के सिलसिले में आप के मनीष सिसोदिया जेल में पहुंच गए और फिर अरविंद केजरीवाल को भी सीबीआइ का नोटिस मिल गया। इसी मामले में तेलंगाना के मुख्यमंत्री तथा भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) के प्रमुख के. चंद्रशेखर राव की बेटी को भी नोटिस मिल गया। राजद के नेताओं और तृणमूल कांग्रेस पर पहले से भाजपा की टेढ़ी नजर है। शिवसेना बाला साहेब ठाकरे के नेताओं और शरद पवार की राकांपा तो पहले से भाजपा के दंश से पीड़ित हैं।
शरद पवार के साथ मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल
इससे विपक्षी पांत में शायद यह एहसास गहरा हो गया कि एक मंच पर आए बिना कोई चारा नहीं है। वरना राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा की कामयाबी के बाद कांग्रेस के तेवर में कुछ तुर्शी आ गई थी। याद करें, इस साल के शुरू में भाकपा-माले के कार्यक्रम में नीतीश ने कहा था कि हम तो इंतजार कर रहे हैं कि बातचीत शुरू हो। इस पर जयराम रमेश दो-टूक कह गए थे कि कांग्रेस को यह सीख देने की जरूरत नहीं कि उसे क्या करना चाहिए। लेकिन अब कांग्रेस ही नहीं, सभी दलों के तेवर ठंडे हुए हैं। अब सूत्रों के मुताबिक, सभी पार्टियों में टकराहट के मद्देनजर बातचीत करने की जिम्मेदारियां बांट ली गई हैं। खड़गे शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) के उद्धव ठाकरे और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री, द्रमुक नेता एम.के. स्टालिन तथा समान विचारधारा वाले दलों से बात करेंगे, जबकि नीतीश को उन पार्टियों को साथ लाना है जो कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने में सहज नहीं हैं।
कहते हैं, नीतीश का मुख्य लक्ष्य ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल और के. चंद्रशेखर राव को साथ लाने का है। उन्हें अखिलेश यादव से भी बात करनी है। इन नेताओं के असर वाले पांच राज्यों पश्चिम बंगाल, दिल्ली, पंजाब, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश में लोकसभा की कुल 159 यानी लगभग 30 प्रतिशत सीटें हैं। फिलहाल, उनमें 94 पर भाजपा का कब्जा है। जदयू के एक नेता का कहना है कि कांग्रेस को लग गया है कि विपक्षी एकता के मुद्दे पर किसी भी तरह की टाल-मटोल से उसकी अपनी जड़ें और कमजोर होती जाएंगी। विपक्षी नेताओं को भी ऐसा ही खतरा नजर आने लगा है। इसी तरह दूसरी पार्टियों के नेताओं को भी खतरा महसूस होने लगा है। केजरीवाल के सुर भी बदले नजर आ रहे हैं। कांग्रेस ने भी केजरीवाल के प्रति गर्मजोशी दिखानी शुरू कर दी है। शराब नीति घोटाले में सीबीआइ के समन के बाद खड़गे ने केजरीवाल को फोन किया।
गणित यह है कि लोकप्रियता के चरम पर भाजपा को 2019 के लोकसभा चुनाव में 303 सीटें मिलीं, उनमें से 87 प्रतिशत सिर्फ 12 राज्यों- उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, राजस्थान, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड और हरियाणा- में हासिल हुईं। इन सभी में भाजपा की न्यूनतम 10 सीटें थीं, फिर भी पांच में विपक्षी दलों की सरकारें बनीं। विधानसभा चुनावों में महाराष्ट्र और कर्नाटक में दिखा है कि विपक्ष एकजुट होकर लड़े तो सफलता मिल सकती है। महाराष्ट्र में कांग्रेस-राकांपा-शिवसेना की महाविकास अघाड़ी (एमवीए) की सरकार बनी थी और कर्नाटक में जनता दल (सेक्युलर) के एच.डी. कुमारस्वामी के साथ कांग्रेस ने गठबंधन किया था। अलबत्ता दोनों राज्यों में कथित ऑपरेशन कमल के तहत विपक्षी गठबंधन की सरकारें गिर गईं। कहा जा रहा है कि नीतीश ने कांग्रेस से कहा कि वह इसी प्रयोग को आम चुनाव में दोहराने का जज्बा दिखाए।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल
यह भी गौरतलब है कि तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में कुल मिलाकर 101 लोकसभा सीटें हैं, जहां भाजपा का न के बराबर असर है। भाजपा यहां 2019 के चुनाव में सिर्फ चार सीटें जीत सकी थी और चारों सीटें तेलंगाना से थीं। कहते हैं नीतीश ने वाइएसआर कांग्रेस पार्टी के प्रमुख और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाइ.एस. जगन मोहन रेड्डी और बीजू जनता दल के नेता तथा ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से बात करने का जिम्मा लिया है।
बिहार के मुख्यमंत्री लगातार यह तर्क देते रहे हैं कि कांग्रेस के बिना संयुक्त विपक्षी मोर्चा नहीं हो सकता। पिछले साल अगस्त से जब उन्होंने बिहार में भाजपा को छोड़कर राष्ट्रीय जनता दल (राजद), कांग्रेस और चार अन्य दलों के साथ हाथ मिलाकर एक नई सरकार बनाई, तब से वे व्यापक आधार वाला विपक्षी गठबंधन बनाने के लिए काम कर रहे हैं जिसकी धुरी कांग्रेस हो सकती है। सरकार के लिए नए गठबंधन के एक महीने बाद नीतीश ने राहुल और सोनिया गांधी से भी मुलाकात की थी। उनके तर्क के साथ सहमति बनती दिख रही है। 10 से अधिक राज्यों में जहां भाजपा की मजबूत उपस्थिति है, वहां कांग्रेस अपने सहयोगी के साथ या अकेले भी मुख्य मुकाबले में है। गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में उसका सीधा मुकाबला भाजपा से है। कर्नाटक, असम और हरियाणा में यह प्रमुख विपक्षी दल है, जबकि पश्चिम बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र और झारखंड में उसकी महत्वपूर्ण उपस्थिति है।
हालांकि यह भी सही है कि कांग्रेस को अपना घर संभालना है। राजस्थान में फिर सचिन पायलट ने हाल में अनशन करके अपने तेवर दिखाए हैं। उन्होंने मुद्दा यह उठाया कि पिछले चुनाव में भाजपा पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए थे लेकिन उस मामले में अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है। हालांकि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कोई ढील देने को तैयार नहीं दिखते। गहलोत घर संभालने के चक्कर में कर्नाटक के चुनाव प्रचार में भी नहीं गए। सचिन भी प्रचार के लिए नहीं बुलाए गए। वैसे, कांग्रेस आलाकमान ने कोई खास देने की दरकार नहीं समझी। कहा जाता है कि प्रियंका गांधी कुछ बीच-बचाव कर रही हैं। इसी तरह छत्तीसगढ़ में भी टी.एस. सिंहदेव और मुख्यमंत्री बघेल में ठनी है। अगर कांग्रेस को अपना दावा मजबूत करना है तो उसे मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान के चुनावों में बेहतर नतीजे लाने होंगे। कर्नाटक के चुनाव में उसकी संभावनाएं अच्छी दिख रही हैं। अगर इन चुनावों में बेहतर नतीजे नहीं आए तो दूसरी विपक्षी पार्टियों का उस पर दबाव बढ़ जाएगा और सीट बंटवारे के मामले में घाटा सहना पड़ सकता है।
जयपुर में अनशन पर बैठे सचिन पायलट
उधर, भाजपा भी सक्रिय है। हाल में महाराष्ट्र में शरद पवार के भतीजे अजित पवार को लेकर अफवाहें उड़ी थीं, हालांकि बाद में अजित ने खुद इसका खंडन किया। इसी तरह उत्तर प्रदेश में मायावती का रवैया विपक्षी खेमे से दूरी बनाए रखने का बना हुआ है। गौरतलब है कि नीतीश ने लखनऊ जाकर मायावती से मिलने की कोई कोशिश नहीं की। यानी विपक्षी खेमा मानकर चल रहा है कि मायावती उसके पाले से दूर हैं। बेशक, भाजपा की पूरी कोशिश होगी कि विपक्ष में कोई बड़ा एका न बने। संभव है, कर्नाटक चुनाव के बाद नई कोशिशें शुरू हों।
जाहिर है, भारी चुनाव मशीन बन चुकी भाजपा के खिलाफ समूचे विपक्ष को एकजुट करने के लिए चतुर चुनावी अंकगणित और आपसी बातचीत की आवश्यकता है। बतौर मुख्यमंत्री 17 वर्षों के साथ-साथ लोकसभा में छह बार के अनुभव और कई नेताओं के साथ करीबी रिश्ते वाले नीतीश में मौजूदा हालात में विपक्षी एकता के अच्छे सूत्रधार बनने की काबिलियत तो है। जहां तक व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की बात है, तो नीतीश अब तक तो यही कहते आ रहे हैं कि उनकी प्रधानमंत्री बनने की कोई महत्वाकांक्षा नहीं है। उनका यह रुख बदल भी सकता है, लेकिन अभी तक तो उनकी भूमिका विपक्ष को एक मंच पर लाने के लिए मुख्य वार्ताकार की ही है और यह प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनने से कम मुश्किल काम नहीं है। आउटलुक से राजद नेता मनोज झा ने पिछले महीने कहा था कि बस दो-तीन महीने इंतजार कीजिए, सब संभल जाएगा। देखा जाए, आगे क्या होता है।