वाकई गांधी जी आज सबसे ज्यादा याद आते हैं। सिर्फ इसलिए नहीं कि यह उनकी 150वीं जयंती का वर्ष है, आज देश और दुनिया के हालात भी हमें उन्हीं की ओर उन्मुख कर रहे हैं। भारत को आजादी दिलाने वाला वह महापुरुष एक हत्यारे की गोलियों का शिकार हो गया तो अब यह शिद्दत से एहसास होने लगा है कि उनका जीवन ही नहीं, उनकी मृत्य भी एक कालातीत संदेश दे गई। आजादी के वक्त हमारी आबादी करीब 30 करोड़ थी, आज हम करीब 130 करोड़ लोगों का देश हैं। यही नहीं, हम दुनिया की शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं में एक बन गए हैं। भारत ग्लोब्लाइज्ड हो चुका है और बढ़-चढ़कर दावा यह है कि अब अमीरों की दुनिया में हमें बराबरी का स्थान हासिल है। लेकिन गरीब और कमजोर पहले से अधिक गैर-बराबरी झेल रहा है। महात्मा ने जिन-जिन मुद्दों के लिए जीवन खपा दिया, जिसे भयंकर पाप माना, आज वे सभी प्रवृत्तियां हाहाकार मचाने लगी हैं, मानो गांधी को भुलाने का जश्न चल रहा हो। लेकिन दुनिया आज भी भारत में क्या देखना चाहती है, उसका उदाहरण कुछ दिन पहले अमेरिकी शहर ह्यूस्टन में देश के प्रधानमंत्री के सम्मान में अप्रवासी भारतीयों के एक कार्यक्रम में देखने को मिला। वहां एक अमेरिकी राजनेता ने दुनिया के लिए गांधी जी के मूल्यों की अहमियत बताई। यानी दुनिया इस देश को गांधी जी के देश, उनके मूल्यों और दुनिया को दिखाई गई दिशा के रूप में ही याद करती है।
लेकिन, क्या वाकई हम उनके मूल्यों पर चल रहे हैं? दुनिया में भारत की सबसे बड़ी शख्सियत के रूप में पहचाने जाने वाले इस व्यक्ति के मूल्यों और जीवन दर्शन को हमारा देश कितना आत्मसात कर पाया है? इन सवालों के जवाब विचलित करने वाले हैं। गांधी आज देश और दुनिया के लिए कितने प्रासंगिक हैं, इस प्रश्न का जवाब ढ़ूंढ़ने की कोशिश ही आउटलुक का यह विशेषांक कर रहा है। इसमें गांधी जी को समझने वाले, उन पर शोध करने वाले और उस ऐतिहासिक दौर का अध्ययन करने वाले विशेषज्ञों के 12 लेख हैं।
गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष कुमार प्रशांत का लेख पाठकों को उस दुनिया में ले जाता है जो गांधी जी के जीवन, उनके मूल्यों और दर्शन से पाठकों को रू-ब-रू कराता है और याद दिलाता है कि आज कैसी उलटी बयार बह रही है। गांधी जी के पौत्र और सार्वजनिक बुद्धिजीवी प्रोफेसर राजमोहन गांधी बताते हैं कि गांधी के जीवन में असहमति के क्या मायने थे। असहमति के प्रति भारी असहिष्णुता के इस दौर में यह खास संदेश दे जाता है।
प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफेसर इरफान हबीब का लेख गांधी के विचारों में परिवर्तन और लगातार परिमार्जन का सबूत देता है और गांधी के उस वक्तव्य को सार्थक बनाता है कि उनका जीवन ही उनका संदेश है। वे बताते हैं कि कैसे हिंद स्वराज लिखा जाता है और कैसे उसकी बहुत-सी बातें गांधी जी के जीवन में पीछे छूटती जाती हैं। यही नहीं, गांधी के राष्ट्रवाद में भी निरंतर नए आयाम जुड़ते गए हैं और आखिर में वे प्रतिद्वंद्वी राष्ट्र के भी न्यायिक हक की मांग उठाकर मानो राष्ट्रवाद को मानवता के धागे से जोड़ देते हैं। इसी से यह पता चलता है कि जो राष्ट्रवाद अब हमें बताया जा रहा है, वह गांधी का तो कतई नहीं हो सकता।
प्रोफेसर अरुण कुमार बताते हैं कि गांधी जी की आर्थिकी में सबसे आखिरी आदमी ही नहीं, पर्यावरण, पशु-पक्षियों के साथ समग्र धरती के कल्याण की चिंता है। उनकी आर्थिकी में सस्टेनेबिलिटी पर जोर था और विकेंद्रीकरण इसीलिए सबसे लोकतांत्रिक और सबको अधिकार दिलाने का फार्मूला है। यही बाजारवाद की लालच और मुनाफे की व्यवस्था का विकल्प है।
पहला गिरमिटिया के लेखक, प्रसिद्ध साहित्यकार गिरिराज किशोर गांधी जी और कस्तूरबा के जीवन की बारीकियों को सामने लाते हैं। वे गांधी जी के जीवन के बहुत ही अंतरंग मसलों का जिक्र करते हुए गांधी के व्यक्तित्व की विराटता से हमें रू-ब-रू कराते हैं। गांधी के बारे में तरह-तरह की गलतफहमियां पैदा करने की कोशिश के दौर में यह अहम है। गांधी जी के प्रपौत्र तुषार गांधी देश और समाज के मौजूदा माहौल में गांधी जी के मूल्यों की अहमियत बताते हैं। वे कहते हैं कि शायद हम आज उनके मूल्यों के लायक नहीं बचे हैं। गांधी जी केवल सामाजिक और राजनैतिक आंदोलन के केंद्र ही नहीं थे, बल्कि उनको लेकर रचनात्मक दुनिया भी उतनी ही संजीदा थी। प्रयाग शुक्ल और कुलदीप कुमार इसी पक्ष को सामने लाते हैं। जहां कला, संस्कृति और संगीत में उनकी उपस्थिति दिखती है, वहीं माधुरी के पूर्व संपादक अरविंद कुमार हमें गांधी जी पर दुनिया भर में बनी फिल्मों, डॉक्यूमेंटरी और कार्टून सीरीज की दुनिया से रूबरू कराते हैं।
लेकिन इस सबके साथ हम सभी के लिए यह समय आत्मालोचना का भी है कि जिस गांधी के मूल्यों और दर्शन को दुनिया स्वीकार कर रही है, वे हमारे जीवन से गायब हो रहे हैं। वह भी ऐसे दौर में जब हमें उनकी सबसे अधिक जरूरत है। इसलिए 150वीं गांधी जयंती का यह मौका केवल बड़े समारोहों, आयोजनों और कार्यक्रमों का नहीं, बल्कि गांधी को जीवन में आत्मसात करने का है। गांधी हर अन्याय को दूर करने का नाम है। यही उनका मूलमंत्र है।