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जाति गठजोड़ों पर ही जोर

सहयोगियों के सामने भाजपा के झुकने और महागठबंधन में सबको मनमाफिक सीटें नहीं मिलने से बगावत की आशंका, मतदाता भ्रमित
बंटवारा मुकम्मलः सीटों की घोषणा करते भाजपा, जदयू और लोजपा के नेता

कागजी समीकरणों को जमीन पर उतारना आसान नहीं होता। शायद यही वजह है कि बिहार और उससे अलग हुए झारखंड में महागठबंधन के साझेदारों को मनमाफिक सीटें नहीं मिलीं। बिहार कांग्रेस प्रचार समिति के अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद अखिलेश सिंह की ओर से 11 सीटों पर उम्मीदवार उतारने के ऐलान के बावजूद कांग्रेस को राजद आठ से ज्यादा सीट देने को तैयार नहीं दिखा। राजद नेताओं का कहना है कि महागठबंधन में शामिल दलों की संख्या ज्यादा होने के कारण कांग्रेस को पिछली बार के मुकाबले अपनी सीटें कम करनी होंगी। कांग्रेस कई बड़े नामों को साथ जोड़ने का दावा कर उसके इस तर्क को खारिज कर रही। अब तलाश ऐसे फॉर्मूले की है जिससे बगावत की आशंका कम से कम हो। 

महागठबंधन के समीकरणों की वजह से ही भाजपा को इस बार अपने सहयोगियों के सामने झुकना पड़ा है। बिहार में पिछले लोकसभा चुनाव में जीती छह सीटें भाजपा ने सहयोगियों के लिए छोड़ी है। नीतीश कुमार की जदयू के लिए पांच तो रामविलास पासवान की लोजपा के लिए एक। इतना ही नहीं, झारखंड में भी उसने सहयोगी आजसू के लिए जीती हुई एक सीट छोड़ दी है।

बिहार 40 तो झारखंड 14 सांसदों को लोकसभा में भेजता है। पिछले लोकसभा चुनाव में त्रिकोणीय मुकाबले की वजह से भाजपा बिहार की 22 और झारखंड की 12 यानी कुल 34 सीटें जीतने में कामयाब रही थीं। उसके सहयोगियों को बिहार में नौ सीटें मिली थी। लेकिन, इस बार भाजपा बिहार, झारखंड की केवल 30 सीटों पर ही खुद चुनाव लड़ रही है। समाजशास्‍त्री नवल किशोर चौधरी कहते हैं, “2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों से जाहिर है कि आमने-सामने की टक्कर में भाजपा विपक्ष को परास्त करने में सक्षम नहीं है। लिहाजा उसने सहयोगियों के सामने झुकना कबूल कर लिया है।” उनके अनुसार पिछले चुनाव की तरह मोदी लहर नहीं होने के कारण चुनाव में एक बार फिर जातीय समीकरण महत्वपूर्ण हो गए हैं।

महागठबंधन 2017 में जदयू की एनडीए में वापसी के बाद से ही जातीय  समीकरणों को मांज रहा है। इस कड़ी में उसने पहले पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी की ‘हम’ को जोड़ा, फिर पूर्व केंद्रीय राज्यमंत्री उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा और सन ऑफ मल्लाह के नाम से मशहूर मुकेश साहनी की विकासशील इंसान पार्टी साथ आई। साहनी और कुशवाहा पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ थे। पर्दे के पीछे से सपा, बसपा और वाम दलों को भी साधने की कोशिश हो रही। इस उम्मीद में कि राजद के माय (मुस्लिम-यादव) समीकरण में मांझी महादलित, कुशवाहा, कोइरी और साहनी निषाद-धानुक-बिंद जातियों का वोट जोड़ने में कामयाब रहेगा। कांग्रेस पहले से ही भाजपा के सवर्ण वोट बैंक खासकर, भूमिहारों के बीच सेंधमारी के प्रयास में लगी है। इसी तरह के समीकरण झारखंड में भी झामुमो, झाविमो, राजद और कांग्रेस के साथ आने से भी उभर रहे हैं।

लेकिन, सीटों पर तस्वीर स्पष्ट नहीं होने से महागठबंधन के साझेदारों के साथ-साथ मतदाता भी दुविधा में हैं। पूर्णिया जिले के किसान गिरींद्रनाथ झा ने आउटलुक को बताया, “ग्रामीण इलाकों में लोगों से बातचीत करने पर यह बात समझ में आती है कि मतदाता इस बार भ्रमित हैं। लोगों को अब तक यह पता नहीं चल पाया है कि उनके इलाके से कौन चुनाव लड़ेगा। लोग बस मोदी, राहुल और पाकिस्तान की बात कर रहे हैं। स्थानीय मुद्दे, जरूरत और विकास वगैरह की बात कोई नहीं कर रहा। हां, जाति की बात खूब हो रही है।”

जातिगत समीकरण की वजह से ही बिहार के मगध, कोसी, अंग की 18 सीटों में से केवल दो सीटों औरंगाबाद और अररिया से ही भाजपा चुनाव लड़ रही है। इन इलाकों में मुस्लिम, यादव, दलित और अन्य पिछड़ी जातियों का प्रभाव है। भाजपा ने खुद को इस बार भोजपुर, तिरहुत और चंपारण के इलाकों में समेट लिया है, जहां अब भी सवर्णों का दबदबा माना जाता है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष नित्यानंद राय ने आउटलुक से कहा, “जदयू के एनडीए में लौटने के बाद भाजपा की सीटें कम होनी ही थीं। हमने जो सीटें सहयोगियों को दी है उनमें ज्यादातर ऐसी हैं जहां 2014 में भाजपा नहीं जीती थी।” लेकिन, पार्टी के कार्यकर्ताओं और समर्थकों का कहना है कि गठबंधन की वजह से भले 17 सीटों पर लड़ना भाजपा की मजबूरी हो, लेकिन सभी इलाकों में अपना प्रतिनिधित्व रखकर उसे चुनावी मैदान में उतरना चाहिए था। इसका असर भी दिखने लगा है।

केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह अपनी नवादा सीट लोजपा को दिए जाने पर खुलकर नाराजगी जता चुके हैं। गिरिराज का कहना है, “गठबंधन की मजबूरी समझ सकता हूं, लेकिन जब राज्य से केंद्रीय कैबिनेट में शामिल किसी और व्यक्ति की सीट पार्टी ने सहयोगी को नहीं दी, तो केवल मेरे साथ ऐसा क्यों किया गया।” कटिहार सीट जदयू को दिए जाने से खफा भाजपा के विधानपार्षद अशोक अग्रवाल निर्दलीय मैदान में उतरने की तैयारी कर रहे हैं। झारखंड की गिरिडीह सीट आजसू को देने के ऐलान के बाद से कार्यकर्ताओं के भाजपा छोड़ने का सिलसिला थम नहीं रहा। यहां के मौजूदा सांसद रवींद्र पांडे झामुमो के संपर्क में बताए जा रहे हैं। झारखंड में पहले आजसू को भाव नहीं दे रही भाजपा को केवल विपक्षी गठबंधन की वजह से ही नहीं झुकना पड़ा है। जमशेदपुर के सामाजिक कार्यकर्ता रमेश टुड्डू ने बताया कि प्रदेश की भाजपा सरकार से लोग बहुत नाराज हैं। राजधानी रांची सहित प्रदेश के तमाम बड़े शहरों में बिजली-पानी का घोर संकट है। धनबाद के मृत्युंजय पाठक का कहना है कि पाकिस्तान पर एयरस्ट्राइक का भाजपा को फिलहाल लाभ दिख रहा है। लेकिन, झारखंड में आखिरी के चार चरणों में चुनाव होने हैं। ऐसे में इसका प्रभाव बनाए रखना भाजपा के लिए बड़ी चुनौती होगी।   

भितरघात की आशंका से विपक्षी खेमा भी सशंकित है। झारखंड की गोड्डा सीट से टिकट नहीं मिलने पर पूर्व सांसद फुरकान अंसारी कांग्रेस को बगावत की चेतावनी दे चुके हैं। बिहार में तो चुनौती और बड़ी दिख रही। असल में, यहां कांग्रेस हर दल के असंतुष्टों के लिए महीनों से हॉट केक बनी हुई है। दरभंगा के सांसद कीर्ति आजाद, कटिहार के सांसद तारिक अनवर और पूर्व सांसद लवली आनंद टिकट के लिए कांग्रेस में शामिल हो चुकी हैं। सांसद पप्पू यादव, बाहुबली अनंत सिंह, पूर्व सांसद पप्पू सिंह भी कांग्रेस के टिकट के तलबगार हैं। लेकिन, कांग्रेस को गठबंधन में इतनी सीटें मिलने की उम्मीद नहीं दिखती कि वह सब को एडजस्ट कर सके। दरभंगा से महागठबंधन के एक अन्य नेता मुकेश साहनी भी टिकट पर अड़े हैं, तो कटिहार से राकांपा पूर्व विधायक मोहम्मद शकूर को उतारने की तैयारी में है। टिकट नहीं मिलने पर हम और रालोसपा के भी कुछ नेता बगावत की तैयारी में हैं। सपा, बसपा और वाम दल भी अलग चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं।

ऐसे में गेंद एक बार फिर राजद के करिश्माई संस्थापक और जेल में बंद लालू प्रसाद यादव के पाले में है। महागठबंधन नेताओं को उम्मीद है कि वे टूट रोकने का कोई रास्ता निकाल लेंगे। इसी उम्मीद में हाल में उनसे जेल में शरद यादव, जीतनराम मांझी, तारिक अनवर, सुबोधकांत सहाय, शकील अहमद, झामुमो के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन जैसे महागठबंधन के नेता मिल चुके हैं।

आखिर वह लालू ही तो हैं जिन्होंने ‘इंडिया शाइनिंग’ के रथ पर सवार भाजपा को 2004 में गठबंधन के दम पर हराने का रास्ता दिखाया था। तब बिहार-झारखंड में लालू के नेतृत्व वाले गठबंधन ने भाजपा नीत एनडीए को 12 सीटों पर समेट दिया था। 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में भी उनका यह फॉर्मूला कारगर रहा। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि विपक्षी दल 2004 के नतीजों से सीख लेते हैं या फिर वे 2009 की गलती दोहराएंगे, जब केंद्र की सत्ता में यूपीए की वापसी के बावजूद बिहार-झारखंड में एनडीए 40 सीटें जीतने में कामयाब रहा था।

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