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विकास की रफ्तार झूठी, आंकड़ों की साख लुटी

पहले असंगठित क्षेत्र का आंकड़ा संदिग्ध था लेकिन अब संगठित क्षेत्र के आंकड़ों पर भी संदेह, नीतियां विकास और रोजगार की संख्या पर आधारित होती हैं, इसलिए अब वे भी सवालों के घेरे में
जीडीपी के आंकड़ों पर सवाल

सरकारी आंकड़े जुटाने वाली एजेंसी एनएसएसओ से उभरे सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के नए आंकड़ों को लेकर हालिया विवाद से खुलासा होता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के आकार पर गहरे संदेह पैदा हो गए हैं। इससे तो यह नारा ही दम तोड़ देता है कि भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती हुई बड़ी अर्थव्यवस्था है। भारत की विकास दर के बारे में संदेह तो पिछले एक साल से घने हो रहे हैं, लेकिन 2015 में ही जीडीपी को लेकर कई सवाल उठने लगे थे। इसलिए भारतीय अर्थव्यवस्था के आकार को लेकर गंभीर सवाल अब चौथी बार उठे हैं। ये सवाल बड़े हैं और इनका एक-दूसरे से मुकम्मल रिश्ता है, इसलिए यह जानना बेहद जरूरी है कि हकीकत क्या है?

2015 में जीडीपी की नई सीरीज का ऐलान किया गया। इसके तहत गणना का आधार वर्ष बदलकर 2004-05 के बदले 2011-12 कर दिया गया। इसमें कोई दिक्कत नहीं है, क्योंकि टेक्नोलॉजी बदलने से अर्थव्यवस्था और उत्पादों के स्वरूप में आए बदलाव को ध्यान में रखकर समय-समय पर आधार वर्ष बदला जाता है। मसलन, टाइपराइटरों की जगह कंप्यूटर आ गए और ई-कॉमर्स की नई आमद नए आंकड़ों में दिखाई जा सकती है।

‌लेकिन जिन नए आंकड़ों से विवाद पैदा हुआ, उसका एक पहलू यह भी था कि 2011-12 के बाद जीडीपी और उसकी वृद्धि दर दोनों ऊंची हो गई। (पुरानी सीरीज के आधार पर) पहले के आंकड़ों के उलट यूपीए-2 के दौरान भी प्रदर्शन पहले से बेहतर निकला। एनडीए सरकार ने आर्थिक प्रदर्शन में शानदार सुधार के लिए श्रेय लेना शुरू कर दिया।

विवाद की जड़ यह थी कि नई सीरीज में निजी संगठित क्षेत्र के लिए इस्तेमाल में लाया गया डेटा बेस पहले से अलग था। यह नया डेटा बेस कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय (एमसीए) से उपलब्ध एमसीए21 था। यह मंत्रालय में पंजीकृत और सालाना रिटर्न फाइल करने वाली लगभग छह लाख कंपनियों की सूची थी। पहले का डेटा केवल कुछ हजार कंपनियों का था। यह बदलाव स्वाभाविक लग रहा था, क्योंकि यह इस क्षेत्र का बेहतर प्रतिनिधित्व कर सकता था।

एमसीए21 सीरीज 2006 से उपलब्ध थी, लेकिन यह 2011-12 तक स्थिर नहीं हो पाई थी। तभी उसे नई सीरीज में इस्तेमाल किया जा सकता था। लेकिन इस बदलाव से पुरानी और नई सीरीज के बीच तुलना असंभव हो गई। अगर पहले के वर्षों (2011-12) में अधिक कंपनियों के डेटा का उपयोग किया जाता, तो उससे भी उच्च जीडीपी और उच्च वृद्धि दिख सकती थी। इसीलिए, जीडीपी में जब भी आधार वर्ष बदला जाता है, तो नई पद्धति के आधार पर पुराने आंकड़ों को भी संशोधित किया जाता है। लेकिन ऐसा नई सीरीज के लिए 2011-12 आधार वर्ष के साथ नहीं किया जा सकता था, क्योंकि पहले का डेटा तुलनात्मक आधार पर उपलब्ध नहीं था।

सरकार ने उचित समय में बैक सीरीज का वादा किया। राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग (एनएससी) ने बैक सीरीज को देखने के लिए एक उप-समिति का गठन किया। अगस्त 2018 में उसकी रिपोर्ट से पता चला कि 2014 के बाद एनडीए की तुलना में यूपीए-1 और यूपीए-2 सरकार के दौरान अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन बेहतर था। सरकार ने इस रिपोर्ट को खारिज कर दिया और तर्क दिया कि यह केवल एक मसौदा था।

सरकार ने नवंबर 2018 में अपनी रिपोर्ट पेश की, जिसमें दिखाया गया कि एनडीए की तुलना में यूपीए का प्रदर्शन खराब था। इस पर विपक्ष के तेवर तीखे हो गए। इस सीरीज की विश्वसनीयता पर सवाल इसलिए उठे, क्योंकि इसमें नोटबंदी के वर्ष में भी उच्च वृद्धि दिखाई गई, जबकि सभी साक्ष्य इसके उलट थे।

यह कैसे किया जा सकता है? यह याद रखना चाहिए कि जीडीपी एक ‘अनुमान’ है। अर्थव्यवस्था में हर उत्पादक उस एजेंसी के पास अपने उत्पादन की रिपोर्ट करने नहीं जाता है, जो अर्थव्यवस्था में उत्पादन की गणना करने के लिए रिपोर्ट किए गए सभी आंकड़ों को एकत्र करती है। कुछ आंकड़ों, कई मान्यताओं और काफी हद तक सांख्यिकीय जोड़-घटाव के आधार पर जीडीपी का अनुमान लगाया जाता है। आकलन को बदलकर अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों के योगदान को जीडीपी में बदला जा सकता है। उदाहरण के लिए, तेजी से बढ़ते सेवा क्षेत्र के प्रदर्शन को यदि पहले की अवधि में नीचे रखा गया और बाद वाले हिस्से में अधिक किया गया है, तो एनडीए अवधि की तुलना में यूपीए के कार्यकाल में वृद्धि को कम दिखाया जा सकता है।

इसलिए, अब हमारी जीडीपी को लेकर चौथा विवाद पैदा हो गया है, क्योंकि खुद नई एमसीए21 सीरीज के बारे में संदेह पैदा हो गया है। एमसीए21 डेटा बेस में 36 फीसदी ‘सक्रिय’ कंपनियों का पता नहीं लगाया जा सका या पाया गया कि पंजीकरण के समय उन्होंने जो बताया था, अब उसका उत्पादन नहीं कर रही हैं। जिस समिति ने जीडीपी के लिए एमसीए21 के इस्तेमाल को देखा था, उसने स्वयं कई समस्याओं का पता लगाया था और आखिरकार जो किया गया, उसे लेकर जब समिति के सदस्यों में से एक ने असहमति जताई, तो विवाद खड़ा हो गया।

यदि कंपनियां गायब हैं, तो जीडीपी का अनुमान बेहिसाब बढ़े होने की आशंका है। कारण यह है कि जिन कंपनियों ने डेटा की सूचना नहीं दी, उनके खाते के मामले में उपलब्ध डेटा हवा-हवाई ही हैं। धारणा यह है कि कंपनियां मौजूद हैं, लेकिन उन्होंने कुछ कारणों से रिपोर्ट नहीं दी है। लेकिन तब क्या होगा अगर कंपनियां फर्जी हों या उनका अस्तित्व ही न हो।

विशाल ब्लैक इकोनॉमी वाले भारत में कम लाभ दिखाने के लिए उत्पादन डेटा के साथ हेरफेर किया जाता है। इसके लिए शेल और बेनामी कंपनियों का इस्तेमाल किया जाता है। ये फर्जी कंपनियां हैं, जिनका उपयोग मालिकों की मुख्य कंपनियों से लाभ और पूंजी निकालने के लिए किया जाता है। भारत में ऐसी कंपनियों की संख्या बहुत अधिक है। सरकार ने नोटबंदी के बाद ढाई लाख शेल कंपनियों को बंद करने का दावा किया है।

शेल कंपनियां कई तरह का काम करती हैं और कुछ मामलों में वे अर्थव्यवस्था के उत्पादन को प्रभावित नहीं करती हैं, लेकिन कुछ अन्य मामलों में वे आउटपुट पर डेटा में गड़बड़ियां करती हैं, जैसा कि इस लेखक ने ब्लैक इकोनॉमी पर अपने अध्ययन में चर्चा की है। इसके अलावा, अगर फर्जी कंपनियों के मामले में बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है, तो जीडीपी का बहुत अधिक अनुमान लगाया जा सकता है। एमसीए21 के उपयोग को अंतिम रूप देने वाली समिति को यह अध्ययन करने की आवश्यकता थी कि किस प्रकार और किस आधार पर उन मामलों की जरूरत थी। यह स्पष्ट रूप से नहीं किया गया और इसीलिए संदेह होता है कि नई सीरीज में जीडीपी को बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया है।

विशुद्ध परिणाम यह है कि संगठित निजी क्षेत्र का डेटा संदिग्ध है। लेकिन समस्या यहीं खत्म नहीं होती है। अर्थव्यवस्था का 45 फीसदी उत्पादन करने वाले व्यापक असंगठित क्षेत्र का आकलन संगठित क्षेत्र के आंकड़ों का इस्तेमाल करके किया जाता है। इसलिए, संगठित क्षेत्र के आंकड़े ही गलत हैं, तो असंगठित क्षेत्र का डेटा भी गलत होगा। इससे जीडीपी डेटा को दोहरी मार झेलनी पड़ती है।

समस्या यहीं नहीं खत्म होती है। सरकार रोजगार का डेटा जारी नहीं कर रही है- चाहे एनएसएसओ का हो या मुद्रा लोन वाला। इससे भी बदतर यह है कि किसी के पास भरोसेमंद डेटा ही नहीं है। लेकिन असंगठित क्षेत्र के उत्पादन का अनुमान लगाने के लिए भी इस डेटा की आवश्यकता है। इसलिए, सरकार कह रही है कि असंगठित क्षेत्र के आंकड़ों का अनुमान नहीं लगाया जा सकता है और यदि ऐसा है, तो फिर जीडीपी के अनुमान में एक बड़ा छेद है।

समस्या तब और बढ़ जाती है जब अर्थव्यवस्था को झटका लगता है, जैसा कि नोटबंदी और जीएसटी से हुआ। इन झटकों से असंगठित क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हुआ, जिससे संगठित और असंगठित क्षेत्रों के बीच अनुपात बदल गया। इस झटके के तुरंत बाद असंगठित क्षेत्र के लिए एक नए सर्वे की जरूरत थी, लेकिन ऐसा नहीं किया गया।

निजी एजेंसियों ने इस तरह के सर्वे किए और उन्होंने असंगठित क्षेत्र में भारी गिरावट देखी। प्रेशर कुकर उद्योग, जूता उद्योग वगैरह की रिपोर्टें अर्थव्यवस्था की असंगठित क्षेत्र की जगह संगठित क्षेत्र से मांग में बदलाव को दिखाती है। बेरोजगारी पर लीक हुए आधिकारिक आंकड़े और सीएमआइई के हाउसहोल्ड सर्वे के आंकड़े रोजगार में भारी गिरावट की ओर इशारा करते हैं। पिछले तीन वर्षों में मनरेगा के तहत काम की मांग में वृद्धि भी इस विचार का समर्थन करती है कि गरीबों ने अपना नियमित काम खो दिया है।

यह सब बताता है कि असंगठित क्षेत्र का आकार घट रहा है (विकास दर नकारात्मक है) और इसलिए अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर लगभग एक फीसदी है, जैसा कि यह लेखक तर्क देता रहा है। अब जबकि संगठित क्षेत्र की वृद्धि दर के बारे में संदेह है, तो समग्र वृद्धि दर और भी कम होगी। यह रोजगार के संकट, कृषि क्षेत्र में संकट, उद्योगों में कम क्षमता के उपयोग और निवेश जीडीपी के लगभग 32 फीसदी बना हुआ है, जो पहले के 38 फीसदी से बहुत कम है। ये सभी समस्याएं अर्थव्यवस्था की सात फीसदी की वृद्धि दर के अनुरूप नहीं हैं। यह अब ऑटोमोबिल्स और एफएमसीजी जैसी टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं की मांग में गिरावट को दिखाता है और हालिया औद्योगिक उत्पादन सूचकांक का आंकड़ा ऋणात्मक हो गया है।

संक्षेप में, पहले असंगठित क्षेत्र का आंकड़ा संदिग्ध था लेकिन अब संगठित क्षेत्र के आंकड़ों पर भी संदेह है। सरकार खुद कह रही है कि रोजगार के अच्छे आंकड़े नहीं हैं। यह सब भारतीय अर्थव्यवस्था के आंकड़ों की विश्वसनीयता को प्रभावित करता है। आइएमएफ, विश्व बैंक और आरबीआइ ने आधिकारिक आंकड़ों का इस्तेमाल किया है और उनकी विश्वसनीयता भी दांव पर है। बजट वृद्धि के आंकड़ों पर निर्भर करता है, इसलिए इसकी संख्या अब कम विश्वसनीय लगती है। नीतियां विकास और रोजगार की संख्या पर आधारित होती हैं, इसलिए अब वे भी संदिग्ध होंगी।

(लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में मैल्कम आदिशेषैया चेयर प्रोफेसर हैं और हाल में जीएसटी पर पेंग्विन रैंडम हाउस से छपी उनकी किताब ‘ग्राउंड स्कॉर्चिंग टैक्स’ आई है)

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