Advertisement

फीफा विश्व कप 2002 : खून और आंसुओं भरा फर्स्ट हॉफ

कतर में फुटबॉल विश्व कप 2022 के आयोजन की तैयारियों में मारे गए भारतीय मजदूरों के परिजनों को मुआवजे का लंबा इंतजार
निर्माण कार्य में मारे गए प्रवासियों के लिए पेरिस में कतर दूतावास के बाहर विरोध

कोलंबिया के खिलाड़ी गेराडो बेडोया को ‘द बीस्ट’ या जानवर कहे जाने की वजह तो है। फुटबॉल के इतिहास में सबसे ज्यादा रेड कार्ड (46) उनके नाम जो हैं। कइयों का मन कतर 2022 के विश्व कप आयोजन को भी गेराडो बेडोया नाम से नवाजने के लिए मचल रहा है। विवादास्पद ढंग से मेजबान देश के रूप में कतर के चयन के बाद वहां 2010 में शुरू हुईं तैयारियों के दौरान तकरीबन 7,000 मजदूरों की मौत से इस टूर्नामेंट पर लगे बदनामियों के कुछ दाग यकीनन आयोजक संस्था फीफा के माथे पर भी लगे हैं। विश्व कप या ओलंपिक आयोजनों की बोली शायद ही चीख-चिल्लाहट से परे साफगोई वाली प्रक्रिया में होती है। ये बेहद खुशामदी मामले होते हैं, जिसमें अमूमन मेजबान बनने की ख्वाहिश रखने वाले देश्ा संबंधित अधिकारियों और नेताओं को महंगे तोहफों से नवाज देते हैं। मजदूर तो बस नींव में दबने वाले पत्थर होते हैं, ताकि समय पर इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार हो सके। 2018 के विश्व कप आयोजन के पहले रूस में 21 मजदूर निर्माण-स्थलों पर मारे गए थे। लेकिन कतर के मामले में फीफा और आयोजकों की बेपरवाही का आलम चरम पर पहुंच गया।

कतर में फुटबॉल का ऐसा माहौल नहीं कि वह विश्व कप का आयोजन करे। इसलिए यह अटकल स्वाभाविक है कि यहां मंजूरी की खातिर दूसरी वजहों को तरजीह दी गई। फिर, ऐसे बड़े आयोजन के लिहाज से यह छोटा-सा देश है, 1954 में विश्व कप की मेजबानी करने वाले स्वीट्जरलैंड से भी छोटा।

विश्व कप के झमेलों की आंच अमूमन भारतीयों तक नहीं आती, लेकिन इस बार तपिश यहां तक पहुंची। दोहा में भारतीय दूतावास के आंकड़ों के मुताबिक, कतर में 2010 से मरने वाले लगभग 7,000 मजदूरों में 2,711 भारतीय थे। प्रवासी कल्याण फोरम के अध्यक्ष भीम रेड्डी मंधा आउटलुक को बताते हैं, “विश्व कप से कतर की अर्थव्यवस्था में 17 अरब डॉलर का इजाफा होने की उम्मीद है। यानी मजदूरों के खून-पसीने से वे भारी मुनाफा कमाने जा रहे हैं।”

दोहा में लुसाली स्टेडियम में काम करते मजदूर

दोहा में लुसाली स्टेडियम में काम करते मजदूर

मारे गए अधिकांश मजदूरों के परिवारों को अब तक नियोक्ताओं से मुआवजा नहीं मिला है। इन मजदूरों को आयोजक के बजाय छोटी एजेंसियां नियुक्त करती हैं। ज्यादातर मामलों में मृत्यु की वजह दिल का दौरा बताई जाती है। इसलिए, कानूनन विश्व कप के आयोजक मजदूरों के परिवारों को मुआवजा देने के लिए जवाबदेह नहीं होते। आधिकारिक रिकॉर्ड के अनुसार, सिर्फ 37 मौतें ही विश्व कप स्टेडियम निर्माण से सीधे जुड़ी हुई थीं।

जहां तक बीमा का संबंध है, अधिकांश मजदूरों के पास प्रवासी भारतीय बीमा योजना (पीबीबीवाइ) का कार्ड है। लेकिन कुछ शर्तें हैं। तेलंगाना प्रवासी मित्र श्रमिक संघ के अध्यक्ष स्वदेश पार्कीपंडला कहते हैं, “पीबीबीवाइ आम तौर पर केवल आकस्मिक मृत्यु, नौकरी छूटने या मातृत्व संबंधी स्थितियों को कवर करती है। इसके अलावा, ईसीएनआर (इमेग्रेशन चेक जरूरी नहीं) पासपोर्ट धारक पीबीबीवाइ के लिए योग्य नहीं होते हैं।” मतलब जिन परिवारों ने परिजनों को तनाव के कारण होने वाली मौत में खो दिया है, उनके पास कोई सुरक्षा जाल नहीं है।

रेड्डी कहते हैं, “लेकिन यह सब विश्व कप से जुड़ा है।” उनकी दलील है कि 2010 से कतर में सभी निर्माण गतिविधियां प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विश्व कप से जुड़ी हुई थीं, इसलिए मारे गए लोगों के परिजनों को विश्व कप समिति या कतर सरकार से मुआवजा मिलना चाहिए। उनकी मांग है कि आधिकारिक रिकॉर्ड में दर्ज कारण चाहे जो हों, हर मौत की जांच की जानी चाहिए।

रेड्डी कहते हैं, “कोई दिन की भीषण गर्मी में कड़ी मेहनत करता है और रात में हॉस्टल में निढ़ाल होकर सांस खो बैठता है। ऐसे में वे (आयोजक) कैसे कह सकते हैं कि यह दिल का दौरा है और विश्व कप से जुड़ा नहीं है। आखिर उस शख्स को हार्ट अटैक क्यों आया? इसकी जांच होनी चाहिए। विश्व कप समिति और कतर सरकार अपवाद मामलों को छोड़कर हर मजदूर की मौत के मुआवजे का भुगतान करे।”

बिहार के छपरा में सविता कुमार ने करीब एक साल पहले पति अखिलेश को कतर में खो दिया। उनकी चार साल की एक छोटी बच्ची है। अखिलेश वहां प्लंबर थे। दोहा में एक मैच स्थल के पास जब वह भूमिगत पाइप लगाने की कोशिश कर रहे थे तभी उनके ऊपर पत्थर और मिट्टी का ढेर ढह गया। सविता को अब तक मुआवजा नहीं मिला है। फीस न दे पाने से उनकी बेटी ने हाल ही में स्कूल जाना बंद कर दिया है।

कतर में विश्व कप के लिए निर्माण की भारी गतिविधि शुरू हुई तो तेलंगाना के निजामाबाद में रहने वाले अब्दुल मजीद ने 2014 में वहां भारी वाहन चालक का काम पकड़ लिया। वहां गर्मी थी, मगर बाकी सब ठीक था। वे इससे नावाकिफ थे कि उनकी सेहत बिगड़ रही है। आखिर 2020 में उनका निधन हो गया।

मजीद के बेटे जमीर ने आउटलुक को बताया, “अब्बा के गुजर जाने के बाद हमने उनके एक रूममेट से बात की। उन्होंने बताया कि अब्बा छह महीने से अस्पताल में थे और फिर उन्हें दिल का दौरा पड़ा। छह महीने तक किसी ने हमें उनकी तबीयत के बारे में नहीं बताया। वे परिवार में अकेले कमाने वाले थे।” उन्हें भी मुआवजा नहीं मिला है। ग्रेजुएशन कर रहे जमीर के बड़े भाई दुकान चलातें हैं। वही सबका सहारा है।

सरकारी मदद का हाल

असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के मामले में अधिकारियों को रुचि नहीं होती। अरब देशों में भारतीय मजदूरों की संख्या का डेटा नहीं है। इससे मुआवजा हासिल करने में अड़चन पैदा होती है। 2020 में खाड़ी में भारतीय मजदूरों के न्यूनतम रेफरल वेतन कम करने के विदेश मंत्रालय के फैसले से मजदूरों की स्थिति कमजोर हो गई है। औपचारिक तौर पर सरकार के इस कदम का मकसद कोरोनोवायरस के बाद रोजगार के अवसर बढ़ाना था, लेकिन इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। कतर में, न्यूनतम रेफरल वेतन घटकर हर महीने में 200 डॉलर (लगभग 16,250 रुपये) हो गया है। पार्कीपंडला कहते हैं, “पिछले साल, हमने विदेश राज्यमंत्री वी. मुरलीधरन से मुलाकात कर सर्कुलर रद्द करने का अनुरोध किया था।” एक हद तक रोलबैक हुआ भी, लेकिन नुकसान तो हो चुका था। कतर के तौर-तरीकों पर दुनिया भर में विरोध हुआ, तो आयोजकों को कम से कम कुछ गलतियां स्वीकार करने और एक समझौता करने के लिए मजबूर किया जा सका है। अब, एक्टीविस्टों को उम्मीद है कि भारत सरकार भी शिकंजा कस कर कुछ कड़े तेवर अपना सकती है, बशर्ते वह चाहे।

रेड्डी कहते हैं, “यह अंतरराष्ट्रीय मामला है और हमारे पास सीमित संसाधन हैं। इसलिए हम भारत सरकार से अनुरोध कर रहे हैं कि वह कतर से अपने अच्छे और द्विपक्षीय संबंधों का इस्तेमाल करे, ताकि पीडि़त परिवारों को न्याय मिल सके।”

इससे जो दुनिया छोड़ चुके, वे तो वापस नहीं आ सकते, लेकिन छपरा में चार साल की बच्ची शायद फिर से स्कूल जा सकती है और जमीर अपना पोस्ट-ग्रेजुएशन पूरा कर सकता है। फुटबॉल की शब्दावली में कहें, तो नया जोश-खरोश हासिल कर सकते हैं।

Advertisement
Advertisement
Advertisement