आम जन के विलक्षण किस्सागो फणीश्वर नाथ रेणु का यह जन्म शताब्दी वर्ष (4 मार्च 1921-11 अप्रैल 1977) है। वे जन मुक्ति के गायक थे। अंधेरे-उजाले के बीच आवाजाही करती पगध्वनियां उन्हें घर से निकाल कभी कोसी के कछार तक ले जाती थीं तो कभी घर के चूल्हें पर चढ़ी पतीली के आसपास होती बतकही तक। वहां से वे उन कमजोर दबी आवाजों को उठाते और अपनी कलम के जोर से उसे विस्तृत फलक पर मुखर कर देते हैं। कलम का यह जादूगर पाठकों को हर बार अपनी लेखनी से विस्मित कर देता हैं, हर बार हम उसमें खो जाते हैं और खुद को उनके पात्रों में ढूंढ़ने लगते हैं। उनकी शैली अपूर्व है। वह मनुष्यों की ही नहीं, नदियों, पंछियों, बादलों, वनस्पतियों की भाषा भी जानते थे। जब वे उसे अभिव्यक्त करते तो कई छवियां उजागर हो जातीं।
1974 के बिहार आंदोलन में हम साथ थे। उनकी लेखनी का कायल छात्र जीवन से रहा, मगर उनके व्यक्तित्व की सुगंध 8 अप्रैल, 1974 को मिली जब जेपी ने शांति में विश्वास रखने वाली निर्दलीय शक्तियों की ओर से सरकार की बदगुमानी के विरुद्घ मौन जुलूस निकालने का निर्णय लिया। दूसरे दिन वह मौन जुलूस निकला जिसमें 1,500 लोगों ने शिरकत की। हाथ पीछे बंधे थे और मुंह पर काली पट्टियां थीं। मौन जुलूस में रेणु सबसे आगे थे।
रेणु हर तरह के दमन, पाखंड के विरुद्घ हमेशा खड़े रहे। उनके संपूर्ण लेखन में भाववाद, वस्तुवाद के साथ एक मानवीय व्यवस्था को स्थापित करने की चिंता है। मुंशी प्रेमचंद के लेखन में जो ग्रामीण रसिकता और अनकहा प्रेम, संघर्ष, दुख छूट गया था, उसे रेणु ने मर्मांतक ढंग से आगे बढ़ाया। वह चाहे विदापत नाच का विकटा जोकर हो, तीसरी कसम का गाड़ीवान हीरामन हो, चाहे रसप्रिया का नायक पचकौड़ी हो या मैला आंचल उपन्यास का वामन दास हो, जिसके शव को हिंदुस्तान, पाकिस्तान की सीमा के सिपाही इस पार से उस पार फेंकते हैं, यह कहते हुए कि यह मेरे देश का नहीं है।
रेणु का सफर 1942 के स्वतंत्रता संग्राम से लेकर 1974 के बिहार आंदोलन तक ही नहीं, बल्कि पड़ोसी देश नेपाल में राजशाही के खात्मे और लोकशाही की बहाली के सशस्त्र आंदोलन तक फैला है। वे हमारे समय के सबसे बड़े एक्टिविस्ट लेखकों में एक थे जिन्होंने 1974 के बिहार आंदोलन में केंद्र सरकार की दमनकारी नीतियों के विरुद्घ पद्मश्री अवार्ड वापस किया था और राष्ट्रभाषा परिषद के मासिक मुआवजे को लेने से भी इनकार कर दिया था। कमजोर वर्ग की समस्याओं को लेकर जब भी कोई आंदोलन खड़ा हुआ, रेणु उसमें दिखे। भूदान आंदोलन में भी राष्ट्रकवि दिनकर के साथ कूद पड़े जबकि देश के तमाम लेखकों ने उससे मुंह फेर लिया था, उनके समाजवादी वरिष्ठ साथियों ने भी। उन्होंने किसी की परवाह नहीं की, क्योंकि उस आंदोलन में भूमिहीनों को जमीन मिलने की बात थी।
याद आ रहा है कि इमरजेंसी के दौरान कवियों में बाबा नागार्जुन, रामप्रिय मिश्र ‘लालधुआं’ और मैं विभिन्न जेलों में डाल दिए गए थे। रेणु नेपाल में भूमिगत थे। कुछ महीने बाद जेपी मरणासन्न हालत में चंडीगढ़ जेल से पेरोल पर रिहा होकर अपने पटना स्थित निवास आ गए। संयोग से मैं भी फुलवारी शरीफ जेल से बाहर आया। छूटते ही जेपी से मिलने गया। मालूम हुआ रेणु पीएमसीएच के के.एल. शाही वार्ड में भर्ती हैं। चंद ही दिनों के बाद इमरजेंसी हटा ली गई। चुनाव की घोषणा हुई। रेणु ने उसी समय जेपी के नाम एक पत्र मुझे दिया, जिसका मजमून था, “चरणेषु जयप्रकाश जी, आप देश की समस्याओं को सुलझाने में जब व्यस्त हैं, ऐसे में अपनी बात कहने की धृष्टता कर रहा हूं, कृपया अन्यथा नहीं लेंगे। मेरा हिमोग्लोबीन ठीक है, शुगर भी, मगर मैं अभी अपने पेप्टिक अल्सर का ऑपरेशन नहीं कराना चाहता। इसकी आज्ञा मुझे दें। मैं चाहता हूं कि लोकशाही और तानाशाही के बीच होने जा रहे चुनाव में हम लेखकों, कवियों की क्या भूमिका हो, आप इसका मार्गदर्शन कीजिए। रवीन्द्र भारती का मत है और मेरा भी यही मत है कि जानकी बहन की आवाज में आंदोलन के गीत चौक-चौराहों पर कैसेट के रूप में बजाया जाए और आपके भाषणों के अंश भी।”
यह पत्र जेपी को जाकर जब मैंने दिया, उसके एक-दो घंटे पहले, डायलिसिस से वे उठे ही थे। पत्र सुनते ही खड़े हो गए। कहा, चलिए, अस्पताल चलिए। उनके सचिव सच्चिदा बाबू उनकी सेहत को देखकर कुछ कहना चाहते थे, मगर उनकी हिम्मत नहीं हुई। वे चुपचाप गाड़ी की अगली सीट पर मेरे साथ बैठ गए। जेपी अस्पताल पहुंचे तो रेणु उन्हें देखकर हक्का-बक्का रह गए। जेपी ने डॉक्टरों से बात की। उन्होंने डॉ. यू.एन. शाही से स्पष्ट शब्दों में कहा, “रेणु यहां ठीक नहीं हो सकते हैं तो हम उन्हें दुनिया के किसी भी अस्पताल में भेज सकते हैं। इसके लिए मुझे भीख ही क्यों न मांगनी पड़े।” यह सुनकर रेणु की आंखें डबडबा गईं। भीगे स्वर में रेणु ने कहा, “जेपी आप चिंता मत कीजिए। मैं ठीक हो जाऊंगा। इस अस्पताल ने जीवन दिया है। इस बार भी देगा।”
चुनाव हुआ। भारी बहुमत से जनता पार्टी विजयी हुई। जीत की खुशी और उसकी टूट देखने के लिए रेणु नहीं रहे। सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि वे आज जीवित होते तो किस ओर होते? नए-नए भय पैदा कर रही व्यवस्था के साथ या उससे लड़ने वालों के साथ।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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रेणु हर तरह के दमन, पाखंड के विरुद्घ हमेशा खड़े रहे। उनके संपूर्ण लेखन में भाववाद, वस्तुवाद के साथ एक मानवीय व्यवस्था स्थापित करने की चिंता है