बात मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए-1 सरकार के दौर की है। महंगाई दर लगातार बढ़ रही थी। चीनी की कीमतें 30 रुपये किलो को पार कर रही थीं। कुछ जगह 40 रुपये किलो तक भी पहुंची थी। नतीजा सरकार ने चीनी के निर्यात पर आनन-फानन प्रतिबंध लगा दिया। जो सौदे निर्यात के लिए पोर्ट पर थे, वे भी रुक गए। इसकी वजह थी कृषि मंत्रालय के गन्ना उत्पादन के गलत आंकड़े, जिनमें उत्पादन में कमी का आकलन किया गया था। यही नहीं, चीनी आयात की भी अनुमति दे दी गई। लेकिन हकीकत कुछ और ही थी। उत्पादन देश की जरूरत से ज्यादा हुआ। नतीजतन एक बार फिर चीनी निर्यात की अनुमति दी गई और साथ में निर्यात प्रोत्साहन भी दिए गए, क्योंकि गन्ना किसानों का भुगतान संकट पैदा हो गया था। यह उदाहरण इस बात को साबित करने के लिए काफी है कि सरकार को किसानों से ज्यादा उपभोक्ताओं के हितों की चिंता रहती है, और वह कृषि उत्पादों के आयात-निर्यात के फैसले दीर्घकालिक हितों को ध्यान में रखे बिना लेती रही है। खाद्य मंत्रालय में कई बार चीनी की कीमतों में 50 पैसे की बढ़ोतरी पर भी अधिकारियों को परेशान होते देखा गया है। उस समय थोक मूल्य सूचकांक और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में चीनी का वेटेज काफी ज्यादा था। इसलिए वित्त मंत्री और उनके मंत्रालय की नजर इस बात पर रहती थी कि चीनी की कीमत कहीं बढ़ न जाए।
यह प्रकरण यहां बताना इसलिए जरूरी है, क्योंकि दूसरी सबसे संवेदनशीन फसल है प्याज। राजनीतिक गलियारों में प्याज की बढ़ती कीमतों को सरकार बदलने की हवा के साथ जोड़कर कई बार देखा गया। इसका खामियाजा जनता पार्टी की पहली सरकार ने भी भुगता था, तो दिल्ली में भाजपा की पहली सरकार पर भी इसकी गाज गिरी थी। यही वजह है कि जब इस बार प्याज की खुदरा कीमतों में उछाल आया तो तुरंत आयात का फैसला लिया गया। प्याज का न्यूनतम निर्यात मूल्य बढ़ाया गया और अंततः प्याज के निर्यात पर बैन लगा दिया गया। सरकार वही करेगी जो राजनीतिक रूप से उसके लिए फायदेमंद होगा। महाराष्ट्र में विधानसभा के चुनाव होने हैं और प्याज के निर्यात पर बैन से वहां के किसान नाराज हो सकते हैं, क्योंकि सबसे अधिक प्याज महाराष्ट्र में ही पैदा होता है। लेकिन इन किसानों की संख्या कुछ लाख हो सकती है जबकि प्याज खरीदने वाले वोटर तो करोड़ों में हैं। जाहिर है, सरकार को करोड़ों उपभोक्ताओं की चिंता ज्यादा है, किसानों की नहीं। वैसे भी उनके सामने उदाहरण मौजूद है। उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों का पिछले सीजन का अब भी पांच हजार करोड़ रुपये से ज्यादा बकाया है और नया सीजन शुरू हो चुका है। लेकिन लोकसभा चुनावों में जब बकाया नौ हजार करोड़ रुपये से ज्यादा था, वहां वोट तो सत्तारूढ़ भाजपा को ही ज्यादा मिले। इससे साबित होता है कि भाजपा ने किसानों की दिक्कतों और वोटों के बीच के अंतरसंबंध की तोड़ ढूंढ़ ली है। ऐसे में महाराष्ट्र के किसानों से उसे डर क्यों लगेगा? दिलचस्प बात यह है कि प्याज की कीमतों को लेकर ही शरद जोशी किसानों का आंदोलन खड़ा कर बड़े किसान नेता बन गए थे। लेकिन अब शायद किसानों के बड़े नेता न बनते हैं और न ही बचे हैं। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के कुछ सौ किसान दिल्ली आए थे। एक अनजाने से संगठन के बैनर तले आए और कृषि मंत्रालय के एक अफसर के आधे-अधूरे आश्वासन पर ही लौट गए। वे किसानों के हितों को मजबूत करने के बजाय किसान आंदोलन का कुछ नुकसान जरूर कर गए।
सरकार की किसानों की आय दोगुनी करने की घोषणा का तीसरा साल पूरा होने जा रहा है। वहीं, त्योहारी सीजन को बचाने के लिए पिछले दिनों सरकार ने ताबड़तोड़ राहत पैकेज घोषित किए। शेयर मार्केट से लेकर बड़े कॉरपोरेट तक और छोटे उद्यमियों से लेकर बहुराष्ट्रीय कंपनियों तक को लुभाने के लिए लाखों करोड़ रुपये की राहत दी गई। लेकिन किसान फिर भी खाली है। हाल के वर्षों में सबसे बड़ा आर्थिक संकट झेल रहे कृषि क्षेत्र के लिए कोई राहत पैकेज वित्त मंत्री के पिटारे से नहीं निकला है। अलबत्ता ताजा आंकड़ा कह रहा है कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आकलन के तहत जीवीए में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी घट गई है, जबकि देश में सबसे अधिक हाथों को काम कृषि क्षेत्र में ही मिलता है। लेकिन उसकी हालत सुधारने के बजाय उसके हिस्से में बेहतर दाम मिलने की संभावना बनते ही बैन आता है, क्योंकि सरकार को ज्यादा वोट तो उन उपभोक्ताओं से चाहिए जो किसानों से बेहतर स्थिति में हैं और जिनकी आवाज किसानों की आवाज से ज्यादा असरदार है।