राजनैतिक एजेंडा तो काफी समय से साफ था। तस्वीर संसद के दोनों सदनों में और भी साफ हो गई। वक्फ संशोधन विधेयक, 2025 लोकसभा में 288 बनाम 232 और राज्यसभा में 128 बनाम 97 मतों से पारित हुआ। फर्क संकरा है और आखिरी वक्त तक सियासी ‘माइक्रो मैनेजमेंट’ के भी नजारे दिखे ही। लोकसभा में विरोध में मत देने वाले बीजू जनता दल (बीजद) के राज्यसभा में सात में से पांच सदस्यों ने पक्ष में वोट डाला, लेकिन तमिलनाडु के अन्नाद्रमुक के सदस्य विरोध में बने रहे जबकि विधेयक पेश होने के दौरान ही उससे तालमेल बैठाने के लिए भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अपने प्रदेश अध्यक्ष के. अन्नामल्लै को हटाने को तैयार है। इसी तरह एनडीए के सहयोगी तेलुगु देशम के मुखिया, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडु और केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल रालोद के जयंत चौधरी तथा लोजपा के चिराग पासवान चंद दिनों पहले ही मुसलमानों पर कोई आंच न आने देने के बयान दे चुके थे। चिराग तो वक्फ को एक टीवी बातचीत में ‘बेकार का मुद्दा’ बता चुके थे। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जदयू थोड़े धीमे स्वर में ऐसा ही संकेत दे रही थी, लेकिन लोकसभा में विधेयक के समर्थन में सबसे मुखर जदयू के राजीव रंजन उर्फ लल्लन सिंह नजर आए।
एनडीए में भाजपा के ये सहयोगी अब भी यह कहकर अपने मुस्लिम समर्थकों को आश्वस्त कर रहे हैं कि इस कानून से पासमांदा (पिछड़े) और औरतों को लाभ मिलेगा और वक्फ संपत्तियों के बेहतर प्रबंधन से समुदाय के विकास के लिए ज्यादा पैसा मुहैया हो पाएगा। यही तर्क अल्पसंख्यक विकास मंत्री किरण रिजीजू ने भी पेश किया और विधेयक का नाम भी ‘यूनिफाइड वक्फ मैनेजमेंट, इम्पॉवरमेंट, एफिशिएंसी ऐंड डेवलपमेंट ऐक्ट’ या कूट अक्षरों में ‘उम्मीद’ रखा गया। समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने पूछा, ‘‘इसका एब्रिविएशन उम्मीद कहां बनता है। इससे भी जोड़तोड़ की नीयत साफ हो जाती है।’’
संसद में किरण रिजीजू
रिजीजू और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की दलील थी कि इसका मजहबी मामलों से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन कांग्रेस के लोकसभा में उपनेता गौरव गोगोई ने कहा, ‘‘इसकी जरूरत ही क्यों पड़ी, क्योंकि 2013 के संशोधन को 80-85 प्रतिशत तो ज्यों का त्यों रख दिया गया है। सिर्फ जमीनों का प्रबंधन अपने हाथ में लेने का मामला है, ताकि उनका इस्तेमाल अपने उद्योगपति दोस्तों को देने में कर सकें और मुसलमानों को दोयम दर्जे का बता सकें।’’ विपक्ष का आरोप था कि मकसद पहले एक समुदाय और फिर दूसरे समुदायों की धार्मिक दान की जमीनों पर कब्जा करने का है। कुछेक दिन बाद ही संघ के मुखपत्र आर्गेनाइजर की वेबसाइट पर अचानक एक लेख से भी हंगामा तेज हो गया कि वक्फ से भी ज्यादा जमीन चर्च और ईसाई मिशनरियों के कब्जे में है। फौरन कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने एक्स पर पोस्ट किया, ‘‘अभी मुसलमानों पर निशाना है, आगे ईसाई, सिख, आदिवासी सब पर निशाना होगा।’’ कैथोलिक चर्च और अन्य की भी प्रतिक्रिया आई, तो आर्गेनाइजर की वेबसाइट से वह लेख हटा लिया गया।
उधर, वक्फ संशोधन को राष्ट्रपति की भी मंजूरी मिली और उसके पहले ही उसकी संवैधानिकता को चुनौती देने की कई याचिकाएं भी अदालत पहुंच गईं। कांग्रेस के अभिषेक मनु सिंघवी कहते हैं, ‘‘यह अनुच्छेद 25 और 26 के तहत धार्मिक स्वायत्तता और स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी का उल्लंघन करता है। इसलिए यह न्यायिक समीक्षा में टिक नहीं सकता। यह अनुच्छेद 19 के तहत समानता के अधिकार का भी उल्लंघन है और संविधान की मूल भावना पर हमला है।’’ देश भर में विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला भी शुरू हो गया है और मुस्लिम संगठन नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएए) जैसे लगातार विरोध प्रदर्शनों की बातें भी कर रहे हैं। कम से कम भाजपा शासित राज्यों से विरोध करने पर सख्त कार्रवाई की आवाजें उठ रही हैं। मुंबई में शिंदे शिवसेना के नेता संजय अनुपम ने तो यह तक कह डाला कि देश के कानून का सभी को पालन करना चाहिए, वरना जलियांवाला बाग जैसी स्थितियां पैदा हो सकती हैं। उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में काली पट्टी बांधकर नमाज पढ़ने वाले 300 लोगों के खिलाफ एफआइआर दर्ज की गई।
विवादः बेंगलूरू में वक्फ संशोधन के खिलाफ प्रदर्शन
बिहार में जदयू, लोजपा से इस्तीफे शुरू हो गए हैं। नीतीश के करीबी विधान परिषद सदस्य गौस मुहम्मद तो विधेयक लोकसभा में पेश होने की पूर्व संध्या पर ही राजद के लालू यादव के घर मिलने पहुंच गए थे। ऐसे ही पश्चिम उत्तर प्रदेश में जयंत चौधरी के रालोद में भी बगावत उठ रही है। आंध्र में तेलुगु देशम के खिलाफ भी स्वर उभर रहे हैं। इन सभी पार्टियों का मुसलमानों के बीच अच्छा-खासा समर्थन रहा है और काफी वोट मिलता रहा है। बिहार में जदयू को खासकर पासमांदा मुसलमानों और औरतों का वोट मिलता रहा है। पासमांदा वर्गीकरण भी अली अनवर की अगुआई में बिहार में नीतीश कुमार ने ही शुरू किया था ताकि लालू यादव के मुस्लिम-यादव (एमवाइ) समीकरण में सेंध लगाई जा सके। अब अली अनवर कांग्रेस में हैं और कहते हैं, ‘‘पासमांदा का पांसा अब काम नहीं आएगा। जो लिंचिंग में मारे गए, जिनके घर बुलडोजर से गिराए गए, उनमें 95 फीसद पासमांदा ही तो हैं।’’
इसी तरह रालोद का भी समीकरण जाट और मुसलमान हैं। इस से पहले जयंत ने सड़क और छतों पर नमाज न पढ़ने के फरमान को एक्स पर ‘‘1984 (तानाशाही के आतंक के खिलाफ मशहूर उपन्यास) जैसा वक्त’’ लिखा था, लेकिन अब उन्हें भी अपना वोट समीकरण संभालने में शायद मुश्किल हो। आंध्र में तो तेलुगु देशम का वाइआरसीपी से वोट का फर्क चार फीसदी से कम है, जबकि राज्य में तकरीबन इतनी ही मुसलमान आबादी है। वाइआरसीपी ने विरोध में वोट दिया। इसलिए यह सवाल भी उठ रहा है कि भाजपा इस बिल से क्या साधना चाहती है। कुछ कयास ये भी हैं कि इसका एक मकसद सहयोगियों को कमजोर करके अपने हिंदुत्व आधार का विस्तार करना भी हो सकता है।
खैर, वक्फ (संशोधन) कानून से देश में इस्लामी वक्फ (अल्लाह या मजहब के नाम दान) जायदाद की देखरेख की दशकों पुरानी व्यवस्था बुनियादी तौर पर बदल जाएगी। पहले की व्यवस्था के तहत वक्फ बोर्ड राज्यों में इन जायदाद की देखभाल करता रहा है। हर बोर्ड में सरकार का मनोनीत व्यक्ति, मुस्लिम विधायक, बार काउंसिल के सदस्य, इस्लामी विद्वान और मुत्तवली (प्रबंधक) होते हैं। 1964 में स्थापित केंद्रीय वक्फ काउंसिल राष्ट्रीय स्तर पर निगरानी रखती है। नई व्यवस्था में वक्फ बोर्ड का ढांचा काफी हद तक बदल जाएगा। अब दो गैर-मुस्लिम सदस्य केंद्रीय और राज्यों के वक्फ बोर्डों में होंगे। फिर, शिया, सुन्नी, पासमांदा, बोहरा और आगाखानी सहित विभिन्न मुस्लिम समुदायों की नुमाइंदगी भी होगी। इसके अलावा, हर बोर्ड में कम से कम दो मुस्लिम महिलाओं का होना जरूरी है।
कोई जायदाद वक्फ की है या नहीं, यह तय करने का अधिकार अब वक्फ बोर्ड के बदले जिला कलेक्टर या उससे ऊपर के सरकारी अधिकारी का होगा। 1995 के अधिनियम की धारा 40 के तहत वक्फ बोर्ड को यह तय करने का अधिकार था, बशर्ते मामला वक्फ ट्रिब्यूनल में न जाए। पीडि़त पक्ष ट्रिब्यूनल में बोर्ड के फैसले को चुनौती दे सकता था, लेकिन अब चुनौती अदालतों में भी दी जा सकती है।
वक्फ बोर्ड को लिमिटेशन ऐक्ट से मिली छूट भी खत्म कर दी गई है। पहले बोर्ड समय खत्म होने की परवाह किए बगैर अतिक्रमण की गई संपत्तियों को वापस ले सकता था मगर अब उसे 12 साल की अवधि के भीतर दावा करना होगा। इससे लंबे समय से अतिक्रमण करने वालों को फायदा पहुंच सकता है। वक्फ संस्थानों से बोर्ड को 7 फीसदी सालाना योगदान मिलता है, जिसे घटाकर 5 फीसदी कर दिया गया है। सालाना 1 लाख रुपए से अधिक कमाने वाली संस्थाओं को अब राज्य सरकार की ओर से नियुक्त ऑडिटर से ऑडिट करवाना होगा। इस कानून में मुसलमानों के बनाए गए ट्रस्टों को वक्फ की परिभाषा से अलग किया गया है। संशोधन में महिलाओं-विधवाओं, तलाकशुदा औरतों और यतीमों के लिए विशेष प्रावधान किए गए हैं और पारिवारिक वक्फ व्यवस्थाओं में विरासत को मजबूत सुरक्षा दी गई है। इस कानून में डिजिटलीकरण की समयसीमा भी है- सभी वक्फ संपत्तियां को छह महीने के भीतर एक केंद्रीय पोर्टल पर पंजीकृत कराया जाना है। जाहिर है, इससे जटिल या अधूरे दस्तावेज वाली जायदाद को लेकर चुनौतियों का पिटारा खुल जाएगा। इसी की ओर इशारा एआइएमआइएम के असदुद्दीन ओवैसी करते हैं, “तकरीबन 70-80 फीसदी वक्फ जायदाद के पुख्ता दस्तावेज उपलब्ध नहीं हो सकते हैं, जिन पर विवाद छिड़ जाएगा।”
जयंत चौधरी, नीतीश कुमार, चिराग पासवान, चंद्रबाबू नायडु
ऐसे संकेत मिलने भी लगे हैं। गुजरात और उत्तराखंड सहित कई राज्यों ने वक्फ संपत्तियों का सर्वेक्षण तक शुरू नहीं किया है। उत्तर प्रदेश जैसे अन्य राज्यों में सर्वेक्षण के आदेश के वर्षों बाद भी आधे-अधूरे रिकॉर्ड हैं। यह भी बड़ी वजह है कि मुस्लिम संगठनों ने जबरदस्त विरोध किया और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआइएमपीएलबी) ने समिति को 5 करोड़ से अधिक ईमेल भिजवाए। उनकी मूल चिंता कानून में लंबे समय से मजहबी इस्तेमाल वाली बिना औपचारिक दस्तावेज की जायदादों की वक्फ के रूप में मान्यता खत्म करने पर है। कई ऐतिहासिक मजहबी स्थानों के कोई औपचारिक कागजात नहीं हैं और वे समुदाय की मान्यता और पीढ़ियों के रीति-रिवाजों के मुताबिक हैं। नए कानून पर अमल आगे की तारीख से करने की बात है, लेकिन कई लोगों को डर है कि जिन संपत्तियों के दस्तावेज नहीं हैं, उन पर कई तरह के दावे खड़े हो सकते हैं।
आलोचकों का सवाल है कि हिंदू मंदिरों के प्रशासन में इसी तरह की धार्मिक विविधता अनिवार्य क्यों नहीं है। ओवैसी पूछते हैं, ‘‘अगर कोई गैर-हिंदू किसी हिंदू धर्मादा बोर्ड का सदस्य नहीं बन सकता है, तो फिर आप यहां गैर-मुस्लिम को बोर्ड में क्यों ला रहे हैं?’’ यह विधेयक पिछले सत्र में भी लाने की कोशिश हुई थी मगर शायद सहयोगियों के विरोध की वजह से संयुक्त संसदीय समिति के हवाले कर दिया गया था। उस वक्त जगदंबिका पाल की अध्यक्षता में बनी समिति ने विपक्ष के सभी संशोधनों को खारिज कर दिया था।
जो भी हो, अब देखना है, आगे सियासत क्या मोड़ लेती है। इसका नजारा तो इसी साल के अंत में होने वाले बिहार चुनावों में ही दिख जाएगा।
वक्फ में क्या बदला
. अब दो गैर-मुस्लिम सदस्य केंद्रीय और राज्य, दोनों वक्फ बोर्ड में होंगे और विभिन्न मुस्लिम समुदायों की नुमाइंदगी भी होगी
. हर बोर्ड में कम से कम दो मुस्लिम महिलाएं होंगी
. वक्फ वही कर पाएगा जो पांच साल से मुकम्मल इस्लामी परंपरा का पालन करता हो
. वक्फ संपत्ति तय करने का अधिकार वक्फ बोर्डों के बदले जिला कलेक्टर या उसके ऊपर के सरकारी अधिकारी का होगा
. सरकार और वक्फ के दावों के बीच विवाद की स्थिति में जायदाद तब तक सरकारी माना जाएगी जब तक नामित अधिकारी तय न कर दे
. वक्फ ट्रिब्यूनलों में इस्लामी कानून के विशेषज्ञ की जरूरत नहीं; इसके बजाय इसमें जिला अदालत के न्यायाधीश बतौर अध्यक्ष और राज्य का एक संयुक्त सचिव होगा
. पंचाट के फैसलों के खिलाफ अब 90 दिन के भीतर हाइकोर्ट में अपील की जा सकेगी
. वक्फ संस्थाओं से बोर्डों को मिलने वाला अनिवार्य वार्षिक योगदान 7 फीसदी से घटकर 5 फीसदी हो जाएगा
. एक लाख रुपए से अधिक सालाना आमदनी वाली संस्थाओं का अब राज्य सरकार के लेखा परीक्षक से ऑडिट होगा