बाढ़... यानी सालाना संकट काल, जो इस कोरोना काल में आमजन के लिए विकराल विपदा बनकर टूटी है। अलबत्ता, पी. सईनाथ की प्रसिद्ध किताब एवरीवन लव्स गुड ड्रॉट की तर्ज पर कहें तो बाढ़ सत्ता में बैठे हर किसी के लिए संभावनाओं के द्वार भी खोल देती है। हर साल की तरह एक बार फिर बिहार, असम और पूर्वोत्तर के कई राज्य इसकी चपेट में हैं। बिहार के 38 में से 16 जिलों में 66 लाख लोग प्रभावित हैं। उससे पहले बाढ़ ने असम में विकराल रूप दिखाया। वहां के कुल 33 जिलों में से 21 जिले बुरी तरह प्रभावित हैं। कुछ दिनों पहले तक 25 जिलों में बाढ़ का प्रकोप था। वहां अब तक 108 लोगों की मौत हो चुकी है और अब भी करीब 11 लाख लोग प्रभावित हैं। पूर्वोत्तर के इस राज्य में तो बाढ़ का पानी उतार पर है, लेकिन बिहार में यह अपनी भयावहता दिखा रहा है। सबसे अधिक प्रभावित जिले दरभंगा और मुजफ्फरपुर हैं। दरभंगा में बागमती और कमला बलान नदियों ने कहर बरपा रखा है। यहां 15 लाख से ज्यादा आबादी प्रभावित है। मुजफ्फरपुर में भी 11 लाख से अधिक लोग प्रभावित हैं। सीतामढ़ी, शिवहर, सुपौल, किशनगंज, खगड़िया, सारण, समस्तीपुर, सिवान, गोपालगंज, पूर्वी चंपारण, पश्चिम चंपारण और मधुबनी जिले भी बाढ़ की चपेट में हैं।
जाने-माने पर्यावरणविद, बाढ़ एवं सिंचाई अभियंता और जलतत्व विशेषज्ञ डॉ. दिनेश कुमार मिश्र कहते हैं, “बाढ़ सत्ता, नौकरशाह और ठेकेदारों के लिए हर साल अरबों की कमाई और बंदरबांट का पुख्ता साधन है। इसलिए सरकार इसे जीवित रखना चाहती है और अपनी जिम्मेदारियों से भागती है।” हर साल रणनीतियां बनाई जाती रही हैं, बांध की मरम्मत और रखरखाव के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च होते हैं, लेकिन 21वीं सदी में भी यह चुनौती जस-की-तस है।
एक तरफ बाढ़ तो दूसरी तरफ कोरोना। इससे संक्रमित लोगों की संख्या में तेज इजाफे को देखते हुए बिहार सरकार ने लॉकडाउन 16 अगस्त तक के लिए बढ़ा दिया है। हर दिन तीन हजार के करीब नए मरीज सामने आ रहे हैं। राजधानी पटना और मुजफ्फरपुर की स्थिति ज्यादा भयावह है। पटना में हर दिन 400 और मुजफ्फरपुर में 200 से अधिक मामले सामने आ रहे हैं।
कोरोना के बढ़ रहे मामले और बाढ़ के कहर से स्थिति चिंताजनक हो गई है, लेकिन सरकारी इंतजामात नाकाफी दिख रहे हैं। राज्य में 45 लाख लोग बाढ़ से प्रभावित हैं, जबकि उनके लिए सिर्फ 19 राहत शिविर बनाए गए हैं। बाढ़ प्रभावित 14 जिलों में से सिर्फ चार में राहत शिविर हैं। यही हाल सरकार की तरफ से चलाई जाने वाली सामुदायिक रसोई का है। चार जिलों में एक भी सामुदायिक रसोई नहीं है। शेष प्रभावित जिलों में एक हजार से अधिक रसोई संचालित की जा रही हैं। यानी हर सामुदायिक रसोई पर चार हजार लोग आश्रित हैं। सरकारी राहत के नाम पर सिर्फ तिरपाल जिसके नीचे कई कुनबे साथ बैठने को मजबूर हैं। कहीं-कहीं सामुदायिक रसोई भी है, पर हर रसोई पर हजारों लोगों का बोझ है। इस हाल में एक वक्त के भोजन की आस लगाए लोग दो-गज की दूरी का क्या पालन करें। उन्हें कोरोना पकड़ भी ले तो क्या, कहीं कोई टेस्टिंग की व्यवस्था नहीं। फसलों की बर्बादी का तो कोई आकलन ही नहीं है। कोरोना और बाढ़ की दोहरी मार झेल रहे बिहार की आज यही हकीकत है।
मुजफ्फरपुर शहर से करीब पांच किलोमीटर दूर रजवाड़ा बांध पर बाढ़ पीड़ितों ने बसेरा बना रखा है। सरकारी दावों की पोल खोलते हुए लोग बताते हैं, “एक तिरपाल में पांच-दस लोग एक साथ रहने को मजबूर हैं। महामारी की वजह से कोई भी संस्थान राहत सामग्री देने नहीं आ रहा है। सरकार सोई हुई है। स्वास्थ्य सुविधाएं नदारद हैं। हमलोगों की टेस्टिंग नहीं हुई है। बारिश ने भी कहर ढा रखा है। डर से रात में नींद नहीं आती, पता नहीं कब बांध टूट जाए।” बांध पर ही एक सामुदायिक रसोई चल रही है जिसका जिम्मा रजवाड़ा पंचायत के उपमुखिया गणेश सहनी के पास है। रसोई के इर्द-गिर्द दो सौ से अधिक बच्चे, बूढ़े और महिलाएं बिना मास्क और सोशल डिस्टेंसिंग के खाना तैयार होने का इंतजार कर रहे हैं। सहनी बताते हैं, “क्या करें, लोग मानते ही नहीं। सुबह से डेढ़ क्विंटल चावल बन चुका है। लोगों को समझाते हैं कि लाइन में लग जाइए, लेकिन भूख के आगे कौन सुनता है?”
सरकार की तरफ से उठाए जा रहे कदमों को लेकर जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के प्रवक्ता अजय आलोक कहते हैं, “सौभाग्य की बात है कि बाढ़ ग्रस्त इलाकों से कोरोना के मामले अभी तक नहीं आए हैं, लेकिन यह चुनौती है। लोगों को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। यह व्यावहारिक नहीं कि किसी का घर डूब गया हो, वह बांध पर शरण लिए हो और उसे सोशल डिस्टेंसिंग का पाठ पढ़ाया जाए। सरकार की तरफ से सभी जिलाधिकारियों को सख्ती के साथ कोरोना और बाढ़ से बचाव के निर्देश दिए गए हैं।”
बिहार आपदा प्रबंधन विभाग के प्रधान सचिव प्रत्यय अमृत राहत के अनुसार जहां जरूरत नहीं वहां शिविर नहीं बनाए गए या हटा लिए गए हैं। सामुदायिक रसोई में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कराना मुश्किल है। इसलिए, कोरोना महामारी के बढ़ रहे प्रकोप को देखते हुए 30 जुलाई से इन जगहों पर रैपिड एंटीजन टेस्ट शुरू किया गया है।
बिहार में हर साल बाढ़ से मौतें होती हैं। इस वर्ष अब तक 11 लोगों की मौत हो चुकी है। साल 2017 में भी बाढ़ ने ऐसी ही तबाही मचाई थी। फर्क बस इतना है कि इस बार लोगों को जानलेवा कोरोना वायरस की दोहरी मार झेलनी पड़ रही है। बीते चार वर्षों में करीब एक हजार लोगों ने बाढ़ में जान गंवाई है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2019 में करीब 150 लोगों की मौत हुई थी और 17 जिलों की करीब पौने दो करोड़ आबादी प्रभावित हुई थी। सरकार हर साल बाढ़ रोकने के लाखों दावे करती है, लेकिन हर साल वे तमाम दावे उसी बाढ़ में बह जाते हैं।
केंद्रीय जल आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक देश में इस वक्त 5,254 बड़े बांध हैं और 447 निर्माणाधीन हैं। सरकार बांध को बाढ़ से बचाव का कवच मानती है, लेकिन विशेषज्ञ इसे ही विनाश का कारण मानते हैं। बाढ़ मुक्ति अभियान को लेकर दो दशक से भी अधिक समय से काम कर रहे विशेषज्ञ डॉ. दिनेश कुमार मिश्र बताते हैं, “नदियों को हम बांध नहीं सकते। पहले बाढ़ ढाई दिनों के लिए आती थी, लेकिन बांध निर्माण के बाद ये ढाई महीने की मुसीबत बन गई। नदी में जल स्तर बढ़ने के साथ पानी अपना रास्ता खुद खोज लेता था। सरकार ने बांध निर्माण तो किया, लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा कि ये पानी जाएगा कहां।” बाढ़ पर दर्जनों किताब लिखने वाले डॉ. मिश्र बताते हैं कि इस हाल के लिए सीधे तौर पर सरकार की गलत नीतियां और कुप्रबंधन जिम्मेदार हैं। बांध, बैराज, तटबंध बनाकर नदियों के दायरे को सीमित कर दिया गया, जिससे फायदे के बदले केवल नुकसान हुआ।