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18 मार्च 2023 · MAR 18 , 2024

आवरण कथा/पुस्तक अंश: अपारदर्शी चुनावी बॉन्ड

“चुनावों के माध्यम से एक राष्ट्र के जीवन की पड़ताल” करने वाली एस.वाइ. कुरैशी की लिखी किताब इंडियाज एक्सपेरिमेंट विद डेमोक्रेसी का एक अंश, जिसमें बताया गया है कि चुनावी बॉन्ड क्यों पारदर्शी नहीं हैं
एस वाय कुरैशी की पुस्तक

वित्त मंत्रालय ने चुनावी बॉन्ड की त्रैमासिक बिक्री की खिड़की खोल दी है। इसे 1 अप्रैल से 10 अप्रैल 2021 के बीच खरीदा जा सकेगा। पिछले ही हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने इस योजना पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था, जिसके बाद मंत्रालय की यह अधिसूचना आई है। शीर्ष अदालत ने चुनावी बॉन्ड पर सुनवाई के दौरान हालांकि नई चिंता जाहिर की थी कि राजनीतिक दलों को मिले चंदे का इस्तेमाल आतंकी गतिविधियों या हिंसा वगैरह में किए जाने की आशंका है। इस संदर्भ में उसने केंद्र सरकार से पूछा था कि क्या इस चंदे के इस्तेमाल को नियंत्रित करने का कोई उपाय उसके पास है। मुझे उम्मीद थी कि अदालत इसी के साथ एक और अहम सवाल उठाती, एक और आशंका जहां इस चंदे के संदिग्ध इस्तेमाल की गुंजाइश मौजूद है- चुनावों के बाद जनादेश को पलटने के लिए विधायकों की खरीद में इसका प्रयोग।

सुप्रीम कोर्ट में यह सुनवाई एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की याचिका पर हुई, जिसने चुनावी बॉन्ड की ताजा बिक्री पर रोक लगाने की मांग की थी। एसोसिएशन की चुनावी बॉन्ड को चुनौती देने वाली मूल याचिका अदालत के समक्ष अब भी लंबित है।

यह मुद्दा फरवरी 2017 से ही ज्वलंत बना हुआ है, जब तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपने बजट भाषण में दो बड़े बयान दिए थे: एक, राजनैतिक फंडिंग में पारदर्शिता के बगैर स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव मुमकिन नहीं हैं; और दूसरा, सत्तर साल से चिंता जताने के बावजूद हम उस पारदर्शिता को हासिल कर पाने में नाकाम रहे हैं। इन भव्य बयानों के बाद कोई भी उम्मीद कर सकता था कि मुद्दे का हल निकलेगा, हालांकि अपने कहे से ठीक उलट घोषणा उन्होंने कर दी।

इस तरह चुनावी बॉन्ड की पैदाइश हुई और पारदर्शिता एक बार फिर से उसका शिकार हुई। उसके बाद से 20,000 रुपये से ज्यादा चुनावी चंदे की हर राशि की सूचना चुनाव आयोग को दी गई है। फर्क इतना आया है कि अब 20 करोड़ हो या 200 करोड़ रुपये, कितनी भी रकम बेनामी दान दी जा सकती है। इसके पीछे वजह यह गिनाई गई कि चंदा देने वाला गोपनीयता की चाहत रखता है।

चंदादाता को गोपनीयता क्यों चाहिए? ताकि वह उसके बदले में ठेके, पट्टे, लाइसेंस और बैंक ऋण के रूप में मिले लाभ को छुपा सके और जरूरत पड़ने पर बदले में विदेश भाग जाने की सहूलियत भी हासिल कर सके। सात दशक से भारत के तमाम राजनीतिक दलों को कॉरपोरेट शक्तियां फंड देती आई हैं। अक्सर एक ही दानदाता विरोधी दलों को चंदा देता है। क्या किसी सत्ताधारी दल ने कभी अपने विरोधियों को चंदा देने वाले दानदाता को प्रताड़ित किया? क्या मौजूदा सत्ताधारी पार्टी ने ऐसा किया है? यदि नहीं, तब तो गोपनीयता की चाहत वाली बात हवाई लगती है। यह स्पष्ट रूप से पारदर्शिता के सार्वजनिक हित के साथ निजी हितों के टकराव का मसला है।

यहां महत्वपूर्ण बात ध्यान रखने की यह है कि रिजर्व बैंक और चुनाव आयोग दोनों ने ही चुनावी बॉन्ड योजना के खिलाफ अपना मजबूत विरोध दर्ज कराया था। विधि और न्याय मंत्रालय को लिखे एक पत्र में चुनाव आयोग ने चेतावनी दी थी कि पूर्ववर्ती कानूनी संशोधनों के साथ चुनावी बॉन्ड की योजना भारी मात्रा में अवैध चंदे को बढ़ावा दे सकती है। आयोग का कहना था कि इससे फर्जी कंपनियां कुकुरमुत्ते की तरह उग आएंगी और इन धारक बॉन्डों के रास्ते राजनीतिक तंत्र में वे अपने काले धन को लगा देंगी।

इसके बाद अप्रैल 2021 में चुनाव आयोग के पैरोकार ने लिखित प्रतिवेदन दिया कि आयोग चुनावी बॉन्ड का समर्थन करता है। उन्होंने कहा था, “चुनावी बॉन्ड के बगैर हम लोग वापस नकदी वाली व्यवस्था में लौट जाएंगे जिसका कोई हिसाब किताब नहीं होता था। इस मामले में बॉन्ड एक कदम आगे की चीज है क्योंकि यहां प्रत्येक लेन देन बैंक के रास्ते होनी है।” यह बिलकुल सरकारी दलील थी। चुनाव आयोग का यह बदला हुआ रुख क्या चौंकाता नहीं?

बजट के रास्ते चुनावी बॉन्ड को लाया जाना कोई अकेली पहल नहीं थी। वित्त विधेयक, 2017 ने चुनावी बॉन्ड का रास्ता आसान करने के लिए एक साथ रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया कानून, आयकर कानून, कंपनी कानून, जन प्रतिनिधित्व कानून और विदेशी अनुदान नियमन कानून, सभी में संशोधन किए थे।

इस दौरान ऐसे तीन गंभीर बदलाव हुए थे जिन पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया गया। पहला, कंपनी कानून, 2013 की धारा 182 को संशोधित कर के एक कंपनी द्वारा उसके मुनाफे के साढ़े सात प्रतिशत तक चंदा देने की सीमा को न सिर्फ बढ़ा दिया गया बल्कि इस सीमा को पूरी तरह खत्म कर दिया गया। यानी अब कोई कंपनी अपने मुनाफे का सौ प्रतिशत किसी राजनीतिक दल को दान दे सकती थी। यहां तक कि घाटे में चल रही कंपनी भी राजनीतिक चंदा दे सकती थी। याराना पूंजीवाद को वैध ठहराने का यह एक पक्का कदम था। इस तरह कंपनियां अब सरकार को चला भी सकती थीं। आज ऐसा होता हम देख ही रहे हैं।

बात यहीं नहीं रुकती। जन प्रतिनिधित्व कानून, 1951 की धारा 29बी किसी विदेशी स्रोत से राजनीतिक दलों को चंदा लेने से रोकती है। इसके साथ ही एफसीआरए कानून की धारा 3 प्रत्याशियों, विधायकों और सांसदों, राजनीतिक दलों और पार्टी के पदाधिकारियों को विदेशी अनुदान लेने से रोकती है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने जब 2010 में पाया कि कांग्रेस और भाजपा दोनों ने एफसीआरए कानून, 1976 का उल्लंघन करते हुए विदेशी चंदा लिया है, तब भाजपा सरकार ने 2016 के एक वित्त विधेयक में पिछली तारीख से संशोधन करते हुए 1976 वाले कानून को खत्म कर के 2010 का संशोधित कानून ला दिया।

यानी अगर कोई दूसरा देश हमारे देश के चुनाव में पैसा लगा रहा हो, तो अब यह बात छुपी रह सकती थी। हमने दूसरे देशों में ऐसा होते हुए देखा है। यहां तक कि अमेरिका जैसी महाशक्ति भी खुद को ऐसे दखल से बचा नहीं पाई, वो भी अपने सबसे बड़े घोषित दुश्मन से। किसी भी लोकतंत्र के चुनावी तंत्र पर यह एक धब्बा है।

इसलिए फंड के दुरुपयोग की आशंका संबंधी सुप्रीम कोर्ट की चिंता बहुत जायज है। हमें आय के स्रोत और खर्च दोनों ही सिरों पर पारदर्शिता की दरकार है। चुनाव आयोग लगातार मांग कर रहा है कि एक ऐसा कानून बनाया जाए जो राजनीतिक दलों के लिए चुनाव आयोग या महालेखा परीक्षक और नियंत्रक (कैग) द्वारा प्रस्तावित पैनल के किसी ऑडिटर से उनके खाते की ऑडिट को बाध्यकारी बना दे। पार्टी के सदस्यों द्वारा किया ऑडिट सच को छुपाने का ही काम करता है।

मेरे खयाल से इससे निपटने का सबसे बढ़िया तरीका बहुत सरल है। आप चाहे तो चुनावी बॉन्ड को खत्म मत करिए, बस देने और लेने वालों की पहचान उजागर कर दीजिए। सरकार चाहे तो यह काम तीस सेकंड में कर सकती है। सरकार से तो ऐसा करने की उम्मीद व्यर्थ है, इसलिए खुद सुप्रीम कोर्ट को ऐसा एक आदेश देकर मामले पर विराम लगा देना था। वह ऐसा बहुत आसानी से कर सकता था। हम उम्मीद ही कर सकते हैं कि इस देश की शीर्ष अदालत इस मामले को राष्ट्रीय महत्व का मानते हुए तत्काल कोई कदम उठाए।

भूलना नहीं चाहिए कि इसी सुप्रीम कोर्ट ने 2002-03 में पारदर्शिता के हक में देश की बड़ी सेवा की थी जब इसने चुनावी प्रत्याशियों के लिए पर्चा दाखिल करने के दौरान अपना बहीखाता और आपराधिक रिकॉर्ड जमा करना अनिवार्य बनाया था। जब सरकार ने इस आदेश को एक कानून बना कर हल्का करने की कोशिश की, तब कोर्ट ने उक्त कानून को सरकार के अधिकार क्षेत्र से बाहर का करार दिया। क्या दूसरे मसलों पर ऐसी ही न्यायिक कसौटी की उम्मीद करना गलत है?

एक और विकल्प यह है कि निजी चंदे की व्यवस्था ही खत्म कर दी जाए। इसके बजाय राजनीतिक दलों को सार्वजनिक अनुदान की व्यवस्था हो। हर पांच साल पर यह रकम दस हजार करोड़ से ज्यादा नहीं बैठेगी। सभी दलों के जुटाए चंदे को अगर जोड़ लें, तो यह रकम लोकतंत्र को बचाने के लिए बहुत मामूली कीमत होगी।

एक और व्यावहारिक विकल्प है एक राष्ट्रीय चुनाव कोष का गठन, जिसमें सारे चंदे दान किए जा सकें। इससे दानदाता के खिलाफ राजनीतिक प्रतिशोध का काल्पनिक डर भी जाता रहेगा। इस चंदे पर अगर आयकर में छूट मिलने लगे, तो दान करना आकर्षक हो जाएगा। इस कोष में जमा पैसा चुनावी प्रदर्शन के आधार पर राजनीतिक दलों को आवंटित किया जा सकता है।

बात खत्म करने से पहले मौजूदा वित्त मंत्री को हम एक बार फिर से उनके पूर्ववर्ती द्वारा 2017 में दिए बजट अभिभाषण का पहला वाक्य याद दिलाना चाहेंगे, “राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता के बगैर स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव मुमकिन नहीं हैं।”

एस वाय कुरैशी

(लेखक और हार्पर्स कॉलिंस पब्लिशर्स इंडिया की अनुमति से प्रकाशित)

 

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