विपक्षी एकता के प्रबल पैरोकार दिग्गज राजनेता, पूर्व विदेश और वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा पिछले दिनों ऐन चुनावों के वक्त ही तृणमूल कांग्रेस में शामिल हुए। बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की लगातार तीसरी बार अभूतपूर्व जीत से विपक्ष में नया जोश आया है। देश में कोविड की दूसरी लहर के वक्त नाकामियों, बेलगाम महंगाई से लोगों की नाराजगी बढ़ी है। ऐसे में विपक्ष के लिए मुद्दे और मौके दोनों हैं। क्या विपक्ष एकजुट होकर इसका लाभ ले पाएगा? विपक्ष की रणनीति क्या होनी चाहिए? इन तमाम मसलों पर हरिमोहन मिश्र ने यशवंत सिन्हा से विस्तृत बात की। प्रमुख अंश:
पिछले दो महीनों में काफी कुछ बदल गया है। हाल के विधानसभा चुनावों के नतीजे और कोविड की दूसरी लहर ने केंद्र में सत्तारूढ़ जमात की कमजोरियां ही उजागर की हैं। क्या इससे विपक्ष में कोई मजबूती दिखती है?
मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि उत्तरदायित्व निर्धारित करने वाली जितनी संस्थाएं हैं, उन सबको सरकार ने धीरे-धीरे न केवल कमजोर किया, बल्कि कहीं का नहीं छोड़ा। चाहे विपक्ष, मीडिया या कोई और हो, सबकी जिम्मेदारी तब बनेगी, जब उत्तरदायित्व मुकर्रर करने वाली संस्थाएं काम करेंगी। मीडिया का जो बुरा हाल है, वह छुपा हुआ नहीं है। मीडिया को दबा कर, या जैसे भी हो, करीब-करीब समाप्त कर दिया गया है। कुछ उदाहरण हैं, जिसे देखकर गर्व भी होता है और अफसोस भी होता है कि उस उदाहरण पर बाकी क्यों नहीं चल रहे हैं। इसके अलावा संसद का सत्र ही नहीं हो रहा है, संसदीय समितियों की मीटिंग ही नहीं हो रही है तो जिम्मेदारी कैसे तय होगी। यह कहा गया कि समितियों की ऑनलाइन मीटिंग कर ली जाए तो अपने यहां एक पुराना और बेकार-सा नियम है कि समितियों की बैठक की कार्यवाही की गोपनीयता भंग नहीं होनी चाहिए। तो, गोपनीयता के नाम पर ऑनलाइन मीटिंग नहीं हो रही है। इस तरह संसद पंगु हो गई है। संसद से जो उत्तरदायित्व तय होता, वह हो ही नहीं पा रहा है। दूसरे, उत्तरदायित्व बनता है न्यायपालिका से। न्यायपालिका कभी-कभी तो सक्रिय हो जाती है, अपना मत या आदेश देती है। लेकिन बहुत-से ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दे हैं, जिन पर विचार करने की उसे फुर्सत ही नहीं है। वहां भी जिस तरह जिम्मेदारी निर्धारित होनी चाहिए, नहीं हो पा रही है।
उसके बाद कार्यपालिका यानी नौकरशाह हैं। उनको जोश तब आता है जब वे रिटायर हो जाते हैं। नौकरी में रहने के दौरान तो वे सब जुल्म बर्दाश्त करने को तैयार रहते हैं। नाौकरशाहों को हिम्मत नहीं है कि नौकरी में रहते हुए गलत नीतियों का विरोध करें। तो, नौकरशाही की भूमिका लगभग खत्म कर दी गई।
ऐसे में कौन-सी संस्थाएं बच गईं। आप विपक्ष की भूमिका की बात कर रहे हैं, तो विपक्ष के पास एक ही उपाय बचता है कि वह सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन वगैरह करे। कहीं-कहीं ऐसा हो भी रहा है। 5 जून को संपूर्ण क्रांति दिवस था, कुछ-कुछ कार्यक्रम हुए। राजनैतिक दल अगर विपक्ष की भूमिका नहीं निभाएंगे तो बाकी लोग निभाएंगे। जैसे देश के किसान निभा रहे हैं। वे भी मजबूर होकर सड़कों पर उतरे हैं। आपको याद होगा कि जेपी आंदोलन (1974-75) में भी लगभग यही हुआ। सरकार अपने कार्यकलापों से देश को उस दिशा में ले जा रही है, जहां देश के संविधान के मुताबिक जवाबदेही तय करने वाली सभी संस्थाओं की भूमिका पूरी तरह खत्म हो जाएगी और सड़क पर उतरना ही एकमात्र विकल्प रह जाएगा।
राजनैतिक दल अगर विपक्ष की भूमिका नहीं निभाएंगे तो बाकी लोग निभाएंगे। जिस तरह देश के किसान निभा रहे हैं
नौकरशाही की बात पर पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्य सचिव आलापन बंद्योपाध्याय का हाल का प्रकरण क्या याद नहीं आ जाता है?
इस मामले में नियम बिल्कुल स्पष्ट है। मैं आइएएस रहा हूं। शुरू में आपको एक काडर मिल जाता है। मुझे बिहार का काडर मिला था, उनको बंगाल का काडर मिला था। इसका मतलब होता है कि आपका पूरा करिअर काडर कंट्रोलिंग अथॉरिटी के तहत बीतेगा। मैं अपने जमाने की बात बताता हूं। महामाया बाबू (महामाया प्रसाद सिन्हा) मुख्यमंत्री थे और मैं संथाल परगना जिले का डीएम था। वे जिले में दौरे पर आए तो कुछ कहा-सुनी हो गई। उन्होंने मुझे राजधानी पटना बुला लिया। इस बीच मेरा केंद्र सरकार में तबादला हो गया। मुख्य सचिव जब उनके पास फाइल लेकर गए तो उन्होंने पूछा कि ऐसे में हम इनके खिलाफ कार्रवाई कैसे करेंगे। मुख्य सचिव ने उन्हें बताया कि वे चाहे कहीं भी रहें, उनके खिलाफ कार्रवाई करने का अधिकार हमारे पास रहेगा। तो, मैं यह कह रहा हूं कि आपको एक बार काडर मिल गया तो आप उस काडर के मातहत काम करते हैं। लिहाजा, केंद्र सरकार का आइएएस या ऑल इंडिया सर्विसेज के ऊपर जो अधिकार है, वह लगभग लुप्त हो जाता है। इसलिए आलापन को केंद्र सरकार ने बिना राज्य सरकार की अनुमति के आदेश दे दिया कि अमुक दिन अमुक जगह रिपोर्ट करो। आइएएस और आइपीएस अफसर केंद्र सरकार के गुलाम नहीं हैं कि आप कहें कि फलां बजे यहां रिपोर्ट करो। मैंने हाल में एक लेख में लिखा कि शायद केंद्र में पदस्थ नौकरशाहों ने प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को सही ढंग से नियम-कायदे नहीं बताए, यह बड़ा संकट है। और अगर उन्होंने बताया लेकिन उसे नजरअंदाज करके ऐसा फरमान जारी कर दिया गया तो यह और भी बड़े संकट का संकेत है।
लेकिन विपक्ष को यह एहसास तो लंबे समय से है कि ऐसा हो रहा है या होने जा रहा है। उसके सामने केंद्र में सात साल के पहले गुजरात का अनुभव है, जहां यह सब हो चुका है। वह इसकी काट की कोई रणनीति क्यों नहीं बना पा रहा है?
विपक्ष के पास एक ही उपाय है कि जो जनांदोलन देश में विभिन्न हिस्सों में हो रहे हैं, उसके साथ अपने को जोड़े। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि विपक्ष या विपक्षी दलों के पास यह ताकत ही नहीं बची है कि वे कोई जनांदोलन शुरू करें। शायद ’74-75 में भी नहीं थी, लेकिन तब जेपी का व्यक्तित्व था कि आंदोलन हुआ। वैसा व्यक्तित्व देश में बचा नहीं।
लेकिन जनता तो तैयार लगती है। हाल के चुनावों में सभी राज्यों में मजबूत क्षत्रप उभरे हैं। असम में भी हेमंत बिस्वा शर्मा का अपना एक ठोस वजूद है। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि लोग केंद्र की नीतियों को नापसंद कर रहे हैं और विकल्प तलाश रहे हैं? ऐसे में सबसे फिसड्डी कांग्रेस या विपक्षी एकता क्यों बनी हुई है?
आपने दुखती रग पर हाथ रख दी। दुखती रग है देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस। राज्यों में क्षत्रपों का उभरना इस बात का संकेत है कि कांग्रेस पार्टी की भूमिका नगण्य होती जा रही है। शून्य कभी नहीं रहता है, इसलिए क्षत्रप उभरेंगे। यह एक डेवलपमेंट है। मेरा मानना है कि विपक्ष तब मजबूत होगा, जब भाजपा के खिलाफ ये क्षत्रप एकजुट होंगे। संघीय ढांचे का मुद्दा बहुत महत्वपूर्ण होकर उभरा है। आज प्रधानमंत्री मोदी की विपक्ष के सभी मुख्यमंत्रियों के साथ लड़ाई चल रही है। तो, इन मुख्यमंत्रियों को चाहिए कि वे संविधान, संघीय ढांचे पर प्रहार के लिए केंद्र सरकार के खिलाफ एकजुट हों। यह इंतजार नहीं करना चाहिए कि सभी इकट्ठे हों तब सभी जुटें। जितने लोग इकट्ठे हो सकते हैं, उन्हें आगे आना चाहिए। अच्छे के इंतजार में बैठे नहीं रहना चाहिए।
ममता या स्टालिन जैसे मुख्यमंत्री वैक्सीन मामले में मांग तो उठा रहे हैं लेकिन अपनी तरफ से कोई पहल नहीं कर रहे हैं, ऐसा क्यों?
पहल तब सार्थक होगी, जब कोई एक-दो-तीन मुख्यमंत्री मिलकर सभी मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाएं। यह कोई रॉकेट साइंस तो है नहीं कि उसके पहले मुख्यमंत्रियों को बात भी करनी चाहिए। अब इसमें कुछ सस्पेक्ट भी हैं। मसलन, ओडिशा के मुख्यमंत्री (नवीन पटनायक), तेलंगाना के मुख्यमंत्री (के. चंद्रशेखर राव), आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री (जगन मोहन रेड्डी) आएंगे कि नहीं, कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्री क्या करेंगे? कांग्रेस का क्या रुख होगा? इस तरह के पहल में एक बड़ी दिक्कत यह है कि कांग्रेस बराबर चाहती है कि उसके नेतृत्व में सब कुछ हो, कोई बैठक होती है तो सोनिया गांधी की अध्यक्षता में हो। और उनकी पहल काम नहीं कर रही है।
कांग्रेस में नई जान आने की संभावना तो दिख नहीं रही है....
नहीं, कैसे दिखेगी, गुलाम है एक वंश की।
ऐसे में किसी और को पहल तो करनी पड़ेगी। क्या ममता जी पहल करेंगी?
मैं मानता हूं कि ममता जी पहल के मामले में सबसे अच्छी स्थिति में हैं। तीसरी बार चुनकर आई हैं मुख्यमंत्री के नाते। बहुत संघर्ष करके आई हैं। आज भी उनकी लड़ाई जारी है।
आपकी भी उसमें कोई भूमिका हो सकती है?
पता नहीं, मुझे तो तय करना नहीं है। उन लोगों को तय करना है। तय करेंगे तो देखेंगे।
मौजूदा हालत में इस सरकार के खिलाफ आपको आरोप पत्र बनाना हो तो आपकी नजर में कोई पांच आरोप क्या होंगे?
मैं सबसे पहले रखूंगा आर्थिक स्थिति को। अर्थव्यवस्था में ग्रोथ रेट कितनी है, इसमें बहुत कम दिलचस्पी आम लोगों की होती है लेकिन महंगाई में सबकी दिलचस्पी है। जैसे, पेट्रोल-डीजल की कीमतें भयानक तौर पर बढ़ा दी गई हैं। हालत यह है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतें गिर रही हैं तब भी तेल कंपनियां कीमतें बढ़ाती जा रही हैं। पेट्रोल की कीमत कई जगह 100 रु. के ऊपर चली गई लेकिन कहीं किसी ने चूं-चा भी नहीं किया। जनता में भी सहन शक्ति इतनी हो गई है कि वह चुप है। विपक्षी दल इसे मुद्दा नहीं बना पा रहे हैं। दूसरे, खाद्य तेल की कीमतें भी बेहिसाब बढ़ी हैं। थोक मूल्य सूचकांक 10 प्रतिशत से ऊपर चला गया। मेरा मानना है कि जनता को दो मसले उद्वेलित कर सकते हैं। एक, महंगाई और दूसरे बेरोजगारी। कहीं मैं पढ़ रहा था कि इसी अप्रैल महीने में ही 75 लाख नौकरीशुदा लोगों का रोजगार चला गया। ये लोग भी चुप होकर बैठ जाते हैं क्योंकि कोई उत्साह भरने वाला नहीं है।
अब चीन से कोई बात नहीं हो रही है। उसे जहां कब्जा करना था, उसने कर लिया। हमने खाली कर दिया और अब चुप होकर बैठ गए
इसलिए मैंने कहा कि अर्थव्यवस्था आरोप नंबर एक है। नंबर दो मेरे हिसाब से यह होना चाहिए कि उन लोगों ने जो वादा किया, उसे याद दिलाना चाहिए। आज से चार-पांच साल पहले मैंने अहमदाबाद में एक एक्सपेरिमेंट किया। एक टाउनहाल मीटिंग में मैंने पहले मोदी जी के भाषण का वीडियो चलाया। मसलन, उन्होंने पेट्रोल-डीजल की कीमत पर क्या कहा था, रुपये के अवमूल्यन पर क्या कहा था, बेरोजगारी पर क्या कहा था, उसके बाद आपको कुछ कहने की जरूरत ही नहीं है। कोई दो काम करे। एक, मोदी जी के पुराने भाषणों को इकट्ठा करके जनता के सामने पेश करे। दूसरे, मोदी जी ने जो हास्यास्पद बातें कहीं, उसे जनता को बताए। मसलन, उन्होंने कहा था कि गुरु नानक और कबीर बैठकर बातें किया करते थे, पटना में कहा कि सिकंदर की सेना को यहां हराया गया। मेरा कहना है कि देश को यह जानने का अधिकार है कि हमारा प्रधानमंत्री कौन है। विपक्ष इन बातों को मुद्दा ही नहीं बना रहा है।
कोरोना, खासकर दूसरी लहर की तबाही और स्वास्थ्य तंत्र की नाकामी को भी तो आरोप में जगह मिलनी चाहिए।
बिलकुल मिलनी चाहिए। कहा जाता है कि टीका बनाने में देश दुनिया में अव्वल है। अब हम टीका आयात कर रहे हैं। अचानक कह दिया कि 18 से 45 वर्ष वालों का टीकाकरण होगा लेकिन वैक्सीन ही नहीं है। ऑक्सीजन की कमी, अस्पतालों में बेड की कमी से अनेक लोगों की जान चली गई। हर किसी के जान-पहचान का, परिवार का कोई न कोई दुनिया से विदा हो गया। ये सारे मुद्दे ऐसे हैं जो छुएंगे लोगों का।
मुद्दे भी ज्वलंत हैं और मौका भी है, फिर भी विपक्ष....
बिलकुल विपक्ष को मिल बैठकर इन सारे मुद्दों का आरोप-पत्र बनाना चाहिए। जैसे, देखिए चीन लद्दाख में हमारी जमीन पर कब्जा करके बैठ गया। कोई कुछ बोल नहीं रहा है। चीन से एक-दो दौर के बाद बातचीत भी बंद हो गई, पता नहीं क्यों? कोई भी विदेश मामलों से अवगत व्यक्ति इसे नहीं समझ पाएगा कि समूचे लद्दाख की स्थिति पर बात करने के बदले खंड-खंड में हमने बात क्यों की। जैसे पोंगांग झील के बारे में बात हुई। चीन ने कहा कि चुशुल चोटी पर आप कब्जा हटाओ। हमने खाली कर दिया। लेकिन देपसांग पठार में चीन ने जो कब्जा किया हुआ है, वहां से उसे नहीं खाली कराया गया। डोकलाम पर चार साल पहले 2017 में काफी हल्ला मचा, लेकिन चीन फिर वहां काबिज हो गया। अब चीन से कोई बात नहीं हो रही है। उसे जहां कब्जा करना था, उसने कर लिया। हमने खाली कर दिया और अब चुप होकर बैठ गए। इसक अलावा विदेश नीति में सरकार की अनेक नाकामियां हैं।
लेकिन लब्बोलुवाब यही है कि विपक्ष अपनी जमात को कैसे समेटे और आगे बढ़े। मसलन, 2022 में उत्तर प्रदेश में क्या हो और उसके बाद 2024 की कोई रूपरेखा बने।
यूपी में मायावती को लेकर क्या सोचते हैं?
मायावती नहीं आएंगी साथ तो समाजवादी पार्टी और कांग्रेस बाकी छोटे दलों को साथ लेकर लड़ें।
सोशल मीडिया को भी काबू में करने की सरकारी कोशिशों पर आपका क्या कहना है?
अब उन्हें डर लगने लगा है। मैंने एक लेख में लिखा था कि जो सोशल मीडिया से जीवन प्राप्त करते हैं, वे मरेंगे भी सोशल मीडिया से। वह दौर शुरू हो गया है। इसलिए यह घबराहट है। मेरा अपना भी अनुभव है कि पहले मैं ट्वीट करता था तो भक्त बहुत बुरा-भला कहते थे, अब उसकी तुलना में ऐसी टिप्पणियां काफी घट गई हैं। तो इसलिए वे ट्विटर फेसबुक, यूट्यूब सबको काबू में करना चाहते हैं।
आपने, अरुण शौरी वगैरह ने 2019 में भी विपक्षी एकता की पहल की थी पर वह हो नहीं पाई थी। इस बार क्या हो सकता है?
ममता जी को पहल करनी चाहिए और कांग्रेस को साथ रखना चाहिए।