हमारे यहां मुक्ति, स्वतंत्रता, स्वाधीनता और आजादी लगभग एक जैसे अर्थ में इस्तेमाल होते हैं। इनमें से दो शब्दों में ऐसे शब्दों का संयोग किया गया है जो उलझन पैदा करते हैं- तंत्रता और अधीनता। अब जब भारत को स्वतंत्र हुए 72 वर्ष हो चुके हैं, हम यह पहचान सकते हैं कि हमारी तंत्रता और अधीनता इस बीच बढ़ी है।
यह भी कि मुक्ति सिकुड़ती गई है और इस दौर में तेजी से सिकुड़ रही है, राज्य द्वारा हड़पी जा रही है। बिडंबना है कि ऐसा लोकतांत्रिक राज्य में हो रहा है जिसकी प्रतिबद्धता संवैधानिक रूप से स्वतंत्रता-समता-न्याय के लिए है या कि होना चाहिए। यह भी देखा जा सकता है कि लोक और स्व में जो अनिवार्य द्वंद्व होता है वह शायद हमारे समय में अधिक तीखा हो रहा हैः लोक स्व का दमन करने पर उतारू है। लोक स्व की स्वायत्तता और गरिमा बढ़ाने के बजाय उन्हें घटाने की कोशिश कर रहा है।
राज्य लोक के पक्ष में इस कदर और इतना झुकता जा रहा है कि वह स्व को दुर्लभ्य कर रहा है। लोकतंत्र को मर्यादित-संयमित करने की जो स्वतंत्र शक्तियां जरूरी हैं, उनका लगातार सुनियोजित अवमूल्यन हो रहा है। वे इस तरह के सुविधापरस्त आलस्य में, आरामदेह निष्क्रियता में या अनुसने-अनदेखे जाने की विवशता में फंस गई हैं।
लोक का व्यापक समर्थन पाने वालों को स्व की कोई परवाह नहीं है और उनकी कोशिश स्व को हाशिए पर ढकेल देने की है। यह भले दुखद अचरज की बात है, पर सच है कि स्वयं स्वतंत्रता से जन्मे लोकतंत्र में स्वतंत्रता की जगह लगातार घट रही है या उस पर तेजी से बेजा कब्जा किया जा रहा है। हमारा समय अब ऐसा है कि किसी भी तरह के बेजा कब्जे को हटाया नहीं जा सकता। इस समय बेजा की हेकड़ी का कोई अंत नहीं।
कुछ विडंबना इससे भी निकलती है कि स्व को तंत्रता और अधीनता दोनों ही अपनी चरितार्थता के लिए चाहिए। स्व हवा में तैरता या सामाजिक शून्य में विचरता नहीं रह सकता। उसे ठोस सामाजिक आधार चाहिए। ऐसा आधार उसे बिना किसी तंत्र के यानी व्यवस्था के मिल नहीं सकता। ऐसा आधार बिना किसी न किसी स्तर को अधीन किए भी नहीं हो पाता। दार्शनिक दयाकृष्ण ने बहुत पहले इस ओर इशारा किया था कि ज्यों-ज्यों स्वतंत्रता ऊंचे बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों उसे अपने से नीचे को अधीनता में डालना पड़ता है।
हम अपने राजनैतिक सार्वजनिक जीवन में ऐसे मुकाम पर हैं कि राजनीति अब बाकी सभी शक्तियों को अपने नियंत्रण में लेने पर न सिर्फ आमादा है, बल्कि सफल भी हो रही है। धर्म, ज्ञान-विज्ञान, बाजार, शिक्षा, मीडिया, आर्थिकी आदि सभी राजनीति के अधीन हो गए हैं या होते जा रहे हैं। राजनीति ने लोकतंत्र को भी ऐसे चांप लिया है कि वह हर दूसरी जगह से सरकता-घटता जा रहा है।
स्वयं राजनीति में लोकतंत्र का एकमात्र अर्थ बहुसंख्यकतावाद हो गया है। इस बहुसंख्यकतावाद को संयमित करने का कोई लोकतांत्रिक उपाय लगभग नहीं बचा है। समता और न्याय के क्षेत्रों में भी लोकतंत्र का व्यवहार उन्हें सशक्त करने के बजाय उन्हें अप्रासंगिक बनाने की ओर बढ़ता जा रहा है।
आज नागरिक होने का अर्थ एक स्वतंत्रचेत्ता जिम्मेदार व्यक्ति होना नहीं है। वह एक संख्या होना है, एक कार्ड, एक पहचान-पत्र, एक इंदराज जो किसी आधिकारिक रजिस्टर में दर्ज हो। अभी तो नाम बचा है पर हो सकता है आप सिर्फ संख्या बनकर रह जाएं। तब हम लोकतंत्र के कैदी होंगे। लगभग सारे अधिकारी, नियुक्त या निर्वाचित, अलग-अलग नाम से हमारे जेलर होंगे। स्वतंत्रता एक खेल होगा जो कैदियों को जब-तब मनबहलाव के लिए या किसी फिटनेस व्यायाम के तहत खेलने दिया जाएगा या खिलाया जाएगा। इसे अगर कोई अतिशयोक्ति माने तो उसे यह ध्यान में रखना चाहिए कि हमारे समय की सारी बड़ी बातें, घोषणाएं, व्याख्याएं, नारे, विज्ञापन, सच्ची-झूठी खबरें अतिशयोक्ति के ही संस्करण हैं।
सूक्ति या कटूक्ति के बजाय हम भाषा और अभिव्यक्ति के हर स्तर पर अतिशयोक्ति से घिरे लोग हैं। स्वयं लोकतंत्र कई बार लगता है, इन दिनों अतिशयोक्ति है और स्वतंत्रता पाठ्यपुस्तकों में सीमित होती जाती और प्रायः याद न आने वाली सूक्ति।
स्थिति इतनी भयावह लगती है कि यह सोचना मुश्किल लगता है कि तब आखिर मुक्ति बची कहां है? संविधान ने समान अधिकारों की कल्पना करते हुए सोचा-चाहा था कि जातिप्रथा की कट्टरताएं और अन्याय खत्म हो जाएंगे। वोटबैंक की राजनीति ने उस प्रथा को सबल कर दिया। अन्याय के भाव ने अलबत्ता दलितों को संगठित किया और उन्हें राजनैतिक शक्ति के रूप में उभरने का अवसर दिया। पर इन दिनों उन पर अत्याचारों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। अल्पसंख्यक को दोयम दर्जे का नागरिक, व्यवहार में बनाया जाना शुरू हो गया है।
िस्त्रयों की उपस्थिति सामाजिक जीवन में बढ़ी है, पर उन्हें समकक्षता देने में हमारी बीमार पुरुष मानसिकता आड़े आ रही है और हमारी मुक्ति उस हद तक अधूरी बनी हुई है। स्वतंत्रता के लिए जरूरी असहमति और निर्भीक अभिव्यक्ति की जगह हर रोज कम होती जा रही है।
इस परिदृश्य में, फिर भी, साहित्य और कलाएं ही, विशेषतः ललित कलाएं और रंगमंच, ऐसे परिसर बचे हैं जहां मुक्ति का भूगोल बढ़ाने-गहराने की कोशिश शिथिल नहीं हुई है, जहां शक्ति और सत्ता से प्रश्न पूछने का उत्साह कम नहीं हुआ है, जहां आत्मप्रश्नता भी मौजूद है और जहां बिना अधीनता या तंत्रता का सहारा लिए स्व की मुक्ति समाज की मुक्ति के साथ संयुक्त होती और सर्जनात्मक आकार पाती रहती है।
ये वे परिसर हैं जहां संदेह और तर्क का, निर्भय और सक्रिय होने का अवकाश है। यहां प्रार्थना है पर स्तुति नहीं, आस्था है पर भक्ति नहीं। यहां चीख, ललकार, चीत्कार, पुकार, धिक्कार आदि की संभावना है। यहां वाद-विवाद-संवाद होता है, पर हिंसा नहीं। लोकतंत्र की स्मार्ट, पर असल में बेहद अराजक भीड़भाड़ भरी सिटी में, जहां हत्यारे बेखटके अपने शिकार की तलाश में दूसरों को पछियाते घूम रहे हैं, वहां शहर के किसी कोने में मुक्ति का नया पता साहित्य और कलाएं ही हैं। वही मुक्ति का घर हैं।
(लेखक कवि, आलोचक, टिप्पणीकार, रज़ा फाउंडेशन के प्रबंध न्यासी हैं)