देश में संविदा शिक्षकों का भविष्य अनिश्चितताओं से भरा है, क्योंकि उनका अनुबंध सीमित समय के लिए होता है और अक्सर उन्हें रिन्यू नहीं किया जाता। राज्य और केंद्र सरकार के स्कूलों में ऐसे शिक्षकों की संख्या बहुत अधिक है। दिल्ली में कांग्रेस की अगुआई वाली सरकार के कार्यकाल में कॉन्ट्रैक्ट टीचर्स के लिए पद सृजित किए गए। सरकार तब स्कूलों में स्थायी शिक्षकों की भर्ती करने में विफल रही थी और उसे शिक्षकों की भारी कमी से दो-चार होना पड़ रहा था। मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एमएचआरडी) की ओर से प्रकाशित हालिया आंकड़ों के अनुसार, पूरे देश के सरकारी स्कूलों में प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों में 10 लाख से अधिक पद खाली हैं। हाल में, पांच हजार से अधिक संविदा शिक्षकों ने दिल्ली में नियमित करने की मांग को लेकर प्रदर्शन किया। क्योंकि राज्य सरकार की तरफ से आश्वासन के बावजूद दिल्ली के 25 हजार से अधिक शिक्षकों के अनुबंध खत्म हो चुके थे। साथ ही, उत्तर प्रदेश, झारखंड, बिहार सहित कई राज्यों के संविदा शिक्षकों को अपनी मांग को लेकर पिछले कुछ वर्षों में विरोध-प्रदर्शन के लिए मजबूर होना पड़ा।
भारत को दोगुनी समस्या का सामना करना पड़ रहा है, जिसमें न केवल शिक्षकों की कमी बल्कि देश में नई नौकरियों के पैदा होने की जो उम्मीद थी, वह भी नहीं हो पा रही है। 1990 के शुरुआत में डिस्ट्रिक्ट प्राइमरी एजुकेशन प्रोग्राम (डीपीईपी) जैसी योजनाओं के जरिए सरकारी संसाधनों का हस्तांतरण और ‘सर्व शिक्षा अभियान’ (वर्ष 2000 के बाद) के विस्तार ने अनुबंध के आधार पर शिक्षकों की नियुक्ति के लिए प्रेरित किया। इसलिए कई राज्यों ने अपना बजट या खर्च कम करने के लिए सरकारी या स्थायी नियुक्ति की जगह शिक्षकों की विकेंद्रीकृत श्रेणियों (अनुबंध, अतिथि और पारा शिक्षक वगैरह) की नीतियों को अपनाया। संविदा पर नियुक्ति को उचित साधनों के जरिए समानता और दक्षता के लक्ष्यों को हासिल करना बताया गया। इनमें सबसे पहले सुदूर क्षेत्रों में स्कूली शिक्षा तक पहुंच का तेजी से विस्तार और शिक्षा के लक्ष्यों का सार्वभौमीकरण करना है। दूसरा, एकल शिक्षक वाले स्कूलों को खत्म करना है।
सबसे अहम बात यह है कि संविदा पर नियुक्ति को स्कूलों में छात्र-शिक्षक अनुपात को बनाए रखने और प्राथमिक शिक्षा पर लागत कम करने के लिहाज से उपयुक्त बताया जाता है। केंद्र सरकार भी नियमित रिक्तियों को भरने के लिए अनुबंध शिक्षकों की नियुक्ति के पक्ष में स्पष्ट तौर पर दिखती है, क्योंकि वह विभिन्न माध्यमों से सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा के लक्ष्य को हासिल करना चाहती है। राज्य सरकार ने संविदा पर नियुक्ति को एक समाधान के रूप में देखा और सबसे बड़ी बात कि इससे उस पर राजस्व का बोझ भी नहीं पड़ता है। इसके अलावा, कुछ राज्यों में संविदा शिक्षकों की वजह से स्थायी शिक्षकों की भर्ती भी रुक गई है, क्योंकि अधिकांश खाली पद को संविदा शिक्षकों से भरे गए हैं। इस प्रावधान के पक्ष में कई तर्क भी दिए जाते हैं। इसके बावजूद संविदा शिक्षकों के बीच व्यापक असंतोष है, जिससे कई गंभीर सवाल उठते हैं। कम वेतन और छोटे समय के लिए अनुबंध कुछ शिक्षकों को अन्य कार्यों या दूसरे क्षेत्रों की ओर रुख करने के लिए उकसाता है। अधिकांश योग्य या अनुभवी शिक्षक, विशेष रूप से विकसित राज्यों में, अन्य क्षेत्रों की ओर रुख कर लेते हैं, क्योंकि वहां उन्हें बेहतर सुविधाएं मिलती हैं। संविदा शिक्षकों को अक्सर कम वेतन पर काम करने के लिए मजबूर किया जाता है और वे निश्चित रूप से अपनी नौकरियों से खुश नहीं होते हैं। यह इस तथ्य से भी साबित होता है कि वे देश के विभिन्न हिस्सों में बार-बार विरोध कर रहे हैं।
इसके अलावा, अनुबंध शिक्षकों को कई काम करने पड़ते हैं, जबकि वे केवल शिक्षण कार्यों के लिए नियुक्त किए जाते हैं। उन्हें वैसे काम भी करने पड़ते हैं, जिसकी अपेक्षा नियमित शिक्षकों से की जाती है। जैसे, पाठ्यपुस्तकों का वितरण, पोशाक, मिड डे मील, अटेंडेंस रजिस्टर का रखरखाव और अन्य रिकॉर्ड। सरकारी स्कूलों में शैक्षणिक कार्यों के अलावा प्रशासनिक काम भी नए अनुबंधित शिक्षकों से कराए जाते हैं। संविदा शिक्षक अपनी सेवाओं को नियमित करने और वेतन में बढ़ोतरी की मांग करते हैं। अच्छे प्रदर्शन के आधार पर अनुबंध शिक्षकों को नियमित करने का प्रावधान होना चाहिए। राज्य को शिक्षकों को उनके उचित अधिकार देने के रास्ते में नौकरशाही और राजनीति की आड़ में किसी तरह की बाधा नहीं आने देना चाहिए। कई राज्यों में अनुबंध शिक्षकों की नियुक्तियां अब एक आदर्श बन रही हैं। संविदा पर नियुक्ति एक विशेष अवधि के लिए और सिर्फ असाधारण परिस्थितियों में की जानी चाहिए। समान काम के लिए समान वेतन दिया जाना चाहिए, जो वास्तव में संविधान के तहत राज्य के नीति-निर्देशों में से एक है।
एक ओर प्रशिक्षित शिक्षकों और अन्य सक्षम युवा स्नातकों की बढ़ती संख्या, तो दूसरी तरफ सरकारी स्कूलों में शिक्षण की गुणवत्ता में गिरावट से अव्यवस्था और अराजकता की स्थिति बन रही है। इस कारण योग्य पेशेवरों को शिक्षण संबंधी उपयुक्त नौकरियां हासिल करने और उसे अपनी पसंद के करिअर के रूप में चुनने में मुश्किल हो रही है।
(लेखिका एजुकेशन इकोनॉमिस्ट और जेएनयू से पीएचडी हैं)