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गांधी हमेशा एक संभावना है

जब कभी अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरा मंडराता है, लेखकों-बुद्धिजीवियों को गांधी याद आने लगते हैं
प्रसिद्ध पेंटर हकु शाह की गांधी पेंटिंग

वे सही थे, वे जानते थे कि वे सही हैं, हम सब जानते हैं कि वे सही थे। उनकी हत्या करने वाला भी जानता था कि वे सही हैं। हिंसा की अज्ञानता चाहे जितनी लंबी चले, वे यही साबित करते हैं कि गांधी सही थे  -पर्ल एस. बक

 

गांधी ने बहुतों को बहुत प्रभावित किया है। उनके बाद कई पीढ़ियां आई हैं, पर, उनके प्रति आकर्षण समाप्त नहीं हुआ है। उन पर किताबें लिखे जाने का, फिल्में बनाने का, नाटक लिखने और करने का, चित्र बनाने का सिलसिला खत्म नहीं हुआ है। दरअसल, जो लोग यह कहते हैं, या मानते हैं कि सामाजिक जीवन में, राष्ट्रीय जीवन में, गांधी प्रभाव दिख नहीं रहा है, वे यह भूल जाते हैं कि लिखने-पढ़ने वालों के बीच, कलाकारों के बीच, संस्कृतिकर्मियों के बीच, गांधी अब भी एक बड़ी वैचारिक-आत्मिक खुराक हैं। चंपारण के सौ साल पूरे होने पर, या गांधी और कस्तूरबा की डेढ़ सौवीं जयंती के अवसर पर ही नहीं, उससे पहले भी, हमारे समय में गांधी को लेकर कलाओं की दुनिया में एक नया सोच-विचार और कामकाज होता रहा है। बहुत दिन या वर्ष नहीं बीते जब गांधी-विचारों ने चित्रकार सैय्यद हैदर रज़ा को घेर-सा लिया था, और एक प्रदर्शनी भर के चित्र उन्होंने बनाए थे। महत्वपूर्ण समकालीन चित्रकार अतुल डोडिया के कामकाज में भी स्वतःप्रेरित ढंग से गांधी प्रकट हुए हैं।

हिंदी की ही बात करें तो गांधी के जीवन पर असगर वजाहत का एक नया नाटक सामने आया है और उस पर फिल्म भी बनने जा रही है। गांधी की मृत्यु नाम से गिरधर राठी अनूदित हंगरी के लेखक-नाटककार नेमेथ लास्लो का नाटक अत्यधिक चर्चित हुआ है। ‘चंपारण के सौ साल’ के अवसर पर अरविंद मोहन और सुजाता (चौधरी) की कई किताबें प्रकाशित हुई हैं। सच तो यह है कि इतना कुछ गांधी पर, नए सिरे से, लिखा-बोला जा रहा है कि हम जैसे पाठक, उसे यानी सब का सब पढ़ नहीं पा रहे हैं। रंगकर्मियों में, एम.के. रैना हों या भानु भारती, इनकी ‘चिंता’ के केंद्र में गांधी भी रहे हैं।

अंग्रेजी की दुनिया में, या विश्व की अन्य कई भाषाओं में, गांधी पर पुस्तकें आती ही रहती हैं। स्वयं मैं प्रायः हर महीने ऐसी ही कोई पुस्तक पुस्तकालय से लाता हूं या उसके बारे में किसी न किसी पत्र-पत्रिका में पढ़ता हूं। गांधी पर राजमोहन गांधी और रामचंद्र गुहा के लेखन ने खासी उत्सुकता जगाई है। दरअसल, गांधी के प्रति लेखकों-बुद्धिजीवियों के आकर्षण का एक बड़ा कारण तो यही है कि जब कभी अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरा मंडराता है तो गांधी के जीवन से बहुत कुछ याद आने लगता है। उनका नाम ही मानो एक संबल का संचार करने लगता है। और यह लगने लगता है कि गांधी ने अन्याय के प्रतिकार के जो औजार ढूंढ़े थे, वे हमेशा प्रासंगिक रहने वाले हैं। उनकी आत्मकथा मेरे लिए आज भी ‘प्रेरणा’ का एक अजस्र स्रोत है। गांधी ने अहिंसा का पाठ तो पढ़ाया ही, नैतिक बल के महत्व और शक्ति को जिस तरह रेखांकित किया, वह भी अपूर्व है।

मान लेता हूं कि कभी-कभी यह भी होता है कि बड़ा से बड़ा विचार, समाज में कई बार एक कोने में पड़ा-पड़ा फिर से अपनी ओर देखे जाने का इंतजार करता है। पर, उस विचार की अंततः अनदेखी संभव नहीं होती है। आखिरकार स्वच्छता का ‘नया’ आग्रह गांधी-विचार से ही उपजा है, और उसमें प्रतीक स्वरूप उनके चश्मे की जरूरत पड़ी है।

मैंने अपनी मित्र-मंडली को, जिसमें अशोक सेकसरिया, कमलेश, अशोक वाजपेयी, गिरधर राठी, महेन्द्र भल्ला जैसे लेखक-कवि रहे हैं, कभी गांधी-चर्चा से विहीन नहीं पाया है। प्रायः हर बैठक में मिलने-जुलने पर गांधी हमारे बीच आकर बैठ जाते रहे हैं। और कैसे भूल सकता हूं 2009 की लंदन से बरमिंघम तक की वह ट्रेन-यात्रा, जिसमें आती-जाती बार, कन्नड़ के सुप्रसिद्ध लेखक यू.आर. अनंतमूर्ति और मैं गांधी-चर्चा में ऐसा खोए थे कि कब हम गंतव्य में पहुंच गए, इसका भान नहीं हो पाया था।

इधर गांधी ने मुझे एक और कारण से बहुत आकर्षित किया है-और वह है, उनके कला-संबंधी विचार। नंदलाल बसु के ‘हरिपुरा पोस्टर्स’ के पीछे की एक प्रेरणा गांधी भी रहे हैं। और उनके संगीत संबंधी विचार तो आज अत्यंत महत्वपूर्ण हो उठे हैं। गांधी लिखते हैं, “सुगंध भी संगीत का रूप है। सच पूछिए तो संगीत प्राचीन और पवित्र वस्तु है। हमारे सामवेद की कथाएं संगीत की खान हैं। कुरान शरीफ की एक भी आयत ऐसी नहीं है जो सुर के बिना गाई जा सकती हो। और इसाई धर्म से डेविड के ‘साम’ (गीत) सुनने पर तो ऐसा लगता है, मानो हम सामवेद का गान सुन रहे हों। संगीत में हम हिंदुओं-मुसलमानों का मिलन देखते हैं। वह शुभ दिन कब आएगा जब राष्ट्रीय जीवन के दूसरे क्षेत्रों में भी हम इस मिलन संगीत के दर्शन करेंगे? उस दिन हम राम और रहमान का नाम साथ-साथ लेंगे। यदि हम करोड़ांे घरों में संगीत का प्रवेश चाहते हैं तो हम सबको खादी पहननी होगी और चरखा चलाना होगा। चरखे का संगीत तो कामधेनु है, करोड़ांे का पेट भरने का साधन है। मुझे तो उसमें सच्चा संगीत दिखता है।” (‘गांधी...अपनी नजर में’ गांधी मार्ग सितंबर-अक्टूबर 2018)।

ऐसे गांधी को भला कौन भूल सकता है, जो यह मानते थे कि आत्म-शुद्धि संभव है, भूलों का संशोधन संभव है, अन्याय का प्रतिकार संभव है और अपने में भी नित नई संभावनाओं का संधान संभव है। गांधी का जीवन एक रचनात्मक जीवन था। उसकी जड़ें ‘रचनात्मकता’ में बहुत गहरी हैं। वही मुझे सदैव आकर्षित करती हैं।

निश्चय ही कलाओं के साथ गांधी का जो संबंध रहा है, वह उनके कामकाज में कई रूपों में फलीभूत हुआ है। गांधी जी ने जिस ‘चरखा संगीत’ की बात की है, वही यह बताने के लिए काफी है कि उनकी कई गतिविधियों में, कई कार्यक्रमों में, हम एक कला-स्पर्श भी पाते ही हैं। यह भी कुछ याद रखने वाली बात है कि गांधी का जो लोक से संबंध अंततः बना, और जिसके जीवन और मर्म को उन्होंने महत्वपूर्ण माना, वह उनके सोच-विचार में, हमेशा शामिल रहा। गांधी जी को हस्तशिल्प की चीजों से एक गहरा लगाव हमेशा रहा। यह अकारण नहीं है कि उन्होंने कस्तूरबा के लिए जो साड़ी स्वयं बुनी थी, उसका बार्डर ‘लोक’ से गहरे में संपृक्त दिखता है। स्वदेशी के उनके आग्रह में हाथ से बुने-बने काम को ही प्राथमिकता मिली है- मिलती रही है। सादगी और सरलता, कमखर्ची और उससे निकली ‘सौंदर्यप्रियता’, उनके लिए प्रेरक-शक्तियां रही हैं। दरअसल, उन्होंने अपना ही एक सौंदर्यशास्‍त्र जिन चीजों से बनाया था, वे प्रकृति से ‘सहज’ प्राप्त चीजें रही हैं, या फिर हाथ से लगाव और प्रेम से बनायी गई चीजें। यह ध्यान देने की ही बात है कि उनकी इस ‘सौंदर्यप्रियता’ को, या वे किन चीजों को सुंदर मानते हैं, इस तथ्य को, बहुतों ने बहुत अच्छी तरह पहचाना था, और वे सब स्वयं जब उन्हें कोई चीज भेंट करते थे तो मानो यह पहले ही परखने और पहचानने की कोशिश करते थे कि ‘वह चीज’ गांधी को रुचेगी या नहीं! यह भी अकारण नहीं है कि आगे चलकर जिन लोगों ने, हस्तशिल्प की दुनिया में अनोखा कामकाज किया, उनकी अनोखी प्रेरणा गांधी ही रहे थे। इन्हीं में से तो थीं कमलादेवी चट्टोपाध्याय, जिन्होंने बुनकरों के लिए, हस्तशिल्पियों के लिए, एक से एक विलक्षण काम किए। देश भर में घूम-घूम कर उनकी पहचान की, उन्हें चिह्नित किया और उनकी यथासंभव मदद भी की। गांधी ने ‘हैंडीक्राफ्ट’ को कभी केवल बाजार की या मार्केटिंग की चीज नहीं माना था, वह हस्तशिल्पों के श्रम को, उसकी रचना से मिलने वाले आनंद को, प्राथमिकता देते थे। और इसको भी कि जो लोग हस्तशिल्पों को बरतें वह भी उनका ‘आनंद’ उठाएं, उनके कर्म और महत्व को समझें। केवल उपयोगी मानकर न बरतें। उसके सौंदर्य से भी जुड़ें।

सर रिचर्ड एटेनबरो की फिल्म देखते हुए क्या यह भी नहीं लगता कि गांधी और उनके सहयोगी, उनके साथी और कार्यकर्ता, जो कुछ पहने हुए हैं, वह सब सुंदर-सुंदर है। दृश्य डांडी मार्च का नमक सत्याग्रह हो, या कोई और, वहां हमें वेशभूषा और गति में एक ‘सुंदरता’ भी दिखाई पड़ती है। अपनी ही तरह की। रिचर्ड एटेनबरो की फिल्म का उदाहरण या साक्ष्य इसलिए दे रहा हूं क्योंकि वह फिल्म पर्याप्त रिसर्च के बाद बनाई गई है। और उसमें हर कालखंड की एक ‘विश्वसनीय’ पुनर्रचना की गई है।

कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने अपने संस्मरणों की पुस्तक इनर रेसेसेज आउटर स्पेसेज-मेमॉयर्स (इंडिया इंटरनेशनल नियोगी बुक्स-2014) के पृष्ठ 67 पर लिखा है, “गांधी जी से मिलने के बाद ही मैं रोजमर्रा जीवन में हैंडीक्राफ्ट्स के संबंध को पहचान पाई। उन्होंने कहा था कि हस्तशिल्प हमारे जीवन के लिए अत्यंत लाभकारी हैं, अगर हम उनके साथ सचमुच में रहने लगें और उन्हें अपने रोजमर्रा जीवन का अमिन्न अंग बना लें। मैं हस्तशिल्पों के स्पर्श मात्र से, उनके होने मात्र से, पुलकित हो उठने लगी और जिस कोमल संवेदना की व्याप्ति वे वातावरण में करते हैं, उसमें सांस लेना आनंदित करने लगा। ये ऐसे अनुभव थे जो बहुत मूल्यवान हो उठे। और मैं आज भी उन्हें बहुत अपना करके जानती हूं। उनमें मानो संगीत की एक-एक गूंज है, जिसे आप अपने अस्तित्व के भीतर सुनते हैं, ‘उस संगीत’ के ठहर जाने के बाद भी उनके साथ रहना ऐसा है जैसे किन्हीं रंगों की झिलमिलाहट नसों में उतर आए।”...“गांधी जी के साथ अपनी आरंभिक मुलाकातों में मैंने उन्हें आयरिश कवि और थियोसाफिस्ट डॉ. जेम्स कजिंस के साथ बैठे हुए पाया। उनके सामने हस्तशिल्प की कुछ चीजें बिखरी थीं। गांधी जी ने उस समय यह कुछ जोर देकर कहा कि हमें अपने हाथों से कुछ रचना बहुत जरूरी है, क्योंकि हमारे हाथ हमारी रचनात्मक इच्छा और अभिव्यक्ति का एक अच्छा माध्यम हैं। उस समय लोग इसे उनकी एक विचित्र-सी दार्शनिक उक्ति मानते थे, लेकिन अब तो इसे वैज्ञानिक रूप से प्रामाणिक माना जाता है। वे यह भी मानते थे कि हमें हस्तशिल्पों की जो महान विरासत प्राप्त हुई है, उसे संरक्षित किया जाना भी बहुत जरूरी है।”

आज हम एक टेक्नोलॉजी प्रधान, मशीनी और यांत्रिक युग के दौर में हैं, पर, अभी भी कई व्यक्तियों को, देश-दुनिया में, गांधी के ये विचार अत्यंत प्रभावित और प्रेरित करते हैं। ‘गुरुदेव’ के शांतिनिकेतन के प्रति गांधी जी का आकर्षण कुछ इसलिए भी विशेष था कि गुरुदेव भी प्रकृति के उपादानों को, हस्तशिल्पों को, कुटीर उद्योगों को मूल्यवान मानते थे। स्वयं उनके स्‍थापित किए हुए आश्रम इस बात के प्रमाण हैं कि गांधी की दृष्टि में देसी संसाधनों का, प्रकृति प्रदत्त चीजों का और हस्तशिल्पों का मूल्य और महत्व क्या था!

वैसे तो देश के प्रायः सभी प्रदेशों में कुंभकारी की, बुनकरी की, अन्य हस्तशिल्पों की एक लंबी और समृद्ध परंपरा रही है, जो अपने व्यावहारिक और सांकेतिक रूप में मौजूद है, पर, पहले जितनी सघन नहीं है। राजस्‍थान-गुजरात में भी हस्तशिल्पीय परंपराएं काफी समृद्ध रही हैं। गांधी ने बचपन से ही इनके प्रभाव को देखा-महसूस किया था। जाहिर है कि इन सबने उनके मन पर जो असर डाला होगा, वह आगे चलकर उनके विचारों में और अधिक फला-फूला खिल उठा।

गांधीवादी विचारों से, गांधी की लोक-दृष्टि से बेहद प्रभावित हमारे समय के महत्वपूर्ण लोकविद, चित्रकार, चिंतक और रचनाकार हकुशाह ‘कलाः एक सहज कर्म’ निबंध (हकुशाह संचयिताः संपादक पीयूष दईया, वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर, पृष्ठ 22) में लिखते हैं, “लोक-कलाकार का सर्वोत्कृष्ट भाग यह है कि यहां सर्जना जीवन का एक भाग बन जाती है। उसके लिए इसमें एक तरह की सहजता है जो उसे पल्लवित-पुष्पित करती है। यहां ‘कलाकार’ एक ऐसा प्राणी नहीं है जो ‘मानव’ से भिन्न हो। किसी भी महिला का उदाहरण लें। अपने दैनंदिन जीवन में वह ऐसे बहुतेरे काम करती है, जिन्हें रचनात्मक कर्म से संज्ञप्त किया जा सकता है। वह गोबर-मिट्टी से आकृतियां उकेरती हैं और घर की दीवार सजाती है, अपने झोपड़े में चीजों को सकीले (करीने) से संयोजित रखती है। अपने घर की मटकियों के लिए छल्लेदार साफा बनाती है, जिस पर इन मटकों को रखा जाता है। दो-तीन मटकियों को अपने सिर पर संभाले वह पानी भरकर लाती है, सूखी पत्तियों से दरी (चटाई) बनाती है। अपने बच्चों के लिए खिलौना बनाती है, अपने लिए मनकों/ कौड़ियों की माला बनाती है, जब उसके मवेशी घास चर रहे होते हैं तब वह ‘किंगरी’ बजाती है। वह फर्श पर कुछ बनाती है-अल्पना, रंगोली और कभी स्वयं ही शृंगार कर उल्लसित होती और नाचती है।”

यह गांधी दृष्टि ही है।

हकुशाह इसी पुस्तक के एक दूसरे निंबंध ‘लोक-रचना का सौंदर्यशास्‍त्र’ में यह दर्ज करते हैं, “महात्मा गांधी की रचनात्मक प्रतिभा ने विद्यालयों और उच्च शिक्षा संस्‍थानों में क्राफ्ट्स के प्रशिक्षण का आग्रह किया था। वे स्वयं प्रतिदिन चरखा चलाकर सूत कातते थे और उन्होंने हजारों लोगों को सूत कातने और बुनने के लिए प्रेरित किया। लेकिन आजादी के इतने दशक बीत जाने के बाद आज गांधी के गुजरात में बुनकरों की दशा अछूतों जैसी ही है।” इस निंबंध में उन्होंने भारत में वस्‍त्रों की बुनाई आदि के बारे में भी महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किए हैं।

हां, गांधी की कला-दृष्टि, लोक दृष्टि, सौंदर्य-दृष्टि की ओर नए सिरे से ध्यान दिया जाना बहुत जरूरी है। जिन लोगों का ध्यान इस ओर गया है, उन्होंने भवन-निर्माण से लेकर, रोजमर्रा की बहुतेरी उपयोगी चीजों को, हस्तशिल्पों से संयुक्त करने की कोशिश की है। सेवा की इला भट्ट ऐसे ही लोगों में है। यह न भूलें कि विचार दृष्टियां सिर्फ कागज के पन्नों या उपदेशों-संदेशों में नहीं पल्लवित होतीं, वे हवा, पानी, मिट्टी में भी कहीं न कहीं वास करने लगती हैं। सिर्फ उन्हें पकड़ने की, ग्रहण करने की, जरूरत होती है।

गांधी के विचारों से ही प्रभावित हुए थे अनुपम मिश्र, जिन्होंने जल को लेकर अनोखे उपयोगी कामकाज किए। कहीं न कहीं गांधी उस महिला की दृष्टि में भी रहे होंगे, जो कनार्टक की हैं, और जिन्होंने हजारों वृक्ष लगाए हैं, और जो अपना पद्मश्री अलंकरण लेने के लिए बहुत सारे वस्‍त्रों में, लगभग नंगे पैर राष्ट्रपति भवन चली आई थीं, और लोग उन्हें देखते और सराहते ही रह गए थे। तो गांधी, सचमुच एक संभावना हैं। उनके कला-विचारों में भी अनंत संभावनाएं दीख पड़ती हैं, आज भी, क्योंकि उसमें साधारण में असाधारण की खोज है। और साधारण, सहज, सरल, सादगी भरा, मिटाए जाने से भी मिटने वाला नहीं है। जो पहचान ले उसका आनंद गांधी की तरह, वह आनंदित होगा ही।

(कवि, कला समीक्षक, स्तंभकार और कई पुस्तकों के लेखक)

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