कर्नाटक की जीत पुरानी पड़ चुकी है। इसलिए नहीं कि वह कोई व्यर्थ की जीत है। शायद ही कभी किसी राज्य की जीत का इतना गहरा व विस्तृत राष्ट्रीय परिणाम हुआ होगा। बंद, घुटते कमरे में जैसे कोई किरण उतरे या किसी सुराख से ताजा हवा की पतली-सी लहर दौड़ जाए, वैसा अवर्णनीय अहसास कर्नाटक ने राष्ट्र को दिया है। इस वक्त भारतीय लोकतंत्र को, सार्वजनिक जीवन तथा सामाजिक विमर्श को इससे बड़ी सौगात मिल नहीं सकती थी।
यह राहुल गांधी की जीत नहीं है, हालांकि राहुल गांधी के बिना यह जीत संभव नहीं थी। कांग्रेस के साथ राहुल का नाता किसी विषाद सरीखा है। वे कांग्रेस के सबसे बड़े, प्रभावी नेता हैं, जिन्हें किनारे लगाने की रणनीति उनके विरोधियों ने तैयार की। उनकी छवि खराब करने में इन लोगों ने बेहिसाब पैसा व संसाधन उड़ेला। परिवारवाद का आरोप इतने कलुषित ढंग से पिछले वर्षों में उछाला और दोहराया गया कि राजनीतिक सत्ता की दृष्टि से कमजोर पड़ती कांग्रेस एक पांव पर खड़ी हो गई। इससे हुआ वही जो विरोधी चाहते थे। कांग्रेस राहुल से अलग दीखने की कोशिश करने लगी जबकि उनके बिना कांग्रेस का चलता नहीं है। इसमें गांधी-परिवार की अपनी कमजोरियों ने भी बड़ी भूमिका निभाई तथा पुराने कांग्रेसियों की नासमझी ने भी। यह सब कांग्रेस को भारी पड़ा।
फिर तो, कांग्रेस के असली नेता को इसकी काट निकालनी ही थी। राहुल गांधी ने वह काट निकाली। वे भारत जोड़ो यात्रा पर निकल पड़े। इस यात्रा ने दूसरा कुछ किया या न किया, परिवारवाद के आरोप से राहुल गांधी को और उससे पैदा हुई झिझक से कांग्रेस को बाहर जरूर निकाल दिया। आज राहुल गांधी अपने दम पर कांग्रेस का नेतृत्व कर रहे हैं, उसका रास्ता बना रहे हैं। परिवारवाद की बात अब खाली कारतूस से अधिक मतलब नहीं रखती है। जिस तरह राहुल की मां ने कभी कांग्रेस को खड़ा किया था, राहुल आज उसी तरह कांग्रेस को खड़ा कर रहे हैं। यह परिवार अपनी कमजोरियों से भी बाहर आने की कोशिश कर रहा है।
यह विरोधियों की सबसे पक्की व बहुआयामी हार है। यह उनके खोखले नेतृत्व, अर्थहीन जुमलेबाजी, सार्वजनिक धन की बिना पर अपना महिमामंडन, झूठ, दंभ, घृणा, अंतिम हद तक घिनौना सांप्रदायिक तेवर- इन सबकी सामूहिक हार है। मनुष्य की कमजोरियों को निशाना बना कर राजनीति में जो कुछ भी हासिल किया जा सकता है, उन सबकी कोशिश 2014 से ही चल रही है। यह उसकी पराकाष्ठा का दौर है। भारतीय जनता पार्टी को इसका ही घमंड रहा कि कोई भी, कैसा भी चुनाव हो, हमारा अंतिम मोहरा मोदी जी हैं। वे मैदान में उतरेंगे और हवा बदल जाएगी। ऐसा होता भी रहा। लेकिन कर्नाटक में वह मोहरा पिट गया!
भारतीय जनता पार्टी इस हार से दुखी हो, यह संभव है। चुनावों की जय-पराजय, सत्ता पर कब्जा जैसी मानसिकता कितनी गर्हित व खोखली होती है, यह पहले भी कई बार प्रमाणित हुआ है। अपार बहुमत वाली इंदिरा गांधी, अश्रुतपूर्व बहुमत वाले राजीव गांधी, गहरी शुभेच्छा के साथ गद्दी पर बैठाए गए मोरारजी देसाई, किसी वरदान की तरह कबूल किए गए विश्वनाथ प्रताप सिंह आदि इसके ही उदाहरण हैं। लोकतंत्र की यांत्रिक प्रक्रिया से गद्दी तक पहुंच जाना सरल है लेकिन संविधान की छलनी से पार निकलना खेल नहीं है। जिसने भी यह बात भूली या अहंकार में इसे दफनाने की कोशिश की, वह इतिहास के कूड़ेखाने में गिरा मिला। यह बात किसी भी सत्ता के लिए सही है, चाहे राज्य की हो या केंद्र की। कर्नाटक भाजपा के लिए खतरे की घंटी है या कि विनाश की शुरुआत, यह देखने की बात है। इस पार्टी में कहीं, कोई अटल-तत्व बचा हो तो उसके आगे आने व सक्रिय होने की यह अंतिम घड़ी है।
कर्नाटक की जीत को अपनी जीत मान कर चलेगी तो कांग्रेस गड्ढे में गिरेगी। संसदीय लोकतंत्र में जनता तो वोटों की भाषा में बोलती है. उसे खोल कर समझना आपकी राजनीतिक समझ व लोकतांत्रिक आस्था पर निर्भर है। कर्नाटक में जनता ने भारत की ओर से कहा है कि उसे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पसंद नहीं है; उसे अवसरवादी राजनीति पसंद नहीं है; उसे झूठ व मक्कारी पसंद नहीं है। कांग्रेस व दूसरे दलों के सारे अवसरवादी तत्वों को पार्टी में ले कर सरकार बनाने, न जीते तो अवसरवादियों को खरीद लेने की कला पर मोदी-शाह का एकाधिकार नहीं है। कांग्रेस भी यह करने की कोशिश करती मिलती है, दूसरे दल भी इस राह को पकड़ने में लगे रहे हैं। भारतीय लोकतंत्र के पास यही एकमात्र रास्ता बचा है, तो मतदाता के पास चुनने जैसा कुछ बचा कहां है! नागनाथ-सांपनाथ का ही विकल्प लोकतंत्र है तो इसकी फिक्र में हम दुबले क्यों हों? इसलिए लोकतंत्र का खेल नहीं, खेल का रास्ता बदलना देश के राजनीतिक भविष्य के लिए जरूरी है।
राहुल गांधी ने कहा कि कर्नाटक में हमने ‘घृणा के बाजार में प्यार की दुकान खोल दी है।’ यह जुमला है? हो सकता है, क्योंकि देश जुमलों से घायल पड़ा है। राहुल गांधी को सिद्ध करना होगा कि यह जुमला नहीं, उनकी आस्था है। आस्था है तो कीमत देने की तैयारी करनी होगी। जीत या हार चुनाव में नहीं, उससे कहीं पहले समाज में होती है, फिर वोट की शक्ल लेती है। समाज को पतनशील बना कर भी चुनाव जीता जा सकता है लेकिन वह चुनावी जीत लोकतांत्रिक हार में बदल जाती है। लोकतंत्र के इस रहस्य को पहचानने व आत्मसात करने की जरूरत है कि समाज को ऊंचा उठाना, एकरस बनाना, समता व समानता की तरफ ले जाना, निर्भय व निष्कपट बनाना संसदीय लोकतंत्र का अभिन्न दायित्व है।
कर्नाटक ने यह कहा तो है लेकिन हमने इसे समझा कि नहीं, इसकी जांच करने 2024 से पहले भी कई मुकाम आने वाले हैं। भाजपा भी, कांग्रेस भी तथा विपक्ष का बिल्ला लगाए घूमने वाले सभी दल भारतीय लोकतंत्र की इस कसौटी पर परखे जाएंगे।
ठोकरें खा के भी न संभले तो मुसाफिर का नसीब वरना पत्थरों ने तो अपना फर्ज निभा ही दिया
(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष और वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं)