Advertisement
20 मार्च 2023 · MAR 20 , 2023

फिल्म/इंटरव्यू: ‘बॉलीवुड-क्षेत्रीय सिनेमा संबंधों से देश एक सूत्र में जुड़ा रहेगा’

मैं चाहता था कि हम साथ मिलकर कुछ ऐसा काम करें, जो यादगार साबित हो
राणा दग्गुबाती

बाहुबली जैसी ब्लॉकबस्टर फिल्म से अपने अभिनय का लोहा मनवाने वाले चर्चित तेलुगू फिल्म अभिनेता राणा दग्गुबाती नेटफ्लिक्स की वेब सीरीज राणा नायडू में नजर आने वाले हैं। यह वेब सीरीज अमेरिकी ड्रामा रे डोनोवन (2013) पर आधारित है। वेब सीरीज राणा नायडू और वर्तमान सिनेमा से जुड़े मुद्दों पर गिरिधर झा ने राणा दग्गुबाती ने बातचीत की। साक्षात्कार से मुख्य अंश:

पहली बार अपने चाचा वेंकटेश दग्गुबाती के साथ स्क्रीन शेयर करने का कैसा अनुभव रहा?

मेरा अनुभव बेहतरीन रहा। जब मैंने अभिनय की शुरुआत की थी, तभी से ख्वाहिश थी कि एक दिन मैं वेंकटेश अंकल के साथ काम करूं। मैं चाहता था कि हम साथ मिलकर कुछ ऐसा काम करें, जो यादगार साबित हो। मुझे खुशी है कि जिस प्रकार का किरदार निभाने का मौका हमें राणा नायडू में मिला है, वह हम दोनों की प्रतिभा और केमिस्ट्री को खूबसूरती से स्क्रीन पर फिल्माने में सफल रहेगा। इतने प्रतिभाशाली और अनुभवी कलाकार के साथ काम करना चुनौतीपूर्ण तो होता है लेकिन इसमें सीखने को मिलता है।

वेब सीरीज अमेरिकी ड्रामा पर आधारित है, भारतीय दर्शकों के लिए कथानक में फेरबदल किया गया है?

राणा नायडू का निर्माण करते हुए भारतीय दर्शकों की रुचि और सोच का ध्यान रखा गया है। उसी के अनुसार ही इसका रूपांतरण किया गया है। वेब सीरीज में अपराध, राजनीति और सिनेमा के उन सभी पक्षों को उजागर किया गया है, जो हमारे भारतीय समाज में मौजूद है। सीरीज में दिखाया गया फैमिली ड्रामा भी आम भारतीय परिवार की कहानी कहता है।

एक अभिनेता के तौर पर बताइए कि नेटफ्लिक्स जैसे ओटीटी प्लेटफॉर्म ने किस तरह से सिनेमा का समीकरण बदला है?

पहले कहानियों को कहने की एक सीमा थी। एक खास तरह के विषयों पर ही फिल्में बनाई जाती थीं। आपको 2 से 3 घंटे में अपनी पूरी बात कहने का दबाव रहता था। ओटीटी प्लेटफॉर्म ने कहानियों को आकाश दिया है। अब किसी भी दिशा में, पूरी स्वतंत्रता के साथ अपनी बात कही जा सकती है। दर्शकों ने भी विभिन्न विषयों में रुचि दिखाई है, जिससे फिल्मकार प्रयोग करने का साहस कर रहे हैं। जिस तरह के किरदार आज हमें निभाने को मिल रहे हैं, उसे देखकर इस समय को कहानियों का अमृतकाल कहा जा सकता है।

आपने हिंदी सिनेमा और दक्षिण भारतीय सिनेमा में सार्थक काम किया है। दोनों जगह के वर्क कल्चर में आपको क्या अंतर महसूस हुआ?

हर जगह का अपना तौर तरीका होता है। यदि आप केवल दक्षिण भारतीय सिनेमा जगत को गौर से देखेंगे तो पाएंगे कि कन्नड़, मलयालम, तमिल, तेलुगू भाषा की फिल्मों का अलग रूप, स्वरूप रहता है। ठीक इसी तरह का अंतर हिंदी सिनेमा और दक्षिण भारतीय सिनेमा में है। हिंदी सिनेमा के साथ नेटफ्लिक्स, डिज्नी जैसे अंतरराष्ट्रीय मंच हैं। क्षेत्रीय सिनेमा जगत के लोग हिंदी सिनेमा से ही सीखते हुए आए हैं। मैं खुद मुंबई से सीखकर हैदराबाद तक उस ज्ञान, उस अनुभव को पहुंचाता हूं। ठीक इसी तरह जो हैदराबाद में सीखता हूं, उसे मुंबई में प्रस्तुत करने का प्रयास करता हूं। यह क्रम चलता रहता है।

वर्तमान समय में जिस ऊंचाई को तेलुगु सिनेमा छू रहा है, उस सफलता का राज?

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तेलुगू सिनेमा के सभी फिल्मकार अपनी जड़ों से जुड़े हुए हैं। यह फिल्मकार हैदराबाद के रहने वाले नहीं हैं। यह सभी छोटे कस्बों और गांव से निकलकर आए हैं। उन्हें अपनी सभ्यता और संस्कृति का ज्ञान है। वह अपने इलाके की परंपरा को जानते हैं और जमीन से जुड़ी कहानियों को सिनेमा में उतारने का प्रयास करते हैं। यही कारण है कि दर्शकों को तेलुगू फिल्मों से जुड़ाव महसूस होता है। अपनी कहानी को देखकर उनमें एक भावनात्मक लगाव पैदा होता है। इसी से फिल्में अच्छा कारोबार कर रही हैं।

क्या ओटीटी प्लेटफॉर्म ने दक्षिण भारतीय सिनेमा और हिंदी सिनेमा के बीच की दूरी को कम करने का काम किया है?

देश में स्थानीय कहानियों को आवाज देने के लिए क्षेत्रीय सिनेमा की जरूरत तो हमेशा ही महसूस होती रहेगी। लेकिन सुखद है कि आज भारत में 10 से अधिक भाषाओं की फिल्म इंडस्ट्री फल फूल रही है। तमिल, तेलुगू, पंजाबी, मराठी, बंगाली सिनेमा के कलाकार आज हिंदी सिनेमा में काम कर रहे हैं और हिंदी सिनेमा की नवीनता क्षेत्रीय सिनेमा को आधुनिक बना रही है। इस बात से भारत एक सूत्र में बंधा रहेगा और यह हम सभी के लिए खुशी की बात है।

क्या शाहरुख खान की फिल्म पठान की जबरदस्त सफलता ने बॉलीवुड फिल्मों पर उठे प्रश्नचिन्ह को दूर करने का काम किया है?

मेरा ऐसा मानना है कि अच्छा और बुरा काम हमेशा से ही होता रहा है। इस स्थिति में किसी फिल्म जगत को ही खारिज करना अपरिपक्वता की निशानी है। तेलुगू फिल्म जगत में भी खराब फिल्में बनती रही हैं। जरूरी यह है कि प्रयोग होते रहें। नए रास्ते खुलते रहें, नई कहानियों को मौका मिलता रहे। हम सभी मूल रूप से कलाकार हैं। फिल्म पठान की कामयाबी से हमें भी उतनी खुशी है, जितनी किसी भी सामान्य सिनेमा प्रेमी को होती है।

Advertisement
Advertisement
Advertisement