चुनावी दिनों में ज्ञान बंटता नहीं, भरभराकर उफनता है। जिनके कुल गोत्र किसी को न पता थे, उनके कुल गोत्र भी यहां पता लग जाते हैं। हनुमान दलित और आदिवासी थे, यह ज्ञान चुनावी प्रचार के दिनों में मिला। अब कोई नेता यह क्रेडिट न ले जाए कि दलित-आदिवासी हनुमान को तमाम भारतीय पुलिस थानों में पूजने की परंपरा हमने शुरू की। इस क्रेडिट के जवाब में यह बयान आ सकता है कि ये पूजा तो तब से हो रही है, जब हमारी पार्टी का शासन था। पुलिस थानों में पूजे जाने वाले हनुमान आदिवासी थे या नहीं यह शोध का विषय है। पुलिस थानों में कई बार कुछ लोगों की दशा आदिवासियों जैसी हो जाती है। पुलिस वाले देह के कपड़े तक उतार कर रखवा लेते हैं। पुलिस थाने में चाय सप्लाई करने वाला भी अपनी हैसियत शहर के एसपी जैसी समझता है। जिस हनुमान को पुलिस वाले पूजते हों उन्हें भी दबा-कुचला आदिवासी माना जाए तब तो यही कहा जा सकता है कि बजरंगबली बचाना इस मुल्क को। बलशाली पहलवानों और परम बलशाली पुलिस द्वारा पूज्य हनुमान भी अगर दबे-कुचले आदिवासी ही हैं, तो इस मुल्क में किसी को हक नहीं कि वह खुद को विकसित कह सके।
वैसे, हनुमान पर वामपंथी क्लेम भी कम नहीं बनता- लाल देह लाली लसे, अरु धरि लाल लंगूर। बज्र देह दानव दलन, जय जय जय कपि सूर। इस लाल हनुमान पर वामपंथी क्लेम बनता है।
मुझे राजस्थान का एक सीन दिखाई पड़ रहा है, मीरा गहन भक्ति में लीन, “कान्हा-कान्हा” कह रही हैं। एक पुरुष अवतरित होता है। मीरा पूछती हैं, “आप कौन?” “मैं श्रीकृष्ण प्रसाद यादव देवी, तुम मुझे ही भज रही थीं।” “पर मैं तो कान्हा को याद कर रही थी।” “देवी, इन दिनों हरेक देवी देवता को अपने नाम के आगे कुल गोत्र लगाकर चलना होता है। मैं श्रीकृष्ण प्रसाद यादव हूं। कुछ चतुर सुजानों ने मुझसे कहा कि आप अपना नाम श्रीकृष्ण प्रसाद यादव रखें। जिस इलाके में यादव अधिक हों, वहां खुद को सिर्फ श्रीकृष्ण यादव बताएं और जिस इलाके में कायस्थों का बाहुल्य हो, वहां खुद को श्रीकृष्ण प्रसाद कह दें। हे देवी मैं श्रीकृष्ण प्रसाद यादव हूं।”
मीरा बेहोश हो गई हैं। एक राजनीतिक टाइप व्यक्तित्व ने श्रीकृष्ण को सुझाया है कि आप निकल लें यहां से। मीरा के जेठ राजपूत बहुल कॉन्सीट्वेंसी से चुनाव लड़ रहे हैं। आपका कोई काम नहीं है यहां। टहल लें।
श्रीकृष्ण निकल लिए हैं। कई देवी-देवता अदृश्य हो लिए, बूझो क्यों। नाम गोत्र का प्रमाण कौन दे। राम राजपूत हैं। कृष्ण यादव हैं। हनुमान दलित हैं। पर मसला यहीं पर निपट नहीं जाता। भारत में आम तौर पर जाति विमर्श यूं शुरू होता है, “आप कौन।” “जी मैं बामन।” “कौन से वाले।” “जी महाराष्ट्रीय ब्राह्मण। “उसमें भी कौन से वाले? देशस्थ, कोंकणस्थ, कराहड़े कौन से वाले?” “जी मैं देशस्थ।” “बक्क, देशस्थ ब्राह्मण भी कोई ब्राह्मण होते हैं। वो फर्जी ब्राह्मण होते हैं, असली तो कोंकणस्थ ही हैं।” “कौन जात हो” के बाद अगला सवाल है कि “जात में भी कौन से वाले।” इस सवाल से पार पाना बहुत मुश्किल है। एक ही जाति में कई उपजातियां, हर उप जाति का दावा कि वो ही श्रेष्ठ है। हर उपजाति स्वघोषित आइएसआइ प्रमाण पत्र लिए घूम रही है। यूं भारत एक है।
एक बार एक अग्रवाल साहब ने मुझसे कहा, “खबरदार कभी मुझे गुप्ता के बराबर समझा। भले ही हम दोनों बनिये हैं पर बराबर नहीं।” मैंने कहा यूं भारत एक है। पर कोई बराबर नहीं है, हम सभी परम नीच हैं। कई मामलों में पूना का ब्राह्मण कानपुर के ब्राह्मण को उस निगाह से देखता है, जिस निगाह से अमेरिकन नाइजीयिरन को देखता है। यूं भारत एक ही है। बहुत फर्जीवाड़ा चल रहा है इस मुल्क में। समग्र देश को एक मानने वाले अपनी ही जाति के दूसरे बंदों को अपने बराबर नहीं मान रहे हैं। मोह माया से ऊपर उठे संत इस बात पर मार मचा देते हैं कि किसी जुलूस में उनके समूह को पीछे जगह दी गई और कोई दूसरा समूह आगे चला गया।
खैर, देवता फंस लिए हैं गोत्रों के चक्कर में। श्रीकृष्ण प्रसाद यादव से सवाल हो सकता है, “कौन से वाले यादव, गंगा के इस पार वाले या गंगा के उस पार वाले।” कृष्ण दिखते ही नहीं। काहे चक्कर में पड़ें किस किस को बताएं। श्रीकृष्ण द्वारिका गमन कर गए हैं। बस वहां उन नेताओं को न दिख जाएं जो वहां से उत्तर भारतीयों को ठोंक पीटकर भगाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। आखिर ब्रजवासी श्रीकृष्ण हैं तो उत्तर भारत ही के न।
मसले पेचीदा हो लिए हैं बहुत। देवताओं से उम्मीद थी कि मानव मात्र का उद्धार करेंगे, अब उन्हीं से पूछा जाएगा, हे देवता अपना गोत्र स्पष्ट करो, फिर हम बताएंगे कि आप हमारे उद्धार के लिए एलिजिबल हो या नहीं।